राजेश रामचंद्रन
लगभग 24 साल पहले वरिष्ठ पत्रकार अमूल्य गांगुली ने देशभर में हुए विभिन्न बड़े सांप्रदायिक दंगों पर जांच आयोगों की रिपोर्टों की छानबीन करके लिखा था, इस खोज कार्य में मैं भी शामिल था। जो सबसे ज्यादा चौंकाने वाला पहलू था, वह यह कि दंगों के सभी मामलों में सांप्रदायिक टकराव भड़काने वाली चिंगारी की शुरुआत, प्रक्रिया और तौर-तरीका मानो एक बनी-बनाई लीक का पालन करते हैं : धार्मिक अवसर पर जुलूस निकालो, जानबूझकर दूसरे समुदाय के मोहल्ले से गुजारा जाए, बस हो गया काम, जल्द ही टकराव होकर रहेगा। आगे, राजनीतिक नतीजों को लेकर चुनावी विश्लेषण दर्शाता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले दलों के पाले में वोटों का अंबार लगा। यह दशकों तक जांचा-परखा और समय-सिद्ध नुस्खा है और जब कभी ऐसे मजहबी दंगे राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भी घटें तो पुनरावृत्ति ही है। इस पुरानी प्रचालन संहिता में बस एक नया तत्व बुलडोज़र है, जो कानून से इतर तत्काल सजा देने की खातिर दनदनाता है।
लेकिन अनुत्तरित सवाल वही है– क्यों? खास मोहल्लों से पर्व के मौके पर जुलूस निकालकर सांप्रदायिक टकरावों की शुरुआत करना तुरंत किसी को भी सोच में डालेगा कि ज्यादातर ध्रुवीकृत हो चुकी राजनीति में अब इन बवालों का राजनीतिक उद्देश्य क्या है। क्या कोई फौरी राजनीतिक भड़काहट थी? क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभ लेने वालों को देशभर में अपने दबदबे को खतरा महसूस हुआ है, जिससे राष्ट्रव्यापी रार बनाना जरूरी हो गया? क्या उन्हें अगले चुनावों में वक्त रहते अपनी राजनीतिक पकड़ ढीली पड़ती दिखाई देने लगी है? क्या यह दो राज्यों में मिली राजनीतिक शिकस्त की प्रतिक्रिया है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए क्योंकि हालिया चुनावों में उन्होंने एक बड़े प्रदेश में अपनी रिकॉर्ड वापसी की है और तीन अन्य में भी बढ़िया प्रदर्शन किया है। उत्तर प्रदेश केवल सांप्रदायिक नफरत भड़काकर नहीं जीता– बल्कि यह सोशल इंजीनियरिंग साधने का बेहतरीन नमूना बना, साथ ही कानून के दायरे से बाहर जाकर की गई पुलिसिया कार्रवाइयां और मुफ्त की चीजों-सुविधाओं की घोषणाएं करना, कमजोर और साखहीन विपक्षियों के बरक्स, सत्तासीनों के पक्ष में काम कर गया। दरअसल, भाजपा के लिए सफलता का सबसे बड़ा मंत्र विपक्ष की तार-तार हुई पड़ी साख है।
तथापि, बहुसंख्यक शक्तियों के नवीनतम रूपांतरों का उद्भव होते देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि यह देशभर में एक समुदाय को तल्खी की ओर धकेलने का प्रयास है। अगर मामला यही है, तो भारत के लिए बतौर एक राष्ट्र और एक समाज फायदेमंद नहीं है। देश में अल्पसंख्यक वर्ग एक अच्छी-खासी तादाद वाला है। यदि उसे कोने में धकियाया गया तो सौहार्द और विकास पर असर पड़ेगा। अगर जनसंख्या के एक वर्ग को जान-माल की सुरक्षा पर संदेह रहे तो जाहिर है वह कौम स्थिरता में सहायक नहीं रहेगी।
एक शक्तिशाली राष्ट्र को लग सकता है कि गांधीवादी तरीकों से समान प्रतिनिधित्व और हक मांगने वाले आंदोलन की बनिस्बत उग्रता को कुचलना आसान होगा। लेकिन यह एक आंख मूंदकर जुआ खेलने जैसा है। नाराजगी की ओर धकियाए एक अल्पसंख्यक समुदाय को अलग-थलग कर रखना भारतीय संदर्भ में हो नहीं सकता क्योंकि हमारे यहां तो कश्मीर में दो वर्गों को विशेष रूप से निशाना बनाकर किए हमले रोक पाना संभव नहीं हो पाया- अक्तूबर, 2021 से लेकर नौ लोग केवल इसलिए मार दिए कि वे उस मजहब के नहीं थे। कश्मीर की सांप्रदायिक हत्याओं और जातीय संहार ने बिना शक देश के हिंदी-भाषी इलाकों में बहुसंख्यक राजनीति के उद्भव को वैध बना डाला, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इससे उसे हमारे मुख्य राजनीतिक स्वरूप को बिगाड़ने का लाभ मिले।
जब भी देश पर बहुसंख्यक हित की विचारधारा पर चलने वालों का राज आया है, जाहिर है बहुसंख्यक वर्ग मुख्यधारा की राजनीति बना। अब राजनीति की उस पांत वालों को मुल्क के एक समुदाय के प्रति अपने रवैये का विश्लेषण करना चाहिए। देश के भविष्य की खातिर, बहुसंख्यक वर्ग के रणनीतिकारों और सामाजिक समन्वयकारों को सुस्पष्ट दृष्टिकोण बताने के लिए भारतीय अल्पसंख्यकों के प्रति अपने नजरिए की व्याख्या करनी चाहिए। बहुसंख्यकों का उक्त संगठन सदा यह दावा करता आया है कि उसे कभी राजनीतिक ताकत की लालसा नहीं रही और वह भारतीय राष्ट्र के लिए सभ्यात्मक ध्येय रखता है। फिर, कैसे यह संगठन देश के बड़ी संख्या वाले अल्पसंख्यक समुदाय को अलग नजरिये से देखता है? ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पर चलने में गर्व हो, वहीं उसका कोई कदम से किसी कौम से भेदभाव जैसा लगे तो विश्व में उसके प्रति क्या राय बनेगी। इसकी बजाय, उस संगठन के सर्वोत्तम विचारकों को अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों के साथ मिल-बैठकर साझा हितों के वास्ते विचार और संभावनाओं की जमीन तैयार करनी चाहिए।
एक पीड़ित से यह कहना अलोकतांत्रिक होगा कि वह उन्हीं से वार्ता करे जो उसकी नज़र में गलत करने वालों के साथी हैं। तथापि कोई भी यह मानेगा कि एक समुदाय के कुछ लोगों का कट्टरवाद की ओर झुकाव, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, भारतीय जीवन का एक कटु तथ्य है और इससे बने वोटों के ध्रुवीकरण ने केवल मौजूदा सत्तासीन दल को ही फायदा पहुंचाया है, इसलिए यह भारतीय समाज, अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों के लिए भी, सबसे बेहतर होगा कि सबसे बड़े वर्ग के अधिकारों को ध्यान में रखकर संवाद का विचार करें। चुनावी महत्व से परे, सामाजिक पहलू से, यदि सभी समुदाय आपसी सहमति बनाकर अपनी-अपनी प्रतिगामी प्रथाओं में कमी लाएं तो ‘दूसरों’ के रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं के प्रति असहिष्णुता काफी हद तक शांत हो जाती है। आस्था और धर्म परिवर्तन का सार्वजनिक प्रदर्शन करना दो ऐसे विषय हैं जिन पर टकराव के बिंदु कम करने लिए राष्ट्रीय विमर्श होना चाहिए। अपने धर्म को बढ़िया ठहराना और दूसरों को उनके अनुष्ठानों के आधार पर या धर्म परिवर्तन करवाने वाला कहकर बदनाम करने कुछ हासिल नहीं होगा। दुर्भाग्यवश, इस बार राम नवमी की छवि मनमोहक मुस्कान वाली नहीं रही। ऐसे में, विध्वंस की बजाय वार्ता करें।
लेखक प्रधान संपादक हैं।