शिक्षक का कार्य मेंटोरिंग, शोध का मार्गदर्शन, आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहन, और समाज की प्रगति में योगदान देने वाले मूल्यों को स्थापित करना भी है। यदि उन्हें उचित वेतन और सम्मान नहीं मिलता, तो यह न केवल उनकी व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि यह राष्ट्र की बौद्धिक पूंजी को भी कमजोर करता है।
भारत की विद्यालय शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा प्रणालियों में से एक है। जहां 15 लाख विद्यालयों में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों से आने वाले 25 करोड़ बच्चों को 95 लाख शिक्षक पढ़ाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट (2023-24) के अनुसार, भारत में स्कूली शिक्षा का औसत वर्ष 6.6 वर्ष है। वहीं यह औसत विकसित देशों में लगभग 14 वर्ष है, वैश्विक स्तर पर यह 8.7 वर्ष है। इसका मतलब है कि एक औसत भारतीय अपने जीवन में औसतन केवल 6.6 वर्ष तक औपचारिक स्कूली शिक्षा प्राप्त करता है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि शिक्षा तक पहुंच और उसकी गुणवत्ता को और बेहतर करने की आवश्यकता है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए शिक्षकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि वर्तमान में देशभर के स्कूलों में लगभग 11.6 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं, जिसमें ग्रामीण क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित हैं क्योंकि भर्ती और प्रतिधारण में कई संरचनात्मक कठिनाइयां हैं। भारत में अध्यापन व्यवसाय के समक्ष कई चुनौतियां हैं, जिनमें योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षा संस्थानों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव, तकनीकी एवं नवाचारों के प्रति वैचारिक जकड़न, सुरक्षा और भविष्य को लेकर चिंताएं, कार्यभार के सापेक्ष कम वेतन, तनाव, बर्नआउट और निराशाजनक कार्य-संस्कृति शामिल हैं, जो सरकारी स्कूलों में अनुपस्थिति और प्रॉक्सी शिक्षण को बढ़ावा देते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों को अक्सर अलगाव और संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है, जबकि निजी क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों को प्रतिस्पर्धी दबाव और असुरक्षित भविष्य के साथ अपर्याप्त वेतन पर कार्य करना पड़ता है। विभिन्न नियामक एवं विधायी निकायों के रहते हुए भी यह विषमतापूर्ण हालात स्कूली शिक्षा में ही नहीं, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में भी बने हुए हैं।
शिक्षकों की मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि यदि शिक्षकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता या उन्हें उचित वेतन नहीं दिया जाता, तो यह उस मूल्य को कम करता है जो एक देश ज्ञान को देता है, और उन लोगों की प्रेरणा को कमजोर करता है जो राष्ट्र के बौद्धिक पूंजी के निर्माण के लिए जिम्मेदार हैं। शिक्षकों को भगवान के समान कहना ही काफी नहीं है, यह राष्ट्र के उनके प्रति व्यवहार में भी झलकना चाहिए।
ज्ञान-आधारित समाज से पारिभाषित देश में न्यायालय की यह टिप्पणी विचारणीय है कि समाज को शिक्षकों के प्रति अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। गुरु-गोविन्द से अलंकृत शिक्षकों को उचित वेतन, बेहतर कार्यस्थल, प्रशिक्षण के अवसर, और सामाजिक सम्मान प्रदान करना प्राथमिक कार्य होना चाहिए। शिक्षक केवल ज्ञान ही नहीं, बल्कि देश के भविष्य को आकार देते हैं। इसी कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के सफल क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
गौरतलब है कि आठवें वेतन आयोग की दहलीज पर खड़े हुए शिक्षक को अकुशलकर्मी के लिए निर्धारित मानदेय के बराबर पारिश्रमिक दिया जा रहा है। निजी क्षेत्र में कार्यरत प्राथमिक शिक्षक का मासिक वेतन सरकारी शिक्षकों की तुलना में 36 प्रतिशत कम है। निजी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षकों को औसतन 11,086 रुपये मिलते हैं। यही हाल माध्यमिक स्तरीय शिक्षकों का है, जहां उन्हें औसतन 13,412 रुपये मिलते हैं जो कि सरकारी शिक्षकों की तुलना में केवल 35 प्रतिशत है। उच्च शिक्षा संस्थानों में भी चिंताजनक स्थिति है। एक ओर शिक्षा मंत्रालय उच्च शिक्षा संस्थानों पर 25 प्रतिशत प्रवेश क्षमता बढ़ाने पर जोर दे रहा है, वहीं वित्त मंत्रालय नए शिक्षण पदों के सृजन पर प्रतिबंध की अपेक्षा रखता है। वित्तीय संकट से जूझ रहे तमाम सरकारी विश्वविद्यालय जहां अपनी आवश्यकता से कम पदों पर नए शिक्षकों की भर्ती कर रहे हैं, वहीं निजी संस्थान पूर्णकालिक शिक्षकों के बजाय अंशकालिक अध्यापकों को ही नौकरी दे रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत कम वेतन देना होता है।
न्यायालय का यह कहना कि शिक्षकों की वेतन संरचना को उनके कार्यों के आधार पर तर्कसंगत करना चाहिए, एक महत्वपूर्ण संदेश है। इसका अर्थ है कि शिक्षकों को उनके कार्य की जटिलता, जिम्मेदारी, और समाज पर इसके प्रभाव के आधार पर उचित वेतन और सुविधाएं दी जानी चाहिए। शिक्षकों का कार्य केवल पाठ पढ़ाने तक सीमित नहीं है। शिक्षक का कार्य मेंटोरिंग, शोध का मार्गदर्शन, आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहन, और समाज की प्रगति में योगदान देने वाले मूल्यों को स्थापित करना भी है। यदि उन्हें उचित वेतन और सम्मान नहीं मिलता, तो यह न केवल उनकी व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि यह राष्ट्र की बौद्धिक पूंजी को भी कमजोर करता है।
सरकार को शिक्षा क्षेत्र में निवेश बढ़ाना चाहिए, ताकि शिक्षकों को आधुनिक तकनीक और संसाधन उपलब्ध हों। साथ ही, समाज को भी शिक्षकों के प्रति अपनी मानसिकता बदलनी होगी, ताकि उन्हें वह सम्मान और सहयोग मिले, जिसके वे हकदार हैं।
लेखक डॉ. हरीसिंह गौर विवि, म.प्र. में सहायक प्राध्यापक हैं।