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बाढ़ व सूखा संकट से रक्षा के अभिनव प्रयास

जल धरोहर-संरक्षण

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जल-संरक्षण उपाय बाढ़ व सूखे दोनों का संकट कम करने में बहुत उपयोगी भूमिका निभाते हैं व यदि इन्हें जल-धरोहर की रक्षा के रूप में अधिक प्रतिष्ठित किया जाए तो और भी बढ़ती संख्या में व अधिक उत्साह से लोग इन प्रयासों से जुड़ सकते हैं।

किसी भी क्षेत्र में बाढ़ या सूखे के संकट के पीछे अनेक कारक होते है। वर्षा बहुत होगी या कम, अचानक बहुत तेजी से बरसेगी या ऐन मौके पर रूठ जाएगी, इस पर लोगों का नियंत्रण नहीं है। पर इतना जरूर है कि वे यदि जल व मिट्टी संरक्षण के सतत प्रयास करते रहें तो यह दोनों ही संकट व उपजी क्षति को बहुत कम अवश्य किया जा सकता है।

यदि एक क्षेत्र के सैकड़ों गांव अपने प्राकृतिक वर्षा जल के बहाव के क्षेत्रों को गंदगी व अवरोधों से मुक्त रखते हैं व इनमें गड्ढे कर इनमें अधिक वर्षा के जल को रोक लेते हैं; चेक डैम आदि निर्माण करते हैं; अधिक वृक्षों व मेढ़बंदी से मिट्टी व पानी को रोकते हैं। तालाबों जैसे जलस्रोतों की नियमित सफाई कर इनकी वर्षा के जल ग्रहण करने की क्षमता को बनाए रखते हैं या बढ़ाते हैं तो इस क्षेत्र में अधिक वर्षा होने पर अधिकांश पानी भली-भांति समा जाएगा। इससे बाढ़ उत्पन्न करने की समस्या कम होगी। दूसरी ओर बाद के महीनों में जल संकट भी कम होगा क्योंकि विभिन्न स्रोतों से अधिक जल एकत्र हो चुका होगा। इस कारण जल-स्तर भी ठीक बना रहेगा, हैंडपंप व कुएं आदि में जल उपलब्ध रहेगा। इस तरह जल-स्रोतों व छोटी-बड़ी नदियों की रक्षा के अनुकूल भी स्थितियां उत्पन्न होंगी।

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वहीं दूसरी ओर इन सभी कार्यों की उपेक्षा से मामूली वर्षा तेजी से बहुत सी मिट्टी को भी बहा ले जाएगी और बाढ़ का संकट उत्पन्न करेगी। दूसरी ओर चूंकि विभिन्न स्रोतों व भूजल के रूप में बहुत कम जल संरक्षित हुआ है, अतः मानसून के बाद के महीनों में जल-संकट उपस्थित हो जाएगा। सूख रहे तालाबों पर अतिक्रमण भी होने लगेगा। छोटी नदियां भी संकटग्रस्त हो जाएंगी।

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अतः स्पष्ट है कि वर्षा की मात्रा, बांध, तटबंध आदि चर्चित कारकों से अलग आपदाओं से रक्षा में एक बड़ी भूमिका आम लोगों, विशेषकर गांववासियों के जल-संरक्षण से जुड़े प्रयासों की है। जहां ये काम निरंतरता-निष्ठा व सूझबूझ से होंगेे, वहां आपदाओं का प्रकोप भी कम हो सकेगा। मरखेड़ा गांव (जिला टीकमगढ़, मध्य प्रदेश) एक समय जल संकट से बहुत परेशान था। हैंडपंप, कुएं सभी स्रोतों में पानी बहुत कम मिल रहा था। पानी जुटाने में महिलाओं की कठिनाइयां बहुत बढ़ गई थीं। तब सामाजिक कार्यकर्ता मंगल सिंह ने उपाय सुझाया कि प्राकृतिक जल बहाव मार्ग में सावधानी से स्थान चुनकर निर्धारित गहराई व आकार के गड्ढे बना दिए जाएंगे तो भू-जल स्तर सुधारा जा सकता है। गांववासियों ने उत्साह से यही किया व जो मिट्टी खोदी गई उसका उपयोग मेढ़ बनाने में किया। इसका बहुत सार्थक परिणाम मिला तो गांववासियों ने टूट-फूट रहे चेक डैम की मरम्मत भी कर ली। बहुत सा वृक्षारोपण भी किया। अत: बहुत कम खर्च पर ही गांव का जल-संकट दूर करने में उल्लेखनीय सफलता मिली। कुछ किसानों की उत्पादकता 50 प्रतिशत तक बढ़ गई।

इसी राज्य के जल संकटग्रस्त नदना गांव (जिला शिवपुरी) में ढलानदार भूमि में वर्षा का जल और भी तेजी से बह जाता था और मिट्टी भी अधिक काटता था। खेती की उत्पादकता कम हो गई थी व प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता बढ़ रही थी। यहां भी जल-संरक्षण के प्रयास आरंभ हुए व जल प्रवाह के नाले में लगभग 80 स्थानों पर गड्ढे बनाए गए। खेत-तालाब, गेवियन किस्म के चेक डैक बनाए गए। इससे भू-जल स्तर में बहुत सुधार हुआ, लोगों को कुओं व हैंडपंप में पर्याप्त पानी मिलने लगा। पशु-पक्षियों को जल-स्रोतों में वर्ष भर पर्याप्त पानी मिलने लगा। घास-चारा भी अधिक उपलब्ध होने लगा। कृषि उत्पादकता भी बढ़ी । भूमि कटाव रुका व मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर हुई है।

राजस्थान के करौली जिले के मकनपुर स्वामी गांव में जल-संकट से त्रस्त गांववासियों के प्रयासों के बाद जब जल-स्रोतों की सफाई से प्राप्त उपजाऊ मिट्टी किसानों को उनके खेतों के लिए प्राप्त हुई तो पथरीली, खनन-प्रभावित भूमि पर भी फसल लहलहाने लगी।

इन विभिन्न गांवों में जल स्थिति को इन संरक्षण उपायों से सुधारा गया है तो जहां लोगों को राहत मिली, वहीं आपदाओं के संकट भी कम हुए हैं। इन सभी उदाहरणों में स्थिति सुधारने में सृजन संस्था के कार्यकर्ताओं व गांव समुदाय की भूमिका रही। इस तरह जल संबंधी समृद्ध स्थानीय जानकारी का भरपूर लाभ मिल सका। सृजन ने इन कार्यों में दक्षता प्राप्त अन्य संस्थाओं मसलन, समाज सेवा संस्थान, अरुणोदय व युवा कौशल विकास मंडल जैसी संस्थाओं के सहयोग से यह कार्य अनेक अन्य गांवों तक भी पहंुच सका।

विशेषकर बुंदेलखंड क्षेत्र में तालाबों की समृद्ध परंपरा रही है व इनसे जुड़ी स्थानीय परिस्थितियों को भली-भांति समझने वाली स्थानीय कुशलताएं भी मौजूद हैं। ए.बी.वी. इंस्टिच्यूट ऑफ गुड गवर्नेंस ने ऐसे लगभग 1100 तालाबों के बारे में जानकारी एकत्र की। यदि इनकी सफाई व मरम्मत के कार्य उचित समय पर होते रहे तो इनकी जल-संकट को दूर करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी। साथ में अनुचित अतिक्रमणों से इनकी रक्षा करना भी आवश्यक है।

जल-संरक्षण को आगे बढ़ाने के कार्य को सृजन व इसके सहयोगियों ने जल-धरोहर या वाटर हैरीटेज की रक्षा के रूप में भी देखा है। जिस तरह सांस्कृतिक व ऐतिहासिक स्तर पर प्रायः धरोहर की रक्षा की चर्चा होती है, वैसे ही जल-धरोहर की रक्षा की सोच को आगे बढ़ाया गया है।

जन-भावनाएं विशेषकर नदियों की रक्षा से बहुत जुड़ी हैं। इसके बावजूद अनेक प्रतिकूल स्थितियों के कारण अनेक छोटी व सहायक नदियां संकटग्रस्त होती जा रही हैं। इनमें जल बहुत कम होने पर आसपास अतिक्रमण हो जाते हैं व बाद में पानी अधिक बरसने पर पानी की धारा अपना प्राकृतिक मार्ग ढूंढ़ती है तो बाढ़ आ जाती है। इस तरह जल-संरक्षण उपाय बाढ़ व सूखे दोनों का संकट कम करने में बहुत उपयोगी भूमिका निभाते हैं व यदि इन्हें जल-धरोहर की रक्षा के रूप में अधिक प्रतिष्ठित किया जाए तो और भी बढ़ती संख्या में व अधिक उत्साह से लोग इन प्रयासों से जुड़ सकते हैं।

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