लेन-देन की कूटनीति के दौर में भारत का इम्तिहान
चीन के मंसूबों की पुष्टि ऑपरेशन सिंदूर में भी हुई। उसने पाकिस्तान का साथ दिया। वहीं अमेरिका भी पाकिस्तान के प्रति गर्मजोशी दिखा रहा है। क्वाड ने पहलगाम आतंकी हमले पर बयान में पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। ‘फायदे मुताबिक लेन-देन’ की दुनिया में बनेे नैरेटिव पर काबू पाने को भारत कूटनीतिक संतुलन के कदम उठा रहा है। मसलन, पाक हॉकी टीम को भारत में खेलने की इजाजत व दलाई लामा मामले में संयम दर्शाना।
एक चीनी कहावत है ‘काश! हम मजेदार समय में जी सकें’। तेजी से आगे बढ़ती दुनिया में, बीता सप्ताह हमारे आसपास की दुनिया के कुछ रोचक पहलू सामने लाया। मामला कुछ भी हो, हालात का जायजा लेने में सप्ताहांत हमेशा अच्छा समय होता है।
जब कभी चीन और पाकिस्तान के नेता मिलते हैं,तो अपने रिश्तों को लेकर, मंत्र सरीखे जिस वाक्यांश का आह्वान करते हैं :‘दोनों मुल्कों का जुड़ाव पहाड़ों से ऊंचा, समुद्र से गहरा और शहद से मीठा है’ - वह तेजी से एक ऐसी हकीकत बनता जा रहा है, जो भारत के सामने मुंह बाए खड़ी है, चाहे हम जिस ओर भी मुंह घुमाएं। भारतीय सेना के उप-सेनाध्यक्ष, जनरल राजीव सिंह द्वारा चीन को लेकर की गई यह वाकपटु टिप्पणी कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उसका तरीका ‘उधार के चाकू से काम चलाने’ वाला रहा,जब उसने भारत को चोट पहुंचाने के लिए हर कदम पर पाकिस्तान की मदद की - यह इस बात की पुष्टि है, अगर पुष्टि करना जरूरी है, कि चीन ही भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है।
दो अन्य कारक भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। पहला, कि चीन का मुख्य प्रतिद्वंद्वी, यानि अमेरिका, वह भी पाकिस्तानियों के प्रति ज्यादा गर्मजोशी दिखा रहा है। दूसरा, अब जबकि दलाई लामा ने गत सप्ताहांत में उम्र के 90 साल पूरे कर लिए हैं, और अपने पुनर्जन्म को लेकर अटकलों को खुद ही यह कहकर विराम लगा दिया है कि उनका अगला जन्म चीन से बाहर होगा, एक आज़ाद और लोकतांत्रिक देश में, मसलन भारत-हालांकि, अभी साफ नहीं कि इस बदलती स्थिति पर केंद्र सरकार का नजरिया क्या रहेगा। अब लग रहा है कि इस सप्ताह क्वाड समूह के विदेश मंत्रियों की वाशिंगटन में होने जा रही बैठक से ऐन पहले जारी व्यक्तव्य में, पहलगाम आतंकी हमले में पाकिस्तान का नाम बतौर प्रायोजक लेने से परहेज रखा गया ,हालांकि ‘सीमा पारीय आतंकवाद’ की निंदा की गई है, एक सहमतिपूर्ण जुमला, जो संकेत देता है इससे परे जाकर कुछ नहीं कहा जाएगा- वहीं इसी वक्त पाक वायुसेनाध्यक्ष ज़हीर अहमद बाबर सिद्धू भी अमेरिकी राजधानी में मेजबानी का लुत्फ ले रहे हैं।
सिद्धू की यात्रा पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष फील्ड मार्शल असीम मुनीर के अमेरिका दौरे का अगला सिलसिला है, जब उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ असाधारण मुलाकात का मौका देकर नवाज़ा गया था। इसी बीच, भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता वार्ता अपनी परिणति की ओर है और भारतीय दल घर वापसी कर चुका है। अगर भारत अपना कृषि क्षेत्र खोले बिना अपना काम निकाल पाया, तो यह बड़ी जीत होगी। अमेरिका इसे पाकिस्तान के साथ संबंध बढ़ाने के बदले में एक कदम के रूप में भी देख सकता है।
लेकिन यहीं आकर इन दिनों चीजें बिगड़ने लगती हैं। अमेरिका को मालूम है कि मोदी सरकार के लिए पाकिस्तान का नाम घृणास्पद है, लेकिन फिर भी वह पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व से मिलना जारी रखे है। अमेरिकी शासन के कुछ हिस्से खफा हैं कि भारत रूस से तेल खरीदना जारी रखे है। इसी बीच, रूस विश्व का पहला देश बन गया जिसने तालिबान सरकार को मान्यता दी है, मकसद है एशिया के भीतरी हिस्से में प्रभाव बढ़ाना। वह तालिबान जो पाकिस्तान का पड़ोसी है और अब दोस्त से दुश्मन बन चुका है। क्वाड वक्तव्य में कम-से-कम पहलगाम का जिक्र तो आया, भले पाकिस्तान का नाम सीधे न लिया हो। जबकि,पिछले हफ्ते, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने चीन-नीत शंघाई सहयोग संगठन द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य पर दस्तखत करने से मना कर दिया था, क्योंकि इसमें न तो इस जघन्य कांड के पीछे रहे मुल्क का जिक्र था, न जगह का।
बड़ा सवाल, बल्कि कई सारे सवाल यह हैं कि हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र को लेकर बनाए ताकतवर समूह क्वाड में, जिसमें भारत मुख्य सहयोगी है, वह भी भारत द्वारा कही बातों का पूरा समर्थन क्यों नहीं करता। ये मुल्क, जानते हुए भी कि उनके एक सहयोगी क्वाड मुल्क को पाक-प्रायोजित आतंकी हमले से आघात लगा है, पाकिस्तान का सीधा नाम लेने से क्यों कतरा रहे? इतना ही नहीं, भारत इस नज़रिए को बदलने के लिए क्या कर सकता है?
साफ है, मनगढ़ंंत कहानियों पर काबू पाने के इरादे से मोदी सरकार ने पाकिस्तानी हॉकी टीम को भारत में होने जा रही दो प्रतियोगिताओं में खेलने की इजाजत दी। यानि एशिया कप और जूनियर वर्ल्ड हॉकी कप (पुरुष) में पाक हॉकी टीम खेलेगी, भले इसका कारण बताया जा रहा कि ये प्रतियोगिताएं द्विपक्षीय मैच न होकर अंतर्राष्ट्रीय श्रेणी में आती हैं।
ज्यादा रोचक रहा पंजाब भाजपा इकाई को दिलजीत दोसांझ के बचाव में खड़े होते देखना कि किसलिए इस देशभक्त अभिनेता की ट्रोलिंग की जाए - और उसकी फिल्म पर लगा प्रतिबंध हटाया जाए - केवल इसलिए कि उसमें पाकिस्तानी अभिनेत्री ने काम किया है। कुछ दिन पहले, सरकार ने माहौल का जायजा लेने के लिए, पाकिस्तान की कुछ नामी हस्तियाें जैसे शोएब मलिक, शाहिद अफरीदी और मावरा होकेन के कुछ सोशल मीडिया अकाउंट्स से प्रतिबंध हटाया था - लेकिन सोशल मीडिया पर इस कदम की प्रतिक्रिया देख इनको फिर से ब्लॉक करना पड़ा।
रोचक है कि ऑपरेशन सिंदूर में भारत की सफलता को रेखांकित करती सूचना का कुछ भाग ब्लॉक किए गए इन सोशल मीडिया अकाउंट्स पर आता रहा- मसलन, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के मुख्य सहयोगी राणा सनाउल्लाह का मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर (उनका अकाउंट भी भारत ने ब्लॉक किया है) के साथ बातचीत में यह कहना कि पाकिस्तान उस वक्त बुरी तरह दवाब में आ गया था, जब नूर खान हवाई वायुसेना अड्डे पर भारतीय ब्रह्मोस मिसाइलों ने बुरी तरह कहर बरपा दिया था। राणा सनाउल्लाह के मुताबिक, पाकिस्तानी सुरक्षा बलों के पास महज तीस-चालीस सेकंड ही यह तय करने के लिए थे कि किया क्या जाए। उन्होंने कहा ः यदि हम भी अपनी मिसाइलें छोड़कर प्रत्युत्तर देते तो इससे टकराव में और विस्तार होता। स्पष्टतः, सनाउल्लाह पाकिस्तानी खेमे की पतली हुई हालत को स्वीकार कर गए, जब 10 मई की रात भारतीय वायु सेना ने अपनी कार्रवाई से निर्णायक तौर पर मामला निबटा दिया था। आजकल इस इंटरव्यू के छोटे-छोटे अंश सोशल मीडिया पर चले हुए हैं - लेकिन जरा अंदाजा लगाएं कि घुमाकर पेश किए गए इन प्रारूपों की बजाय अगर पूरा इंटरव्यू भारतीयों को देखने को मिलता, तो कितना प्रभाव पड़ता।
बीते सप्ताह का अन्य बड़ा मुद्दा रहा, दलाई लामा के बारे में सवाल। संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू, जो खुद भी उस अरुणाचल प्रदेश से हैं जिसके त्वांग में छठे दलाई लामा पैदा हुए थे और जहां से होकर वर्तमान 14वें दलाई लामा ने 1959 में तिब्बत से पलायन करने के बाद भारत में प्रवेश किया था। उनको लेकर पिछले कुछ दिनों से इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि तिब्बती बौद्ध पवित्र संस्थानों के मामले में क्या होना चाहिए, इस बारे में और कोई नहीं (अर्थात चीन) बल्कि स्वयं वे ही तय कर सकते हैं। जो भी निर्णय प्रवास में रह रहे तिब्बती लोग अपने लिए तय करेंगे, मोदी सरकार कमोबेश उसके साथ चलना चाहेगी, लेकिन सब पक्षों को बखूबी पता है कि आज की कठोर दुनिया में, जहां हरेक मुल्क अपने हित बचाना चाहता है, इसकी संभावना कम ही है कि भारत सरकार अपने जोखिम पर चीन को नाराज़ करना चाहेगी।
पुराने वक्त के लोगों को याद होगा कि कैसे लगभग दस साल पहले प्रधानमंत्री मोदी और दलाई लामा के बीच गुप्त बैठक हुई थी, जब प्रधानमंत्री से मिलवाने के लिए तिब्बती धर्मगुरु को काले शीशों वाली और बिना नंबर प्लेट की कार में ले जाया गया था। आज की तारीख में, भारत का मानना है कि आस्था के मामलों में वह कोई रुख नहीं रखना चाहेगी, हालांकि धार्मिक स्वतंत्रता को बरकरार रखेगी। सवाल यह है, इस कूट-संदेश के मायने क्या हैं?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।