अशोक उपाध्याय
केंद्र सरकार देश को शिक्षा के सीमित सोच के दायरे से निकालकर 21वीं सदी के आधुनिक विचारों से जोड़ना चाहती है जहां मेधा की कभी कमी नहीं रही है। केंद्र की यह चिंता वाजिब है कि यहां ऐसी व्यवस्था बना दी गई थी, जिसमें पढ़ाई का मतलब केवल और केवल नौकरी ही माना जाने लगा था। प्रधानमंत्री मोदी का मत है कि शिक्षा में यह विकार गुलामी के कालखंड में अंग्रेजों ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए, अपने लिए एक सेवक वर्ग तैयार करने के लिए पैदा किया था। आजादी के बाद, इसमें थोड़ा-बहुत बदलाव तो हुआ लेकिन बहुत सारा बदलाव रह गया। अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था कभी भी भारत के मूल स्वभाव का हिस्सा नहीं थी और न हो सकती है।
यह सवाल गौर करने योग्य है कि बौद्धिक दायरा किसी भाषा विशेष का ज्ञान रखने वालों तक ही सीमित क्यों रहना चाहिए। यह भावनात्मक मुद्दा नहीं है बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी रहे हैं। दुनिया चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रही है और पिछली तीन औद्योगिक क्रांति के अनुसंधान में हम पिछड़ गये। प्रधानमंत्री ने इसकी वजह गिनाते हुए स्पष्ट किया है कि गुलामी के कालखंड में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा हुई और अनुसंधान की भाषा को सिर्फ एक-दो भाषाओं तक सीमित रखा गया। उन्होंने सभी भारतीय भाषाओं को धनी बनाने के सरकार के राष्ट्रीय भाषा अनुवाद मिशन का जिक्र किया, जिसका मकसद साफ है कि भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावलियां उपलब्ध हों। इंटरनेट पर ज्ञान और सूचना का बहुत बड़ा भंडार है जिसे हर कोई अपनी भाषा में जान सके और इस मकसद को पूरा करने के लिये भाषीनी प्लेटफार्म लांच किया गया है।
प्रधानमंत्री ने जिस भाषा का नाम नहीं लिया, वह अंग्रेजी है। इतिहास है कि भारत में मिशनरी स्कूलों की शुरुआत 16वीं सदी में हुई और पुर्तगालियों ने पहले गोवा और कोच्चि में ऐसे स्कूलों की स्थापना की। अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 18वीं सदी से मिशनरी स्कूलों का तेजी से विस्तार हुआ और आज ऐसे स्कूल एवं कॉलेज देश के लगभग हर बड़े शहर में मौजूद हैं। इन स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा एवं बोलचाल की भाषा अंग्रेजी है और उसे बड़ी सख्ती से लागू किया जाता है। हर भाषा का अपना दायरा और महत्व है और भारत सदैव से अनगिनत भाषाओं को समाहित करने में सक्षम रहा है। भारत में हर भाषा फली-फूली है और बोलचाल से लेकर साहित्य रचना में उसका योगदान सर्वविदित है। नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में अदालतों में स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल पर भी जोर दिया था। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में न्यायिक प्रक्रिया और फैसले समझना मुश्किल होता है। स्थानीय भाषाओं के प्रयोग से न्याय प्रणाली में आम नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा और वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। यह एक तरह से सामाजिक न्याय होगा। प्रधानमंत्री की यह सद्इच्छा भी न्यायसंगत है और उसे लागू करने की दिशा में भले ही अनेक कठिनाइयां हों लेकिन उसे अमल में लाने के प्रयास से न्याय प्रणाली मजबूत होगी।
बिना विवाद में पड़े ऐतिहासिक तथ्यों को जानने का प्रयास करें। 18वीं सदी के आरंभ होने तक भारत में हिंदी मुख्य भाषा नहीं थी और काफी हद तक संपर्क भाषा भी नहीं थी। मुख्य रूप से संस्कृत, अरबी और फारसी का कामकाज की भाषा के रूप में इस्तेमाल होता था। अंग्रेजी हुकूमत के आने के बाद गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने भारत को समझने के लिये हिंदी या उर्दू भाषा को नहीं बल्कि फारसी भाषा को प्राथमिकता दी। वास्तव में उसे आभास हो गया था कि भारत को समझने के लिये इसकी भाषाई विविधता को समझना और इनका संरक्षण अनिवार्य है। सांस्कृतिक विविधताओं से भरा भारत ऐसा देश है जहां हर चालीस कोस के बाद बोली और रहन-सहन में अंतर देखने को मिलता है।
अंग्रेज अफसरों के लिए संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया था। आठ फरवरी, 1812 को जारी एक सरकारी अध्यादेश में स्पष्ट लिखा गया कि जनहित से जुड़े सरकारी पदों पर तैनात अफसरों के लिए तीनों भाषाओं का ज्ञान जरूरी है। प्रशासनिक सेवा के अफसरों को बाकायदा तीनों भाषाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था। अदालत और रजिस्ट्री के दस्तावेज भी इन्हीं भाषाओं में लिखने होते थे। बीसवीं सदी तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में इन्हीं तीनों भाषाओं का इस्तेमाल देखा जा सकता है। दरअसल उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज शासन के दौरान अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने की कवायद शुरू हो गई, अंग्रेजी के साथ हिंदी एवं उर्दू का इस्तेमाल बढ़ता चला गया और संस्कृत, अरबी और फारसी का इस्तेमाल कम होता चला गया।
आजादी मिलने के बाद 1960 के दशक में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर राजनीतिक बवाल हुआ था। दक्षिण भारत के लोगों के मन में यह शंका पैदा की गई कि उन पर हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है जो पूरी तरह से आधारहीन थी। उस समय तक अंग्रेजी सरकारी भाषा का रूप ले चुकी थी, लेकिन आजाद भारत में एक राष्ट्रीय भाषा की जरूरत को महसूस किया गया, जिसकी वजह अपनी पहचान को बनाये रखना था। चूंकि आबादी के लिहाज से हिंदी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती थी इसलिये उसके विस्तार की कल्पना की गई। कभी किसी सरकार ने हिंदी को गैर-हिंदी भाषी लोगों पर थोपने की कोशिश नहीं की।
अगर गुलामी से पहले भारत के कालखंड को देखेंगे तो शिक्षा में अलग-अलग कलाओं की धारणा थी और बनारस इसका जीवंत उदाहरण है। बनारस ज्ञान का केंद्र केवल इसलिए नहीं था कि यहां अच्छे गुरुकुल और शिक्षण संस्थान थे। बनारस ज्ञान का केंद्र इसलिए था कि यहां ज्ञान और शिक्षा के बहुआयामी क्षेत्र थे। मोदी मानते हैं कि शिक्षा में यही विविधता हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी प्रेरणास्रोत होनी चाहिए। हम केवल डिग्री धारक युवा तैयार न करें, बल्कि देश को आगे बढ़ाने के लिए मानव संसाधनों की जरूरत के अनुसार शिक्षा व्यवस्था हो। इस संकल्प का नेतृत्व देश के शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों को करना है और वे जितनी तेजी से इस भावना को आत्मसात् करेंगे, देशहित में होगा।
दरअसल, केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इन तमाम पहलुओं को समाहित करने के साथ देश की हर भाषा को धनी बनाने के लिए काम कर रही है। लेकिन इस हकीकत को ध्यान में रखना होगा कि औद्योगिक क्रांति के नये दौर में अनुसंधान के दस्तावेज अंग्रेजी में ज्यादा उपलब्ध होते हैं, ऐसे में उनका सटीक अनुवाद जरूरी है जिसे गूगल अनुवाद से पूरा नहीं किया जा सकता। केंद्र के साथ हर राज्य को अपनी क्षेत्रीय भाषा में इंटरनेट के युग के हिसाब से अनुवाद की सुविधा मुहैया कराने के लिये आगे आना चाहिए ताकि वे भविष्य में संरक्षित रहें।
लेखक यूनीवार्ता के संपादक रहे हैं।