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राष्ट्रीय एकता का पुल बनें भारतीय भाषाएं

मातृभाषा की अनदेखी

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आज हमारी सोच बन गई है कि अगर अंग्रेजी में भावानुवाद हो जाए, तो रचना वैश्विक बन जाएगी। लेकिन इस दौड़ में, जहां अंग्रेजी शब्दकोष की सीमाओं के कारण हमारी सांस्कृतिक गरिमा की विविधता खो रही है, वहीं अपने देश के नागरिक भी अपनी संस्कृति से दूर हो रहे हैं।

किसी देश की संस्कृति उसकी भाषाओं, साहित्य और परंपराओं से पहचानी जाती है। भारत की भाषाओं की जड़ संस्कृत में है। मध्ययुग की हिंदी और देवनागरी आज देश के अधिकांश लोगों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। लेकिन अंग्रेजों के साम्राज्य ने हमें अंग्रेजी के प्रभाव में डाल दिया, और यह सबसे पहले दक्षिण भारत में प्रभावी हुआ। धीरे-धीरे अंग्रेजी बोलने की क्षमता को ही शिक्षा और समाज में प्रतिष्ठा का पैमाना बना दिया गया। संविधान में हिंदी को 15 वर्ष बाद राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही गई, लेकिन दक्षिण भारत में इसे स्वीकारने में कठिनाई आई और इसे हिंदी के अधिनायकवाद के रूप में देखा गया। आज भी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, और उसे ही सफलता का पैमाना माना जाता है।

यह कैसी विसंगति है कि हम अपनी भाषा और संस्कृत, जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी है, का न तो सम्मान करते हैं और न ही उसे अपनाने के लिए तैयार हैं। वहीं, जब हिंदी के समर्थन में आवाज उठती है, तो दक्षिण भारत के नेता इसे ‘थोपने’ के रूप में देखकर इसके प्रति विरोध और राजनीति करते हैं।

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पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में काशी-तमिल संगमम का आयोजन किया, जिसमें नागरिकों से तमिल भाषा सीखने का आग्रह किया गया। यह चौथा संस्करण है, जिसमें उत्तरी भारत को तमिल अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। इसका उद्देश्य हिंदी और तमिल के बीच सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित करना है, जिससे भाषाई कट्टरता को समाप्त किया जा सके और देश में एकता बढ़े।

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में भाषाई विरासत के लुप्त होने पर गहरी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि हम अंग्रेजी के पीछे दौड़ते हुए अपनी स्वदेशी भाषाओं, खासकर संस्कृत और मराठी, को भूल रहे हैं। संत ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता का ज्ञान मराठी में दिया, जिससे समाज को समझाने में आसानी हुई। भागवत ने सवाल उठाया कि हम अपनी हजारों साल पुरानी विरासत की बजाय आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी की ओर क्यों भाग रहे हैं, जबकि हमारे विद्वानों ने संस्कृत में ज्ञान अर्जित किया था। यह आत्मचिंतन का समय है कि हम अपनी संस्कृति और भाषाओं को खोने की ओर क्यों बढ़ रहे हैं।

संस्कृत, जो सभी भाषाओं की जननी मानी जाती है, आज पश्चिमी देशों में पढ़ाई जा रही है, जबकि हमारे देश में लोग अपनी बुनियादी अभिव्यक्ति के लिए मातृभाषा और अंग्रेजी का मिश्रण करते हैं। अंग्रेजी बोलने का आकर्षण एक तरह से आभिजात्य साेच का प्रतीक बन गया है, जबकि हमारी देसी भाषाओं को पिछड़ेपन का संकेत माना जाता है। यह केवल पिछड़ेपन का प्रतीक नहीं, बल्कि हमारी दास मानसिकता का भी प्रतीक है। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोष की सीमितता के बावजूद, हमारी स्वदेशी भाषाएं, जो क्षेत्रीय रूप से समृद्ध हैं, गहरे भावों और विचारों को व्यक्त करने में सक्षम हैं।

अनुवाद और भावानुवाद एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक पुल हैं और हिंदी वह मुख्य मार्ग है जो संस्कृत के आधार पर खड़ा है। लेकिन अपनी-अपनी पक्षधरता के कारण और राजनीतिक सीमाओं को स्वीकार करते हुए, हम अपनी स्वदेशी भाषाओं से विमुख हो रहे हैं और अंग्रेजी भाषा की गोद में बैठते जा रहे हैं। एक-एक भाव की अभिव्यक्ति के लिए कई बार हिंदी और संस्कृत के पास जो अनमोल खजाना है, वह अंग्रेजी के पास नहीं है। हम हास्य और शोक जैसे सामान्य भावों को हिंदी और संस्कृत में अनगिनत शब्दों से व्यक्त कर सकते हैं, जबकि अंग्रेजी के पास उस प्रकार की विविधता नहीं है। हम भारतीय संस्कृति को अंग्रेजी में प्रस्तुत करना चाहते हैं, लेकिन संस्कृत के कई मूल शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद ही नहीं हो सकता, जैसे ‘कल्पवृक्ष’।

मोदी जी ने भी अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में इसी पर जोर दिया कि अपनी सोच का विस्तार कीजिए, अपनी सभी भाषाओं को स्वीकार कीजिए। अनुवाद का जहां तक सवाल है, सबसे पहले इन सभी भाषाओं में हमारे ज्ञान और साहित्य की थाती का भावानुवाद होना चाहिए। हम इसके लिए हमेशा अंग्रेजी में अभिव्यक्ति का सहारा न तलाशते रहें।

आज हमारी सोच बन गई है कि अगर अंग्रेजी में भावानुवाद हो जाए, तो रचना वैश्विक बन जाएगी। लेकिन इस दौड़ में, जहां अंग्रेजी शब्दकोष की सीमाओं के कारण हमारी सांस्कृतिक गरिमा की विविधता खो रही है, वहीं अपने देश के नागरिक भी अपनी संस्कृति से दूर हो रहे हैं। कुछ भारतीय तो मातृभाषाओं को भी नहीं जानते। पहले इन भाषाओं को समझना होगा और इन सामंजस्यपूर्ण पुलों से गुजरना होगा। तभी देश में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हो सकेगी और सांस्कृतिक गौरव का अहसास बढ़ेगा। लेकिन जब लोग अपनी-अपनी भाषा के लिए संघर्ष करते रहेंगे, तो कब वे इस सत्य को समझेंगे? यही आज के बदलते युग का सबसे बड़ा सवाल है।

लेखक साहित्यकार हैं।

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