लोकतांत्रिक मूल्यों से संचालित भारतीय वैश्विक नीति
आजादी के बाद भारत ने लोकतंत्र के सिद्धांतों को अपनाया। यानी शासन जनता के प्रति उत्तरदायी है। जिसकी जड़ें हमारे अतीत में हैं। वहीं लिबर्टी का पाठ पढ़ाने वाली वैश्विक ताकतें ही स्वार्थवश जनतांत्रिक राह त्याग रही हैं। हम दुनिया के साथ जुड़ाव चाहते हैं, लेकिन उनकी लोगों की कीमत पर नहीं जिनके पास न आवाज़ है, न वोट, न स्रोत। स्मृति महज वह नहीं जो कुछ हमें याद रहे। यह उस बारे में है, जो बनना हमें मंजूर नहीं।
उपनिवेशवाद न केवल धन-दौलत लूटता है, बल्कि गरिमा भी खंडित कर देता है। यह पराधीन राष्ट्रों को खुद पर संदेह करना, अपने सहज ज्ञान को नकारना और मान्यता पाने को दूसरे देशों की ओर तकना सिखाता है। भारत के लिए, यह घाव महज चुराए गए अन्न या लूटे गए खजाने का नहीं था। यह मानसिकता में कहीं ज्यादा गहरे तक बदलाव करने वाला रहा : यह धारणा बना देना कि शासन, व्यवस्था और नैतिकता विदेशों की देन है।
तथापि, जब स्वतंत्रता मिली, तो भारत ने अपने उत्पीड़कों का अनुकरण नहीं किया। इसने प्रतिशोध को सिद्धांत या बहिष्कार को नीति के रूप में नहीं अपनाया। विभाजन की राख में, भीषण गरीबी और टुकड़े हुए उपमहाद्वीप के बीच, भारत ने एक क्रांतिकारी निर्णय लिया - अपने लोगों पर पूर्णतया भरोसा करने का। केवल पुरुषों पर ही नहीं, पढ़े लिखों पर ही नहीं, केवल पैसे वाले अमीरों पर नहीं बल्कि सभी पर। वयस्क नागरिकों के लिए समान मताधिकार कोई क्रमिक रियायत नहीं थी। यह आधारभूत हक था। अमेरिका द्वारा मताधिकार अधिनियम पारित करने से भी पहले, कई यूरोपीय मुल्कों द्वारा अपने नागरिकों को पूर्ण मताधिकार प्रदान करने से भी पूर्व, भारत अपने प्रत्येक नागरिक को आवाज़ दे चुका था। अपने जन्म के समय से ही, हमारा लोकतंत्र एक उधार लिया हुआ विचार न होकर सभ्यतागत सत्यापना थी।
लेकिन समय का अपना तरीका है नैतिक स्मृति की परीक्षा लेने का। आज, वही शक्तियां जो कभी हमें लिबर्टी का पाठ पढ़ाया करती थी, अब अपनी उन्हीं लोकतांत्रिक नसीहतों पर कायम रहने के लिए हाथ-पैर मार रही हैं। जिन बाज़ारों को उन्होंने कभी मुक्त बनाया था, अब उसी को डिजिटल दीवारों और टैरिफ बैरिकेड्स की ढाल के पीछे महफूज बना रही हैं। सबके लिए जिस स्वतंत्रता का कभी वे जोर-शोर से प्रचार करती थीं, अब चुन-चुनकर राष्ट्रों पर प्रतिबंध लगा रही हैं, इसमें सहयोगियों को छूट तो अन्य को नहीं। करुणा सशर्त बन गयी। व्यापार जोर-ज़बरदस्ती करने का औजार बन गया है।
अब यदि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं मुक्त बाज़ार पर हमला कर रही हैं, आवाज़ों को दबा रही हैं, टैरिफ का बाजा बजा रही हैं, तुरत-फुरत महानता पाने को, आतंकवादी शासनों से दोस्ती कर रही हैं और अपनी ही दी नैतिक नसीहतों को दरकिनार कर रहीं, तब फिर उन हस्ताक्षरों का क्या मोल, जो वे सकंल्पपत्रों पर और सम्मेलनों में बड़े गर्व से करती हैं?
बहुपक्षीय मंचों में, हम देखते हैं कि घोषणाओं को साजिशन कुंद किया जाता है। मानवाधिकारों को लाभ उठाने के औज़ार होने तक सीमित कर दिया गया है। जलवायु परिवर्तन के वादे दोहराए जाते हैं, लेकिन फिर चुपचाप एक तरफ सरका दिए जाते हैं। शरणार्थियों का अमानवीयकरण किया जा रहा है। अल्पसंख्यकों पर खुलेआम बेजा पुलिसिया दबाव रखा जा रहा है। युद्धों का मूल्यांकन उनकी मानवीय कीमत से नहीं, बल्कि इस आधार पर किया जाता है कि हथियार किसके हाथ में है।
इस बीच, भारत कई लोगों के लिए पहेली बना हुआ है। विकासशील और लोकतांत्रिक। कुछ गड़बडियां है, फिर भी वजूद कायम है। विशाल, फिर भी शायद ही कभी साम्राज्यवादी हसरतें। हमने उन लोगों का तिरस्कार अंगीकार किया जिन्हें हमारे तौर-तरीके की समझ नहीं थी। हमने उन लोगों की उदासीनता को झेला है जिन्होंने हमारी आवाज़ को खारिज कर रखा था। फिर भी अपने लोगों और दुनिया के साथ बनाए मौन अनुबंध में हमने अपना विश्वास नहीं खोया। हम परिपूर्ण नहीं हैं। खामियां हममें भी हैं। लेकिन हम दिखावा नहीं करते। और यही अंतर मायने रखता है।
वैश्विक व्यवस्था में हमारी आमद इसके पाखंडों की विरासत अपनाने के लिए नहीं हुई। हम इसकी निराशावादिता को प्रतिबिंबित करने की एवज में मंच पर अपनी जगह नहीं चाहते। और हमें उनके भाषण की कतई जरूरत नहीं है जो यादों को सुविधानुसार बरतते हैं और न्याय को सौदेबाजी के औजार के रूप में। हमारे संयम को अक्सर मौन समझा जाता है व हमारी सभ्यता को दासता प्रवृत्ति। लेकिन भारत के सभ्यागत दिशा सूचक की सुई वैश्विक स्वीकृति की तरंगों मुताबिक नहीं हिलती। इसकी जड़ें बैलेंस शीट और शिखर सम्मेलन की घोषणाओं से कहीं गहरी हैं। आत्म-सुधार इसका जन्मजात गुण है।
और अब, जबकि दुनिया अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले चरमरा रही है, तो प्रलोभन दिया जाएगा कि हम पीछे हट जाएं, दूसरों को पुनः दुनिया की इबारत तय करने दें और विनम्र सम्मानवश सहमति का सिर हिलाते रहें। लेकिन वह युग बीत चुका है।
हाथी की यादाश्त बहुत होती हैः उसे 1947 याद है, जब हमने अधिनायकवादी शासन की बजाय लोकतंत्र को चुना। उसे 1971 याद है, जब पड़ोस में नरसंहार के खिलाफ अकेले हम खड़े हुए थे। उसे 1991 याद है, जब हमने न केवल अपनी अर्थव्यवस्था, बल्कि अपने आत्मविश्वास का भी पुनर्गठन किया था। उसे 1998 याद है, जब साधन संपन्न राष्ट्र परमाणु ताकत को वैश्विक श्रेष्ठता का पैमाना मानते थे, और विशिष्ट समूह में हम जबरदस्ती घुसे, किंतु परमाणु हथियार पहले इस्तेमाल न करने की घोषणा की। और दुनिया ने हाल में ऑपरेशन सिंदूर देखा।
हमने जो भी किया, संयम और संकल्प इसकी कुंजी रही। हमने महाशक्तियों की घुड़कियां सुनी, आक्रामकता भरी भौंक सुनी, अवसरवादिता की तीखी चीखें भी। लेकिन दुनिया ने अभी तक हाथी की चिंघाड़ नहीं सुनी है, युद्धघोष के रूप में नहीं, बल्कि स्मृति, नैतिकता और दिशा का आह्वान करने वाली।
वह समय अब आ गया है ः इसलिए नहीं कि हम कुछ थोपना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हमें नकल करने से इन्कार है। वार्ता में हावी होने के लिए नहीं, बल्कि उसे किसी ऐसे ठोस लंगर से बांधने को, जो मुनाफे की बजाय चिरकालिक अधिक हो।
पाखंडवाद की नई रणनीति : बात करो मूल्यों की पर काम करो स्वहित का। यूक्रेन को लेकर आवाज़ उठाओ, किंतु गाज़ा पर नज़रें फेर लो। एक अत्याचारी पर प्रतिबंध लगाओ तो दूसरे को सलाम बजाओ। मुक्त व्यापार के नाम पर उन हुकूमतों के साथ भी साझेदारी करो, जहां असल राजकाज सैन्य वर्दी के हाथ में रहता है और बदलाव की मांग करने वाले अपने ही नेताओं को कैद कर लेती है। भारत दहाड़ता नहीं, न ही गरजता है। गूंजता भी नहीं लेकिन उसे सब याद है। और जब अंततः बोलता है, गुस्से में आकर नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास के साथ, तो वह दूसरों को डुबोने की कोशिशें नहीं करता। केवल उन्हें याद दिलाने की खातिर।
ऐसे में, जब लोकतंत्र अपने ही प्रतिबिंब को धुंधला करने लगे हैं, सैन्य शासनों के साथ गठबंधन कर रहे हैं, निर्वासनों पर आंखें मूंद रखी हैं, और ताकतवरों में अपनी सुविधा खोज रहे हैं। तब खतरा हो गया है उन आदर्शों को त्यागने का जिनका वे कभी निर्यात करते थे। जब रणनीतिक पहुंच की कीमत दमन पर चुप्पी साधना बन जाए, जब सैन्य पंचाट व्यवस्था का अलम्बरदार होने का चोला ओढ़ ले, और जब शासन व्यवस्था सुधारकों का वेश बनाए गुप्त-पारिवारिक अभिजात वर्ग की पालतू बन जाए, तब राष्ट्र और उसकी जनता के बीच नाता लोकतांत्रिक नहीं रहता, वंशवादी हो जाता है। यह केवल कुछ लोगों के लिए ही टिकाऊ बन जाता है।
हाथी की चिंघाड़ : हमारी साझेदारियां लेन-देन आधारित नहीं हैं। हमारी मित्रताएं अंधी नहीं हैं। हम दुनिया के साथ जुड़ाव चाहते हैं, लेकिन उन लोगों की कीमत पर नहीं जिनके पास न आवाज़ है, न वोट, न स्रोत क्योंकि स्मृति महज वह नहीं जो कुछ हमें याद रहे। यह उस बारे में है, जो बनना हमें मंजूर नहीं।
हाथी भूलता नहीं : उसके पास गरिमा और मुक्त बाज़ार में मांग के बीच फंसे हुए 140 करोड़ लोग हैं। वह पिछलग्गू नहीं है। वह आईने की भांति प्रतिबिम्ब दिखाता है। कब चलना है और कब चिंघाड़ना है, यह खुद तय करता है।
लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर और पुणे अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के संस्थापक ट्रस्टी हैं।