श्रीलंका की हालिया घटनाओं से नागरिक बहुत गुस्से में हैं, कारण है बाकायदा चुनी हुई सरकार की विफलता, जिसमें देश के सर्वोच्च पदों पर प्रधानमंत्री के पद पर पितामह रूपी बड़ा भाई महिंदा राजपक्षे तो राष्ट्रपति के तौर पर अनुज गोटाबाया राजपक्षे थे। देश में हफ्तों तक चले तल्ख अंदरूनी संघर्षों और प्रदर्शन की वजह से, जो कि श्रीलंकाई लोगों का सरकार से तंग आकर विद्रोह पर उतारू होने का परिणाम था, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को भी लोगों की बढ़ती रौद्रता और देशव्यापी बंद के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा। राजपक्षे परिवार के खिलाफ जनता का रोष आगे प्रचंड हुआ जब भारी भीड़ ने राष्ट्रपति निवास में घुसकर कब्जा कर लिया। इसके अलावा भी लाखों लोग सड़कों पर राजपक्षे वंश के खिलाफ अपने प्रदर्शन जारी रखे हुए कह रहे थे कि इस खानदान से जुड़े एक भी सदस्य को किसी सार्वजनिक पद पर होने की अनुमति नहीं है।
बड़े भाई महिंदा राजपक्षे के इस्तीफे के तुरंत बाद छोटे भाई राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने पूर्व प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे, जो कि एक मंजे हुए राजनेता हैं और पांच मर्तबा प्रधानमंत्री रहे हैं, उन्हें बड़े भाई की जगह नियुक्त किया। विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे मुख्य कारण उनकी साख है, यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी उन्हें एक कुशल वित्तीय प्रशासनिक व्यक्ति माना जाता है। लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि सरकार में राजपक्षे परिवार के दिन बचे-खुचे हैं। वित्तीय स्थिति बिगड़ने के साथ श्रीलंका में जिंदगी असहनीय बनने लगी। रोजमर्रा की जीवनचर्या के लिए जरूरी ईंधन उपलब्ध न होने, खासकर सार्वजनिक परिवहन के लिए, बिजली आपूर्ति अनिश्चित , खाद्य वस्तुओं की बेतरह तंगी और महंगाई से लोगों में व्यापक रोष फैलता चला गया। यह और भड़क गया जब सरकार ने दिवालिया होने की घोषणा कर दी और मूलभूत जरूरतें पूरी करने में हाथ खड़े कर दिए। कोविड महामारी ने पहले ही देश का पर्यटन उद्योग और उससे मिलने वाला कराधान ठप कर रखा था। राजपक्षे सरकार को चीन से भी झटका मिला, जब उसने श्रीलंका के गंभीर आर्थिक संकट के बारे में अंतर्राष्ट्रीय संस्थान जैसे कि विश्व बैंक और आईएमए की तरह मदद का आश्वासन तो दिया, लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ।
राजपक्षे प्रशासन के लिए गंभीर समस्याएं कोविड महामारी के उद्भव से पैदा होने लगी थीं। पर्यटकों की आमद लगभग शून्य हो गई और पर्यटन उद्योग में बेरोजगारी बढ़ने लगी। इसके अलावा, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने गंभीर तकनीकी पहलुओं पर गहन विचार किए बिना देश में रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया। लिहाजा कृषि क्षेत्र, खासकर चाय उद्योग, को करारा झटका लगा। चाय निर्यात गिरना लाजिमी था। यह संकेत भी हैं कि अपने उद्देश्य पूरे होते न पाकर चीन भन्ना गया, जब श्रीलंका सरकार ने पिछले साल के फरवरी माह में कोलम्बो बंदरगाह के पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल का विकास कार्य भारत और जापान को देने की घोषणा की। इस निर्णय ने कोलम्बो बंदरगाह पर एकछत्र नियंत्रण बनाने की चीन की हसरत को चकनाचूर कर दिया। आगे, इसी साल 29 मार्च को विदेश मंत्री एस. जयशंकर की उपस्थिति में जाफना तट से कुछ दूर श्रीलंका के एक टापू पर बनने वाली तीन हाईब्रिड बिजली परियोजनाओं में भारतीय निवेश को लेकर समझौता हुआ। पहले यह काम पिछले साल चीन को सौंपा गया था, लेकिन यह टापू तमिलनाडु के तट से एकदम पास होने के कारण भारत द्वारा उठाई सुरक्षा चिंताओं के कारण फैसला वापस लिया।
ये घटनाक्रम भारत और जापान के बीच तीसरे मुल्कों, जैसे कि श्रीलंका में आपसी सहयोग करने की सहमति बनने के बाद बने, ताकि हिंद महासागर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण स्थिति रखने वाले देशों में नौवहनीय नियंत्रण केवल चीन के हाथ में न होने पाए। विश्व ने भी श्रीलंका में चीन की बहुचर्चित तथाकथित ‘सहायता’ परियोजनाओं का संज्ञान लिया, जब उसने दक्षिणी श्रीलंका में एक हवाई अड्डा और हम्बनतोता बंदरगाह विकसित करने के लिए कड़ी शर्तों पर कर्ज दिया। हम्बनतोता बंदरगाह पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के चुनावी क्षेत्र में पड़ता है। बंदरगाह और हवाई अड्डे के लिए लिया ऋण न चुका पाने की एवज़ में श्रीलंका को हम्बनतोता बंदरगाह चीनी निवेश कंपनी को एक बिलियन डॉलर के बदले 99 साल के पट्टे पर सौंपना पड़ा। एक अन्य मुद्दा जो दुनिया के लिए ध्यानाकर्षण का केंद्र बना वह यह कि किस वजह के चलते स्व-घोषित अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी, जो खुद को प्रजातांत्रिक मूल्यों के उच्च नैतिकता के पटल पर बताती है, उसने एशिया में विधिवत रूप से चलने वाले असली लोकतंत्रों में एक श्रीलंका को आर्थिक संकट और मुश्किलों से उबारने के लिए धेला तक नहीं दिया?
ठीक उस वक्त जब रनिल विक्रमसिंघे बतौर राष्ट्रपति चुनाव में खड़े होने को थे, तब सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदुजना पार्टी ने आखिरी क्षण पर हैरानीजनक फैसला लेते हुए पूर्व पत्रकार दुल्लास अलाहाप्पेरूमा को प्रत्याशी बना डाला। जहां रनिल विक्रमसिंघे अपने प्रत्याशी दावे लिए कुल डाली गई 219 वोटों में 134 का अनुमोदन लेने में सफल रहे वहीं दुल्लास अलाहाप्पेरूमा को 82 मत हासिल हुए थे। साफ था कि सत्ताधारी सरकार के सदस्यों को भी यकीन था कि छह मौकों पर प्रधानमंत्री पद संभालने वाले विक्रमसिंघे विदेशी सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों जैसे कि विश्व बैंक, आईएमएफ से बरतने लिए सबसे उपयुक्त रहेंगे। लेकिन फिलहाल लगता है कि श्रीलंका की जनता हर उस व्यक्ति से टक्कर लेने पर आमादा है जो मौजूदा सरकार से जुड़ा है। कुछ हफ्ते पहले गुस्साई भीड़ ने प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के निजी आवास पर धावा बोलकर उसे जला डाला। उसके बाद यह संकेत भी दिए कि वे विक्रमसिंघे को अपदस्थ करने के लिए इसकी पुनरावृत्ति करने को तैयार है। फिलवक्त, विक्रमसिंघे की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपने देश के गुस्साए और मोहभंग हुए नागरिकों से कैसे बरता जाए।
भारत को इस तथ्य से संतोष है कि उसकी नीतियों को श्रीलंका में सराहा गया है। श्रीलंका से रिश्ते सुधारने की प्रधानमंत्री मोदी की नीयत की प्रशंसा हो रही है। मौजूदा विदेश मंत्री जयशंकर 1980 के दशक में श्रीलंका में नियुक्त थे, उस वक्त भारत की नीयत पर श्रीलंकाइयों को शंका थी, इसलिए उन्हें उनके पूर्वाभासों और शंकाओं का भली-भांति भान है। श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त गोपाल बागले ने चुपचाप काम करते हुए श्रीलंकाइयों का विश्वास और इज्जत अर्जित की है। भारत न केवल श्रीलंका में अपने मित्रों से संपर्क कायम रखे बल्कि विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान वालों से भी ताकि आर्थिक संकट से उबरने में श्रीलंका के प्रयास सफल हो पाएं। अपने समय में श्रीलंका के आतिशी और लोकप्रिय बाएं हाथ के बल्लेबाज सनथ जयसूर्या ने हाल ही में कहा, ‘भारत, संकट की शुरुआत से ही बहुत मददगार रहा है और हमें सहायता दी है। हम शुक्रगुजार हैं। श्रीलंका में भारत बड़ी भूमिका अदा कर रहा है।’
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।