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पड़ोस के घटनाक्रम पर रहे पैनी नज़र भारत की

द ग्रेट गेम
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नेपाल में जेन ज़ी की हालिया हिंसक क्रांति अचंभित करने वाली थी। नेतृत्व से युवा तंग आ चुके थे। बहरहाल, नयी सरकार बनने तक पूर्व चीफ जस्टिस सुशीला कार्की को बतौर अंतरिम प्रधानमंत्री शपथ दिलाई गयी। इससे पूर्व दो अन्य पड़ोसी देशों के लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था कब्जाने के विरुद्ध इच्छाशक्ति दिखाई। भारत के लिए सबक है कि दक्षिण एशिया को ध्यान के केंद्र में रखे।

पिछले हफ़्ते की शुरुआत में नेपाल में क्रांति इतनी अचानक, इतनी त्वरित और इतनी नाटकीय थी कि भारत तक अचंभित रह गया। जब पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली की सशस्त्र पुलिस ने युवा छात्र प्रदर्शनकारियों पर, जिनमें स्कूल यूनिफ़ॉर्म पहने बच्चे भी शामिल थे, निर्ममता से गोलियां चलाईं, तो भारतीय अधिकारियों को तुरंत अहसास हो गया कि पुरानी व्यवस्था ढह रही है। वे तो 16 सितंबर से शुरू होने वाली ओली की भारत यात्रा की तैयारियां कर रहे थे। वे स्तब्ध थे कि इससे एकदम पहले ही घटनाओं ने अचानक बड़ा मोड़ ले लिया।

भारत-नेपाल संबंधों की खासियत यह है कि यह इतना घनिष्ठ, इतना गहरा और अटूट है कि भारत के रिश्ते किसी अन्य देश के साथ इस जैसे नहीं हैं। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कुछ साल पहले तराई और भारत के उत्तरी सीमावर्ती इलाकों के बीच इस ‘रोटी-बेटी’ के रिश्ते को दिल्ली के अभिजात वर्ग को बताकर चौंका दिया था, लेकिन यह मुहावरा नेपाल और भारत के बाकी हिस्सों के लिए भी उतना ही सच है। नेपाल के अभिजात वर्ग और सर्वहारा वर्ग- ‘बाहुन’ और ‘छेत्री’, पहाड़ों के ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, और निचले एवं मैदानी इलाकों के अन्य जातियों के लोग - भारत में विवाह करते आए हैं या बसे हैं और काम करते हैं और भारतीय भी इसी तरह से वहां रहते-काम करते हैं। रिश्तेदारी के बंधन पीढ़ियों को नया रूप देते रहे। अगर आप पटना से जनकपुर तक गाड़ी से जाते हैं, तो खुली सीमा पार करते समय कोई भी आपकी तरफ दुबारा गौर तक नहीं करता।

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आप दलील दे सकते हैं कि यह बात तो भारत के हर पड़ोसी के लिए भी सच है, कि जातीयता, धर्म और संस्कृति -भूगोल एवं संप्रभुता- दोनों से, परे होती हैं। निश्चित रूप से, यह उन तीन देशों के लिए विशेष रूप से सच है जिनके लोगों ने पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्था को कब्जाने के विरुद्ध अपनी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है- 2022 में श्रीलंका, 2024 में बांग्लादेश और अब नेपाल। इन सभी क्रांतियों में छोटे-बड़े अंतरों के बावजूद, मौलिक समानता अभेद है। लोग इसलिए उठ खड़े हुए क्योंकि वे उस नेतृत्व से तंग आ गए, जिन्हें उन्होंने वोट डालकर चुना था लेकिन वे उन्हें ही गले में फंदा डालकर मवेशियों की तरह हांकने लगे।

काठमांडू में चीज़ें तेज़ी से बदलीं। नेपाल की पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को देश के अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई जा चुकी है और संसद भंग कर दी गई है। तथापि, सत्ता के लिए संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। ऐसे संकेत हैं कि नेपाली सेना प्रमुख अशोक राज सिग्डेल—जिन्हें भारत-नेपाल विशेष संबंधों के चलते पिछले दिसंबर में भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय सेना में ‘ब्रदर जनरल’ का मानद पद प्रदान किया गया था—अपनी स्थिति मज़बूत करना चाहते हैं और संभवतः राजशाही समर्थक राजनेताओं के पक्ष में झुकाव रखते हैं। यह कभी न भूलें कि दशकों तक जब नेपाल के राजा शीर्ष पर थे, तत्कालीन शाही नेपाल सेना का हर सुबह पहला घोष था ‘श्री पंच को सरकार जय जय हो’!

यह झटका सबसे हैरानीजनक वर्ग से आया है। कहा जाता है कि सेना प्रमुख चाहते थे कि राष्ट्रपति राम चंद्र पौडेल इस्तीफा देकर ‘नव नेपाल’ का मार्ग प्रशस्त करें, लेकिन पौडेल ने जवाब में कुछ इस तरह कहा ‘आप मुझे गोली मार सकते हैं, लेकिन मैं लोकतांत्रिक बने रहना नहीं छोड़ूंगा’। पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली और शेर बहादुर देउबा जैसे अन्य राजनीतिक नेताओं के साथ, पौडेल को भी कुछ दिनों के लिए सेना की सुरक्षा में रखा गया था, लेकिन बाद में उन्हें उनके आधिकारिक आवास, शीतल निवास, में वापस भेज दिया गया।

फिर कुछ अनाम, चेहराविहीन जेनरेशन ज़ेड के नेता हैं, हो सकता है जिनके गुट पिछले इन कुछ दिनों से आपस में झगड़ रहे होंगे, लेकिन वे सबसे महत्वपूर्ण अगले कदम पर अड़े हुए हैं: राजशाही की वापसी कतई नहीं। और नेपाल का संविधान, जो पिछली क्रांति, 2006 के जन आंदोलन के बाद अंततः 2015 में अस्तित्व में आया था,उसे खारिज नहीं किया जा सकता। यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि नेपाल के दो सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी, भारत और चीन, क्या सोच रहे हैं। चीन ने अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा है। भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि वह स्थिति पर ‘बारीकी से नज़र’ रख रहा है और प्रधानमंत्री मोदी ने काठमांडू को तहस-नहस करने वाली हिंसा को ‘दिल दहला देने वाली’ बताया है। हालांकि, दिल्ली में किसी भी अन्य राजनीतिक दल की चुप्पी गौरतलब है - उन सभी को चुप रहने के लिए कहा गया है, जो कि होना भी चाहिए। भारत इस क्षेत्र के इस बेहद महत्वपूर्ण क्षण के साथ बहुत सावधानी से बरत रहा है।

कहा जा रहा है कि नेपाल में भारत प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक ताकतों का समर्थन करना जारी रखेगा, जैसा कि उसने अतीत में हमेशा किया है। साल 2006 के जन आंदोलन के दौरान भी भारत के तत्कालीन विदेश सचिव श्याम सरन—और द ट्रिब्यून के एक स्तंभकार— ने पारंपरिक लीक से हटकर घोषणा की थी कि भारत 19 दिनों तक चले समतावादी विरोध के समर्थन में है। अप्रैल 2006 की उस आधी रात को, मैंने काठमांडू की सड़कों पर अविश्वसनीय खुशी देखी क्योंकि भारत ने सही चुनाव किया था। इसने नेपाल की राजशाही के अंत की घोषणा की जिसने 1768 से नेपाल और खुद को एकजुट रखा था, जब पृथ्वी नारायण शाह ने युद्धरत राजाओं के बीच सुलह कर एकता बनाई थी।

आज एक और ऐसा ही क्षण हमारे समक्ष है और हमें वर्तमान से निबटने के लिए अतीत से कई सबक सीखने होंगे। प्रथम, नेपाल की उथल-पुथल भारत को अपने पड़ोसियों से और ज्यादा नज़दीकी जुड़ाव बनाए रखने की अहमियत याद दिलाए। दूसरा, भले ही भारत की विशिष्ट विदेश सेवा अधिकारियों को पश्चिम के जलस्रोतों का पानी अधिक सुहाता हो लेकिन बागमती, कोसी और महाकाली के जल जैसा कुछ नहीं है, जिसे गहराई से ग्रहण कर ज्ञान एवं संस्कृति, दोनों को आत्मसात किया जा सकता है।

और तीसरा, न केवल इस क्षेत्र में, बल्कि दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, भारत एक आदर्श उदाहरण है-अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की, अपने पूर्ववर्ती कई नेपाली राजनेताओं की तरह, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ी हैं - और उन्हें इसी रूप में देखा जाना जारी रहे।

शेष दक्षिण एशिया के साथ-साथ नेपाल को भी भारत के ध्यान में सर्वप्रथम और केंद्र में रखना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और हमसे काफी छोटे देश भारत के कुछ प्रांतों से भी छोटे हैं या बहुत ही छोटे हैं। सीधा सच यह है कि भारत को फिर से ‘सभी नावों को अपने साथ ऊपर उठाना’ वाले सिद्धांत पर लौटना होगा और इन संप्रभु राष्ट्रों के साथ बराबरी का रिश्ता बनाना होगा, जिनके पास पाने के साथ-साथ देने के लिए भी बहुत कुछ है।

फिर, एक चौथा कारण भी है। भारत का राजनीतिक वर्ग भी दक्षिण एशिया को भूल गया है। एक समय था जब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, कांग्रेस नेता डीपी त्रिपाठी और सीताराम येचुरी एवं प्रकाश करात जैसे वामपंथी नेता मिलकर नेपाल की लोकतांत्रिक राजनीति के पक्ष में खड़े थे। हालांकि, आज के राजनेता कहीं और देखना पसंद करते हैं।

सौभाग्य से, भारत-नेपाल बंधन इतना मज़बूत है कि रिश्ते अभी भी सुरक्षित हैं। लेकिन अगर उदासीनता जारी रही, जैसा कि कभी-कभी होने का खतरा होता है, तो डर यह है कि यह कुछ हद तक कमजोर होने लगेगा।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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