भारत-रूस योग और पश्चिम की वक्र दृष्टि
अमेरिका और यूरोप भारत में पुतिन के स्वागत और व्यापार प्रस्तावों से नाराज़ होकर भारत को और परेशान करेंगे या फिर भारत का व्यापार रूस के हाथों में जाने से रोकने के लिए जल्दी व्यापार समझौते करेंगे? भारत के लिए...
अमेरिका और यूरोप भारत में पुतिन के स्वागत और व्यापार प्रस्तावों से नाराज़ होकर भारत को और परेशान करेंगे या फिर भारत का व्यापार रूस के हाथों में जाने से रोकने के लिए जल्दी व्यापार समझौते करेंगे? भारत के लिए रूस के व्यापार प्रस्ताव और उसका भरोसा आकर्षक ज़रूर हैं और रूस में व्यापार और आप्रवासन बढ़ाने की संभावनाएं भी व्यापक हैं।
अमेरिका और नाटो रूस को यूक्रेन से खदेड़ने के लिए लगभग चार वर्षों से उसकी अर्थव्यस्था को घुटनों पर लाने के प्रयासों में जुटे हैं। उन्हें लगता था जैसे दूसरे विश्वयुद्ध ने ब्रिटेन को और अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध ने सोवियत संघ को दिवालिया बना दिया था वैसे ही यूक्रेन का युद्ध रूस की कमर तोड़ देगा। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। शुरू के दो सालों में आए मुद्रास्फीति के उछाल और रूबल और अर्थव्यवस्था की गिरावट को रक्षासामग्री के निर्माण और ऊर्जा के निर्यात ने संभाल लिया। फिर भी, पुतिन जानते हैं कि संकट केवल टला है गया नहीं है। युद्ध में लगभग 1500 अरब डॉलर ख़र्च हो चुके हैं। मुद्रा स्फीति और ब्याज दरें आसमान छू रही हैं और कर्ज़ का पहाड़ खड़ा हो गया है। देश में निवेश, सामान और कामगारों की भयंकर तंगी है। चीन ने इस अवसर का लाभ उठाकर रूस में उसी तरह अपना कारोबार फैलाया है जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने यूरोप में फैलाया था और विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन बैठा था। इसी अवसर का लाभ उठाने के लिए ट्रंप शांति समझौता कराने को बेचैन हैं।
पुतिन की भारत यात्रा की सबसे बड़ी वजह यही थी। यूक्रेन युद्ध से विश्व के दो सबसे धनी और बड़े बाज़ारों और निवेशकों, अमेरिका और यूरोप को खो देने के बाद उनके पास चीन और भारत से बेहतर विकल्प नहीं हैं। रूस की तरह भारत और चीन भी ट्रंप के पल-पल बदलते, मनमाने टैरिफ़ फ़रमानों, आप्रवासन नीतियों और प्रतिबंधों से परेशान हैं। इसलिए पुतिन ने भारत में उन क्षेत्रों से जुड़े प्रस्ताव प्रमुखता से रखे जो ट्रंप की टैरिफ़ नीतियों और यूरोप के प्रतिबंधों के निशाने पर हैं। जैसे रक्षा सामग्री और तकनीक का क्षेत्र जहां अमेरिका और यूरोप शर्तें लगाते हैं और तकनीक का हस्तांतरण करने एवं संयुक्त निर्माण करने को तैयार नहीं होते। रूस ने वहां बिना शर्त हस्तांतरण और संयुक्त निर्माण की पेशकश की है।
अमेरिका और यूरोप जहां एच1बी वीज़ा पर संख्या और समय की सीमाएं लादने और कुशल कामगरों की आवाजाही को रोकने में लगे हैं वहीं रूस ने कामगरों की निर्बाध आवाजाही की पेशकश की है क्योंकि उसे इस समय कामगरों की ज़रूरत है। अमेरिका और यूरोप जहां तरह-तरह की शर्तें लगाकर मुक्त व्यापार समझौते को महीनों से लटकाए हुए हैं वहीं रूस ने अपने साथ-साथ अपने आर्थिक संघ के सदस्य देशों के साथ भी बिना शर्त मुक्त व्यापार समझौते का प्रस्ताव रख दिया है। अमेरिका और यूरोप जहां भारत पर रूस से तेल और गैस न खरीदने का दबाव डाल रहे हैं वहीं रूस ने भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए तेल और गैस के साथ-साथ परमाणु ईंधन की भी निर्बाध आपूर्ति करने और छोटे परमाणु बिजलीघर बनाकर देने की पेशकश की है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका और यूरोप भारत में पुतिन के स्वागत और व्यापार प्रस्तावों से नाराज़ होकर भारत को और परेशान करेंगे या फिर भारत का व्यापार रूस के हाथों में जाने से रोकने के लिए जल्दी व्यापार समझौते करेंगे? भारत के लिए रूस के व्यापार प्रस्ताव और उसका भरोसा आकर्षक ज़रूर हैं और रूस में व्यापार और आप्रवासन बढ़ाने की संभावनाएं भी व्यापक हैं। पर वे अमेरिका और यूरोप की नाराज़गी से हो सकने वाले नुकसान की भरपाई के लिए काफ़ी नहीं। भारत ने पिछले साल अमेरिका को 87 अरब और यूरोप को 77 अरब डॉलर का सामान बेचा था जो उसके कुल निर्यात के 40 प्रतिशत के बराबर है। रूस को अभी वह मात्र 5 अरब डॉलर का निर्यात करता है। पिछले दो साल में रूस से सस्ते दामों पर ख़रीदे तेल से होने वाली बचत भी 4 अरब डॉलर से अधिक की नहीं थी। इसलिए अमेरिका और यूरोप में होने वाली 164 अरब डॉलर की बिक्री को सुरक्षित रखना और उसे बढ़ाना भारत का पहला लक्ष्य होना चाहिए। परंतु भारत जैसा बड़ा देश किसी की धौंस या दबाव में कुछ नहीं कर सकता।
जैसे रूस और चीन ट्रंप और यूरोप के प्रतिबंध, टैरिफ़ और आप्रवासन नीतियों की मार से टस से मस नहीं हुए वैसे ही भारत भी अपनी नीतियों पर अडिग रहा। ट्रंप ने सत्ता संभालते ही सबसे पहले पुतिन की बड़ाई कर उन्हें फ़ुसलाने की कोशिशें की। फिर धमकाने, धौंस जमाने और प्रतिबंध लगाने की कोशिशें कीं पर एक न चली। यही हाल चीन के साथ हुआ और हार कर ट्रंप को ही झुककर सुलह करनी पड़ी। भारत में ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के राजदूतों ने मिलकर पुतिन की यात्रा से पहले लिखे अपने लेख में उनकी आलोचना करते हुए यूक्रेन के हमले को अंतरराष्ट्रीय नियमों का घोर उल्लंघन बताया था। यदि वह उल्लंघन था तो फिर अमेरिका कौन से अंतरराष्ट्रीय नियम का पालन करते हुए करेबियाई सागर में वेनेज़ुएला की नौकाओं पर हमले कर रहा है? ईरान के परमाणु केंद्र पर किया हमला संयुक्त राष्ट्र के किस नियम का पालन था? क्या ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी मिलकर अमेरिका को रोक सकते हैं? इसी तरह रूस, चीन और भारत जैसे महादेशों को भी प्रतिबंधों और धौंस-धमकियों से घेरा और विवश नहीं किया जा सकता। शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय उस समय की पांच महाशक्तियों को वीटो का अधिकार दिया गया था। यह बात संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक और संरक्षक होने के नाते अमेरिका को और नाटो में शामिल ब्रिटेन और फ़्रांस जैसी शक्तियों को नहीं भूलनी चाहिए थी।
पुतिन की यात्रा के दौरान और उसके बाद ट्रंप और नाटो ने कोई ऐसा बयान नहीं दिया जिससे भारत को चिंता हो। यूं भी यूरोप भी इस समय ट्रंप के टैरिफ़, यूक्रेन की लड़ाई और सुस्त अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है इसलिए उसे भी भारत के व्यापार की उतनी ही ज़रूरत है जितनी भारत को है। ऊपर से ट्रंप के पल-पल बदलते और नित नए फ़रमानों ने यूरोप की नींद उड़ा रखी है। रूस को यूक्रेन के चार प्रांत और क्रीमिया प्रायद्वीप देकर शांति समझौता कराने की 28 सूत्री शांति योजना न यूरोप के निगले बन रही है न उगले। इसी बीच ट्रंप ने नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति जारी कर दी है जिसमें यूरोप की सारी समस्याओं का ठीकरा उसके एकीकरण के सिर फोड़ते हुएउसे राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रभुसत्ता का गला घोंटने का दोषी बताया गया है। इसमें फ़्रांस की नेशनल रैली पार्टी, जर्मनी की एएफ़डी पार्टी और इटली की एफ़डीएल जैसी राष्ट्रवादी पार्टियों से सत्ता का आंदोलन चलाने को भी कहा गया है।
ऐसा लगता है ट्रंप यूरोप को उसकी हैसियत याद दिलाकर रूस के साथ व्यापारिक संबंध बहाल करने की जल्दी में है। इससे रूस को अपना खोया वर्चस्व बहाल करने और यूरेशिया में अपना प्रभाव क्षेत्र बनाने का मौका मिलेगा। चीन ने पहले ही हिंदचीनी देशों में अपना प्रभाव क्षेत्र जमा रखा है। ऐसे में अब विश्व में उभरती नई व्यवस्था को अमेरिका और चीन की धुरियों में बंटने की जगह बहुपक्षीय बनाए रखने के लिए यूरोप और भारत को भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र बना कर चलना होगा। पश्चिम एशिया और अफ़्रीका में दोनों के लिए अपार संभावनाएं हैं।
लेखक लंदन स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।

