ट्रंप की एच-1बी आपदा को अवसर में बदले भारत
अपनी जिन प्रतिभाओं के लिए अमेरिका जैसे विकसित देशों के दरवाज़े बंद होने पर भारत में जितनी भावनाएं आहत होती हैं उतनी अपनी प्रतिभाओं के पलायन से क्यों नहीं होतीं? आख़िर हमारी प्रतिभाएं अपने सारे संसाधन, श्रम और बुद्धि अपने...
अपनी जिन प्रतिभाओं के लिए अमेरिका जैसे विकसित देशों के दरवाज़े बंद होने पर भारत में जितनी भावनाएं आहत होती हैं उतनी अपनी प्रतिभाओं के पलायन से क्यों नहीं होतीं? आख़िर हमारी प्रतिभाएं अपने सारे संसाधन, श्रम और बुद्धि अपने समाज और देश को छोड़कर भागने में क्यों लगा रही हैं? क्या यह अपने समाज की कुव्यवस्था के प्रति बढ़ते सामूहिक अविश्वास का प्रदर्शन नहीं है?
अमेरिका की एच1-बी वीज़ा व्यवस्था से राष्ट्रपति ट्रंप की चिढ़ नई नहीं है। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में भी पद संभालते ही अप्रैल, 1917 में एच-1बी वीज़ा की शर्तें कड़ी करने और संख्या घटाने का फ़रमान जारी कर दिया था। फिर भी, यह शायद ही किसी ने सोचा हो कि एच-1बी वीज़ा पर एक लाख डॉलर या लगभग 88 लाख रुपये की फ़ीस थोप दी जाएगी। इसलिए फ़रमान जारी होते ही एच-1बी वीज़ा धारकों और उनकी कंपनियों में ऐसी अफ़रा-तफ़री मची कि अमेरिका से बाहर छुट्टी पर गए कुछ वीज़ा धारक हज़ारों डॉलर के वापसी के हवाई टिकट ख़रीद बैठे ताकि फ़रमान लागू होने से पहले अमेरिका लौट जाएं।
ट्रंप की प्रेस सचिव कैरलाइन लेविट और प्रवक्ता एबिगेल जैक्सन के स्पष्टीकरणों के बाद लोग थोड़ा आश्वस्त हुए। स्पष्टीकरण में बताया गया कि एक लाख डॉलर की फ़ीस एच-1बी वीज़ा पर आने वाले पेशेवर की जगह उसे लाने वाली कंपनी को भरनी होगी और वह हर वर्ष की जगह केवल एक बार भरनी होगी। वीज़ा की समय सीमा बढ़वाने और छुट्टियां बिताकर लौटने पर कोई फ़ीस नहीं देनी होगी। यह भी कहा गया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की ख़ातिर कुछ विशेष कंपनियों को विशेष परिस्थितियों में छूट भी मिल सकती है। इससे एमेज़ॉन, माइक्रोसॉफ़्ट और गूगल जैसी उन अमेरिकी कंपनियों को छूट मिलने की संभावना भी बन गई है जो सबसे बड़ी संख्या में एच-1बी वीज़ा प्रतिभाओं को बुला रही हैं। इससे यह संकेत भी मिलता है कि एच-1बी वीज़ा पर यह फ़ीस अमेरिका की प्रतिभाओं के रोज़गार बचाने की जगह व्यापार वार्ताओं में भारत की बांह मरोड़ने के लिए लगाई गई है।
गनीमत इस बात की है कि हर साल जारी किए जाने वाले एच-1बी वीज़ाओं की संख्या नहीं घटाई गई है। लेकिन नियमों को कड़ा करते हुए वीज़ा आवेदन बड़ी संख्या में रद्द किए जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल, एक लाख डॉलर की फ़ीस और अधिक आवेदन रद्द होने का सबसे बड़ा असर भारत पर ही पड़ेगा क्योंकि हर साल जारी होने वाले 85 हज़ार एच-1बी वीज़ाओं में से 72 प्रतिशत से अधिक वीज़ा भारतीय पेशेवर और अमेरिकी स्नातकोत्तर डिग्रियों वाले शोध छात्र ही हासिल करते हैं। इनमें से भी 65 हज़ार वीज़ा तो एमेज़ॉन, माइक्रोसॉफ़्ट मेटा, गूगल, टीसीएस और इन्फ़ोसिस जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बुलाई जाने वाली प्रतिभाओं के लिए हैं जो चाहें तो एक लाख डॉलर की फ़ीस भर सकती हैं या फिर अपने कर्मचारियों को अमेरिका भेजने की जगह भारत में रखकर वही काम डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर करा सकती हैं।
गंभीर समस्या उनकी है जो अमेरिकी यूनिवर्सिटियों से स्नातकोत्तर डिग्रियां हासिल करने के बाद अमेरिका में रहकर किसी अमेरिकी कंपनी या संस्था में काम करना, अपना कारोबार खोलना या शोध और विकास का काम करना चाहते हैं। बीस हज़ार एच-1बी वीज़ा इन्हीं प्रतिभाओं के लिए आरक्षित रहते हैं। इनके और इनकी कंपनियों व संस्थाओं के लिए एक लाख डॉलर फ़ीस जुटा पाना बहुत कठिन होगा। भारत समेत दुनियाभर से श्रेष्ठतम प्रतिभाएं पढ़ने-पढ़ाने और शोध करने के लिए अमेरिका की यूनिवर्सिटियों में आती हैं। वे यहां नई-नई खोज करती हैं, उनका कारोबारों और जीवन के विभिन्न पहलुओं में प्रयोग करती हैं जिससे अमेरिका के विकास को गति मिलती है।
पूर्व राष्ट्रपति रेगन के शब्दों में, अमेरिका में आपकी पृष्ठभूमि को नहीं, सपनों को महत्व दिया जाता है। यही अमेरिका का सबसे बड़ा आकर्षण रहा है। ट्रंप के आलोचकों का कहना है कि वे हर काम का दाम वसूल करने के फेर में दुनिया भर से अमेरिका आने वाली प्रतिभाओं के सपनों को तो तोड़ ही रहे हैं, अमेरिका की उच्च तकनीक और नवाचार शक्ति के उस स्रोत को भी सुखा रहे हैं जिसने अमेरिका को विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महाशक्ति बनाया है।
प्रतिभाएं तैयार करने में बड़ी मात्रा में देशों के संसाधन, श्रम और समय लगता है। उन्हें प्रोत्साहित करने और उनका सदुपयोग करने की जगह उन्हें रोकने के लिए भारी-भरकम फ़ीस थोपने की नीति समझ से परे है। वैसे यही सवाल भारत से भी किया जा सकता है। अपनी जिन प्रतिभाओं के लिए अमेरिका जैसे विकसित देशों के दरवाज़े बंद होने पर भारत में जितनी भावनाएं आहत होती हैं उतनी अपनी प्रतिभाओं के पलायन से क्यों नहीं होतीं? आख़िर हमारी प्रतिभाएं अपने सारे संसाधन, श्रम और बुद्धि अपने समाज और देश को छोड़कर भागने में क्यों लगा रही हैं? क्या यह अपने समाज की कुव्यवस्था के प्रति बढ़ते सामूहिक अविश्वास का प्रदर्शन नहीं है? ट्रंप ने वीज़ा की यह फ़ीस चाहे जिस वजह से थोपी हो पर क्या यह भारत को सोचने और आपदा में अवसर तलाश करने को विवश नहीं करती? भारत ने हमेशा संकट से विवश होकर ही सुधार किए हैं। साठ के दशक में अन्न की कमी और भुखमरी से विवश होकर हरित क्रांति की। 1991 में देश दिवालिया हो जाने पर आर्थिक सुधारों की तरफ़ कदम बढ़ाए। आज ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियां विदेशी प्रतिभाओं के ख़िलाफ़ अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया में माहौल बना रही हैं। इससे सचेत होकर भारतीय कंपनियों और सरकार को अपने देश में नवाचार, शोध और विकास के ऐसे अवसर पैदा करने होंगे जो अमेरिका भागती प्रतिभाओं को थाम सकें।
पिछले कुछ सालों से एमेज़ॉन, माइक्रोसॉफ़्ट, गूगल और एपल जैसी कंपनियों में जहां एच-1बी वीज़ा प्रतिभाओं की मांग बढ़ी है वहीं भारत की इन्फ़ोसिस, टीसीएस और विप्रो जैसी कंपनियों में घटी है। क्योंकि भारत की कंपनियां अब अमेरिका और यूरोप की कंपनियों के बीपीओ या व्यावसायिक प्रक्रिया केंद्रों से जीसीसी या वैश्विक क्षमता केंद्रों में बदलती जा रही हैं जहां शोध और विकास, डिज़ाइन, डेटा विश्लेषण और कोडिंग जैसे उच्च तकनीक के काम होते हैं। अगले पांच वर्षों में भारत के जीसीसी केंद्रों के तीन गुना हो जाने की संभावना है।
ट्रंप की वीज़ा फ़ीस भारतीय कंपनियों के साथ अमेरिकी कंपनियों को भी उन कामों के केंद्र भारत में खोलने को विवश करेगी जिनके लिए एच-1बी वीज़ा धारकों को अमेरिका बुलाया जाता है। इससे भारत को एच-1बी वीज़ा धारकों से मिलने वाली विदेशी मुद्रा का नुकसान तो होगा लेकिन निर्माण और रोज़गार बढ़ने से देश की आर्थिकी को लाभ भी होगा। परंतु यह सब केवल आत्मनिर्भरता के नारे लगाने से नहीं होगा। इसके लिए महानगरों और प्रथम श्रेणी के शहरों के बुनियादी ढांचे में व्यापक सुधार करने होंगे, कारोबारी प्रक्रिया सरल बनानी होगी और शोध, विकास और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा संस्थानों को उद्योगों से जोड़ना होगा।
ट्रंप के उच्च तकनीक वाली चिपों के बैन ने चीन को अपने एआई चिप निर्माण को बढ़ावा देने पर विवश किया और उसने कुछ ही महीनों में अमेरिका जैसी शक्तिशाली चिपों का निर्माण कर दिखाया। एच-1बी वीज़ा फ़ीस थोपने पर भारत की सबसे सटीक प्रतिक्रिया यही होगी कि जो काम कराने के लिए कंपनियां प्रतिभाओं को एच-1बी वीज़ा पर अमेरिका ले जाती थीं वे सारे काम भारत में ही होने लगें।
लेखक लंदन स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।