कोलकाता के भारतीय विज्ञान एवं शिक्षा अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार, पश्चिमी घाट और हिमालय के बादलों में करीब 12 जहरीली धातुएं, जैसे कैडमियम, क्रोमियम, तांबा और जस्ता पाई गई हैं। ये धातुएं निचले प्रदूषित इलाकों से बादलों में समाहित होकर पृथ्वी के सबसे ऊंचे और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र तक पहुंच रही हैं।
बादल को पीने योग्य पानी का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। हालांकि, अब वर्षा के जल की शुद्धता पर सवाल उठने लगे हैं। पहले यह चर्चा में था कि हमारे वायुमंडल और खाद्य सामग्री में कीटनाशकों का मिश्रण जीवों के लिए खतरनाक हो सकता है, लेकिन अब वर्षा जल में भी इस तरह के रसायन की मौजूदगी पर चिंता जताई जा रही है। हालिया अध्ययनों में वायुमंडलीय एयरोसोल, यानी हवा में मौजूद छोटे-छोटे कणों में भी कीटनाशक पाए गए हैं। ये कण ट्रोपोस्फीयर में भी मौजूद होते हैं, जो पृथ्वी के वायुमंडल की पहली परत है और धरती की सतह से एक से दो किलोमीटर की ऊंचाई तक फैली होती है। नए-नए अध्ययनों में यह खुलासा हो रहा है कि बादल भी जहरीली धातुओं, प्लास्टिक और माइक्रोप्लास्टिक के साथ-साथ कीटनाशकों से भी भरे होते हैं। इसने वैज्ञानिकों की चिंता को और बढ़ा दिया है, क्योंकि बादलों में मौजूद ये जहरीले तत्व और कीटनाशक बारिश की बूंदों के साथ पृथ्वी पर गिरते हैं और सभी चीजों को प्रदूषित कर रहे हैं, जिससे मानव जीवन के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। यह खुलासा फ्रांस और इटली के वैज्ञानिकों के संयुक्त अध्ययन तथा कोलकाता स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के अध्ययन में हुआ है।
वर्ष 1990 के दशक में भी बारिश के पानी में कीटनाशकों की मौजूदगी का अध्ययन किया गया था, जिसमें जर्मन वैज्ञानिक फ्रांस ट्राटनर की टीम ने बादलों में अट्राजाइन हर्बीसाइड का पता लगाया था, जो मक्का के खेतों में इस्तेमाल होता था। हालांकि, उस समय इस रसायन की मात्रा का निर्धारण नहीं किया जा सका था, लेकिन बाद में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। हालिया अध्ययन में बादलों और बारिश के पानी के नमूनों में 32 प्रकार के कीटनाशकों की मौजूदगी पाई गई है। खास बात यह है कि इनकी अधिकांश किस्मों पर यूरोप में पिछले एक दशक से प्रतिबंध लागू है, जो यह दर्शाता है कि प्रतिबंध के बावजूद ये रसायन वायुमंडल में बने हुए हैं और वर्षा के पानी के माध्यम से पृथ्वी पर गिर रहे हैं।
अध्ययन के अनुसार, बादल 10 से 50 माइक्रोमीटर आकार की बूंदों से बने होते हैं और यह प्राकृतिक कैमिकल रियेक्टर के रूप में काम करते हैं। सूर्य की किरणों के संपर्क में आने पर बादलों में फोटोकेमिकल प्रतिक्रिया होती है, जिसके कारण कीटनाशकों का स्वरूप बदल जाता है। इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप, बारिश के पानी के एक-तिहाई नमूनों में कीटनाशकों की मात्रा पीने के पानी के लिए निर्धारित मानकों से अधिक पाई गई है, जो स्वास्थ्य के लिए चिंता का कारण बन सकती है।
अध्यक्ष एंजोलेका बियान्को के अनुसार, इस विषय पर और अध्ययन की आवश्यकता है ताकि नई जानकारी सामने आ सके। इसके साथ ही, कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के लिए जागरूकता बढ़ाने की भी महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
विडंबना है कि कीटनाशक अब हर जगह मौजूद हैं, चाहे वह नदी हो, झील हो, भूजल, बारिश का पानी या खाद्य पदार्थ। हाल के अध्ययनों ने यह भी उजागर किया है कि वायुमंडल की गतिशीलता के कारण कीटनाशकों का असर अब उन स्थानों तक पहुंच चुका है, जो पहले प्रदूषण से अछूते थे, जैसे ध्रुवीय क्षेत्र।
कोलकाता के भारतीय विज्ञान एवं शिक्षा अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार, पश्चिमी घाट और हिमालय के बादलों में करीब 12 जहरीली धातुएं, जैसे कैडमियम, क्रोमियम, तांबा और जस्ता पाई गई हैं। ये धातुएं निचले प्रदूषित इलाकों से बादलों में समाहित होकर पृथ्वी के सबसे ऊंचे और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र तक पहुंच रही हैं। पूर्वी हिमालय के बादलों में प्रदूषण का स्तर पश्चिमी घाट की तुलना में डेढ़ गुना अधिक था, जिसका मुख्य कारण सिंधु-गंगा के मैदानों से होने वाला औद्योगिक और शहरी प्रदूषण है। इन इलाकों से निकलने वाले कैडमियम, तांबा और जिंक जैसे धातुओं का भार 40 से 60 प्रतिशत तक बढ़ चुका है।
महाबलेश्वर के बादलों में इनकी मौजूदगी औसतन 4.1 मिलीग्राम प्रति लीटर थी जबकि दार्जिलिंग के बादलों में इनकी मौजूदगी 2 मिलीग्राम प्रति लीटर थी। दार्जिलिंग के बादलों में लोहा, जस्ता, तांबा, निकिल, कैडमियम और क्रोमियम जैसी सूक्ष्म धातुओं की मौजूदगी ज्यादा मात्रा में मिली है। इस बारे अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि पश्चिमी घाट के महाबलेश्वर और पूर्वी हिमालय के दार्जिलिंग के बादलों के नमूनों में क्रोमियम की अधिक मात्रा के चलते कैंसरकारी बीमारियों का खतरा बढ़ गया है।
यह निष्कर्ष पूर्वोत्तर इलाके के लिए काफी अहम है। यहां के लोग अक्सर सिंचाई या दैनिक कामों के लिए बादलों के पानी का ही इस्तेमाल करते हैं। इन धातुओं के लंबे समय तक संपर्क में रहने से मिट्टी, फसलों और मानव शरीर में जमाव हो सकता है। कुल मिलाकर इन अध्ययनों से पर्यावरण प्रदूषण के प्रति सामूहिक जागरूकता में बढ़ोतरी तो हुई है।
लेखक पर्यावरणविद् हैं।

