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ढीठ पुलों के दौर में अफसरी की फजीहत

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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अतुल कनक

बरसात के दिन आ गये हैं। बहुत सारी जगह बादल खुलकर बरसे हैं। भारी बारिश को देखकर सड़कों वाले विभाग के साहब के चेहरे पर भी खुशियां नाचने लगी हैं। साहब तो शुरू से मानते हैं कि बरखा आती है तो अपने साथ कई संभावनाएं लेकर आती है। यह उन दिनों की बात है, जब साहब कॉलेज जाने लगे थे। बरखा नाम की एक लड़की से उन दिनों उनकी आंखें लड़ गई थीं। हालत यह हो गई थी कि वो-‘मैं कहीं बादल न बन जाऊं, तेरे प्यार में ए बरखा’ टाइप की शायरी भी करने लगे थे। लेकिन बाद में उन्हें समझ में आया कि बादल बनने से अच्छा है, अफसर बनना। बरखा के भाई ने घुड़की पिलाई तो साहब ने कविताई छोड़ दी। अच्छा ही हुआ। साहब अब सोचते हैं। कविताई में ऊपर की कमाई की कोई संभावना ही नहीं होती। कविताई से किसी ने क्या पा लिया?

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अब साहब का मन तो यह खबर सुनकर खिला हुआ था कि उनके इलाके में भारी बारिश हुई है और आगे भी भारी बारिश होने की संभावना है। अब लोकतंत्र इतना पारदर्शी तो नहीं हुआ है कि लगातार बारिश हो और इलाके का कोई पुल ही नहीं गिरे। बस्तियों की सड़कों में खड्डे ही नहीं हों। साहब को पता था कि कौन-कौन से पुल गिरने वाले हैं और कौन-कौन सी सड़कें धंस सकती हैं। साहब ने तो अपने लोगों को यह तक निर्देश दे दिये थे कि पुल गिरने की स्थिति में उसकी तुरंत मरम्मत की योजना की फाइल बना लें और संबंधित ठेकेदारों से सब तय कर लें।

जब पुल बने थे, तब भी साहब की जेबों में हरियाली गई थी। अब, जब पुल गिर जाएंगे तो भी साहब की जेबें हरियाएंगी। यह रिश्वत नहीं है। लोकतंत्र के विकास में साहब के योगदान को देखते हुए ठेकेदारों द्वारा दिया गया थोड़ा-सा सम्मान है। बारिश ने साहब को बहुत उदार बना दिया था। उन्होंने अपने मुंह लगे बाबू से कह दिया था कि यदि दो के बजाय चार पुल गिरें तो वो उसे सैकंड हैण्ड कार खरीदने के पैसे दे देंगे। उन्होंने अपनी पत्नी से भी पूछ लिया था कि बरसात के बाद वो स्विट्ज़रलैंड घूमना चाहेगी या अमेरिका?

कल रात को सोने से पहले साहब ने सुना था कि उनके इलाके का एक पुल थरथराने लगा है। वो खुश हुए। उन्होंने अपने भी अफसर को बताया कि ‘यह पुल चोर था साहब। आप तक का हिस्सा दिये बिना खड़ा हो गया। अब आप तो जानते हैं कि चोरों के पांव कच्चे होते हैं। ज़रा-सा सच सामने आते ही कांपने लगते हैं। बरसात का पानी किसी सच से कम नहीं होता। पुल कांप रहा है तो अपनी मौत खुद मरेगा सर, हम उसे कब तक बचा सकते हैं?’ लेकिन साहब के दुर्भाग्य से पुल बच गया। वो नहीं गिरा। साहब ने पुल के गिरने की खबर पढ़ने के लिये अपने मोबाइल के संदेश टटोले, अखबार को बार-बार पलटा, टीवी पर चैनल बदले लेकिन कहीं उन्हें वह सब नहीं मिला, जो वो जानना चाहते थे। उन्हें मातहत ने बताया कि कुछ देर तक तो लोगों की जान सांसत में पड़ी रही लेकिन उसके बाद पुल को पता नहीं क्या हुआ कि उसने कांपना बंद कर दिया।

साहब ने फोन बंद किया और लंबी सांस लेते हुए बोले, ‘हैरानी है। अब तो पुल भी ढीठ हो गये हैं।’

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