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जनतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सर्वोच्चता निर्विवाद

विश्वनाथ सचदेव कुछ अरसा पहले वाराणसी में एक टी.वी. इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ ऐसा कह दिया था, जिससे कोई भी चौंक सकता था। प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘पहले मैं यह माना करता था कि मेरा जन्म बायलॉजिकल था।...
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विश्वनाथ सचदेव

कुछ अरसा पहले वाराणसी में एक टी.वी. इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ ऐसा कह दिया था, जिससे कोई भी चौंक सकता था। प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘पहले मैं यह माना करता था कि मेरा जन्म बायलॉजिकल था। कालांतर में मुझे विश्वास हो गया कि मुझे भगवान ने किसी विशेष काम के लिए भेजा है’। उनके इस कथन ने बहुतों को चौंकाया था। ऐसा नहीं है कि अलौकिक शक्तियों से युक्त होने के दावे पहले नहीं किये गये, पर अक्सर ऐसी बातों को भुला दिया जाता है। प्रधानमंत्री की ‘गैर बायलॉजिकल’ होने वाली बात को भी भुला ही दिया गया था। अच्छी बात यह भी है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने भी अपनी इस बात को दुहराना ज़रूरी नहीं समझा। लेकिन हाल ही में केरल में हुई संघ-परिवार की तीन दिवसीय बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने बिना प्रधानमंत्री का नाम लिए कुछ ऐसा कहना ज़रूरी समझा कि अनायास ही प्रधानमंत्री की कही बात याद आ गयी। भागवत ने केरल में कहा, ‘किसी को स्वयं को भगवान नहीं समझना चाहिए, भगवान लोग बनाते हैं’। ज्ञातव्य है कि संघ-प्रमुख बिना किसी का नाम लिए यह भी कह चुके हैं कि एक स्वयंसेवक को अहंकारी नहीं होना चाहिए।

संघ-प्रमुख ने भले ही अपने भाषण में किसी का नाम न लिया हो, पर समझने वालों के लिए संकेत समझना मुश्किल नहीं था। और अब इस बारे में कयास लगाये जा रहे हैं कि उन्होंने यह बात कहना ज़रूरी क्यों समझा।

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बहरहाल, आजादी मिलने से कुछ ही पहले की बात है। जवाहरलाल नेहरू ने ‘चाणक्य’ छद्मनाम से एक लेख लिखकर देश की जनता को सावधान किया था कि यदि जवाहरलाल नेहरू को नियंत्रित नहीं रखा गया तो यह व्यक्ति तानाशाह भी बन सकता है। उनके शब्द भले ही कुछ और रहे हों, पर मंतव्य यही था। उन्होंने देश की जनता को आगाह किया था कि जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी को भी स्वयं को अपनी कथित अलौकिकता का दावा करने का अधिकार नहीं है। महान वही है जिसे जनता उसके कार्यों के आधार पर महान समझे। जवाहरलाल नेहरू ने जब छद्मनाम से वह लेख लिखा था तो वे वस्तुतः स्वयं को आगाह कर रहे थे कि उन्हें संयम से, सीमा में, रहना होगा। आज मोहन भागवत स्वयं को भगवान समझने वालों को यही संदेश दे रहे हैं। वस्तुतः यह संदेश नहीं, चेतावनी है। उनके लिए भी चेतावनी जो स्वयं को महान अथवा अलौकिक समझते हैं, और जनता के लिए भी जो किसी कथित अलौकिकता का शिकार बन सकती है, बन जाती है। नेताओं को संयम में रहना चाहिए, और जनता को भी उनकी नकेल अपने हाथ से नहीं छोड़नी चाहिए।

अब्राहम लिंकन ने कहा था, जनतंत्र शासन की उस प्रणाली का नाम है जिसमें सरकार जनता की होती है, जनता के लिए होती है, और जनता के द्वारा चलायी जाती है। अर्थात जनता सर्वोपरि है। कोई भी नेता चाहे कितना भी महान क्यों न हो, देवता या भगवान होने का दावा नहीं कर सकता। जनतंत्र में इस तरह की सोच के लिए कोई स्थान नहीं है।

केरल की उस बैठक में संघ-परिवार के सभी घटक सम्मिलित हुए थे। संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी वहां उपस्थित थे। हाल ही में हुए आम चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा-अध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा था कि ‘अब भाजपा को संघ की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है।’ संघ के नेतृत्व को यह बात रास नहीं आयी, और कहते हैं, भाजपा को चुनाव में पर्याप्त सफलता न मिलने का एक कारण संघ के स्वयंसेवकों की बेरुखी भी थी। संघ प्रमुख द्वारा बार-बार बिना नाम लिए प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाना भी यह बताता है कि संघ और भाजपा के रिश्तों में कहीं कुछ खटास आयी है। यह खटास कैसे दूर हो सकती है, इस बारे में संबंधित पक्षों को ही सोचना और कुछ करना होगा। लेकिन भाजपा के नेतृत्व को, विशेष रूप से प्रधानमंत्री को, कुछ निर्णायक कदम उठाने ही होंगे।

संघ अपनी भूमिका वही मानता है जो श्रीकृष्ण ने महाभारत में निभायी थी। संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर से जब यह पूछा गया कि क्या संघ सत्ता चाहता है तो उन्होंने कहा था, ‘हमारा आदर्श श्रीकृष्ण हैं, जिनकी मुट्ठी में एक पूरा साम्राज्य था, पर जिन्होंने सत्ता हाथ में लेने से इनकार कर दिया था।’ आरएसएस आज भी वही भूमिका निभाना चाहता है, लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि गुरु गोलवलकर ने यह बात लगभग 75 साल पहले कही थी। तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। फिर भी, भाजपा वर्तमान सरसंघचालक की बातों की अवहेलना नहीं कर सकती।

भाजपा के नेतृत्व को यह समझना होगा कि विपक्ष दुश्मन नहीं होता, कि जनतांत्रिक व्यवस्था में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है, कि कोई अपने आप को सर्वोपरि मानकर देश का नेतृत्व नहीं कर सकता।

आज भी विश्व-व्यवस्था में भारत जैसे बड़े देश का अपना महत्व है। आज़ादी मिलने के बाद से ही विश्व भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देखता आ रहा है। हमारी गुट-निरपेक्षता की नीति कई बार अपना महत्व रेखांकित कर चुकी है। आज भी प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जा रही है कि वे दुनिया पर गहराते युद्ध के बादलों को दूर करने में सक्रिय भूमिका निभाएं। रूस और यूक्रेन में चल रहा युद्ध हो अथवा इस्राइल-फलस्तीन की लड़ाई, भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। प्रधानमंत्री इस दिशा में सक्रिय दिखाई भी दे रहे हैं, पर यह कार्य मणिपुर जैसे राज्य की अवहेलना करके नहीं होना चाहिए। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की चुप्पी कुछ हैरान करती है। कुछ विशेष करने के लिए भेजे जाने वाले व्यक्ति को हर मोर्चे पर अपनी महत्ता प्रमाणित करनी होगी!

बहरहाल, स्वयं को अविनाशी मानना अथवा गैर-जैविक समझना एक तरह से दंभ को ही प्रकट करता है। संघ-प्रमुख ने, पता नहीं क्या सोचकर किसी के भगवान न होने वाली बात कही है, पर इस बात को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। संभव है यह बात संघ और भाजपा के रिश्तों में आये तनाव का परिणाम हो, पर यह बात हर भारतीय को समझनी होगी कि देवत्व के किसी दावे के लिए इक्कीसवीं सदी की दुनिया में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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