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पाक की बेचैनी की वजह बने सुधरते रिश्ते

भारत-अफगान दोस्ती

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अफ़ग़ानिस्तान भारत के लिए मध्य एशिया का द्वार है। चाबहार पोर्ट और आईएनएसटीसी जैसी परियोजनाएं भारत को पाकिस्तान की भौगोलिक बाधा को पार करने में मदद देती हैं। इसके अलावा, भारत की मानवीय सहायता ने अफ़ग़ान जनता के बीच सकारात्मक छवि बनाई है।

भारत का काबुल में अपने तकनीकी मिशन को पूर्ण दूतावास में बदलने का निर्णय और विदेशमंत्री एस. जयशंकर की अफ़ग़ान विदेशमंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी से हुई मुलाक़ात दक्षिण एशिया की जटिल कूटनीति में एक अहम मोड़ का संकेत है। यद्यपि भारत ने अभी तक तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, परंतु यह पहल क्षेत्रीय परिस्थितियों और शक्ति-संतुलन में हो रहे बदलावों के अनुरूप एक व्यावहारिक क़दम माना जा रहा है।

मुत्ताक़ी द्वारा भारत की संप्रभुता, विशेषकर कश्मीर के संदर्भ में, खुले समर्थन ने पाकिस्तान की नींदें उड़ा दी हैं और भारत-अफ़ग़ान रिश्तों को नई गति दी है। मान्यता का प्रश्न नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है, परंतु अब इस संवाद का भू-राजनीतिक वज़न पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है, जिसकी पाकिस्तान ने कल्पना नहीं की थी।

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तालिबान को मान्यता देने की दुविधा भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है—अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को उस तालिबान शासन से जोड़ना जिसकी नीति महिलाओं, अल्पसंख्यकों और शिक्षा के अधिकारों के प्रति दमनकारी रही है। तालिबान का रिकॉर्ड भारत की बहुलतावादी और मानवाधिकार-आधारित परंपरा से मेल नहीं खाता।

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तालिबान के पाकिस्तान की आईएसआई और आतंकी गुटों— हक्कानी नेटवर्क, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद—से पुराने रिश्ते भारत को सतर्क बनाए हुए हैं। मुत्ताक़ी के आश्वासनों के बावजूद नई दिल्ली का भरोसा सीमित है, विशेषकर तब जब पाकिस्तान में सक्रिय तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) विचारधारा के स्तर पर अफ़ग़ान तालिबान से निकटता रखती है। इसके अलावा, तालिबान को मान्यता देने से भारत विश्व समुदाय के अधिकांश देशों से अलग-थलग पड़ सकता है। रूस को छोड़कर किसी प्रमुख शक्ति ने तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है।

अफ़ग़ान विदेशमंत्री मुत्ताक़ी की भारत यात्रा और कश्मीर पर आए संयुक्त बयान के बाद पाकिस्तान ने तीखी प्रतिक्रिया दी। इस्लामाबाद ने आरोप लगाया कि अफ़ग़ानिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का उल्लंघन किया है और काबुल में भारतीय झुकाव को लेकर विरोध जताया।

दरअसल, पाकिस्तान की यह प्रतिक्रिया उसके घटते प्रभाव की झलक है। तालिबान शासन और पाकिस्तान के रिश्ते सीमावर्ती संघर्षों और टीटीपी की बढ़ती ताक़त के कारण तनावपूर्ण हो चुके हैं। मुत्ताक़ी का यह बयान कि ‘पाकिस्तान में कुछ तत्व जानबूझकर समस्याएं पैदा कर रहे हैं’ और ‘अगर पाकिस्तान शांति नहीं चाहता तो अफ़ग़ानिस्तान के पास और विकल्प हैं’— काबुल की नई आत्मविश्वासपूर्ण नीति को रेखांकित करता है। यह संकेत है कि तालिबान अब स्वयं को स्वतंत्र सत्ता के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। भारत–अफ़ग़ानिस्तान की बढ़ती निकटता पाकिस्तान की क्षेत्रीय बढ़त को कमजोर कर रही है। भारत–अफ़ग़ान संयुक्त बयान में कश्मीर का उल्लेख पाकिस्तान की ‘मुस्लिम विश्व में नेतृत्व’ की छवि को भी चोट पहुंचाता है।

चीन ने अफ़ग़ानिस्तान में निवेश और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के ज़रिये आर्थिक पकड़ मज़बूत की है, परंतु उसे चरमपंथ के झिंजियांग में फैलाव का डर है। भारत की सक्रिय कूटनीति—चाबहार पोर्ट और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं के ज़रिए—काबुल में एक वैकल्पिक धुरी बना रही है, जो पाकिस्तान और चीन के प्रभाव को सीमित कर सकती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश से संबंध बढ़ने पर तालिबान को अभूतपूर्व वैधता मिलेगी और उसका अंतरराष्ट्रीय एकाकीपन घटेगा। भारत के साथ व्यापार, शिक्षा और विकास परियोजनाओं के सहयोग से तालिबान शासन को आर्थिक संबल मिलेगा।

भारत का यह क़दम वैचारिक नहीं बल्कि रणनीतिक है। इसका उद्देश्य है—पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में एकमात्र प्रभावशाली खिलाड़ी बनने से रोकना और आतंकवाद के विरुद्ध सीधी संवाद-रेखा बनाना। अफ़ग़ानिस्तान भारत के लिए मध्य एशिया का द्वार है। चाबहार पोर्ट और आईएनएसटीसी जैसी परियोजनाएं भारत को पाकिस्तान की भौगोलिक बाधा को पार करने में मदद देती हैं। इसके अलावा, भारत की मानवीय सहायता ने अफ़ग़ान जनता के बीच सकारात्मक छवि बनाई है।

तालिबान की मान्यता को लेकर मुस्लिम दुनिया और अमेरिका में भी नई बहस शुरू हो सकती है। भारत की पहल उन्हें यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती है। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सावधानीपूर्ण नीति अपना रहा है। भारत की सक्रिय उपस्थिति वॉशिंगटन के लिए चीन के प्रभाव को संतुलित करने में सहायक हो सकती है, बशर्ते मानवाधिकार मानकों का पालन सुनिश्चित किया जाए।

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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