Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

जाति रहित समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण पहल

उ. प्र. की राजनीति

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

उत्तर प्रदेश में हाल में जारी प्रशासनिक आदेश समाज में एकजुटता लाने का वादा करता है। लेकिन सफलता इसकी सख्ती व निष्पक्षता पर निर्भर होगी। यदि ऐसा हुआ तो यह राजनीति विकास-केंद्रित बनाने का रास्ता खोलेगा। पार्टियां नीतिगत मुद्दों जैसे रोजगार, शिक्षा पर फोकस करेंगी।

उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य, हमेशा से ही जाति की राजनीति का केंद्र रहा है। यहां की 80 लोकसभा सीटें राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करती हैं, और जातिगत समीकरण चुनावी दांव-पेच का आधार बनते हैं।

हाल ही में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक ऐसा आदेश जारी किया है जो इस पुरानी परंपरा को चुनौती दे रहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन में, राज्य सरकार ने पुलिस रिकॉर्ड्स, सार्वजनिक स्थानों, वाहनों और सोशल मीडिया पर जाति के उल्लेख पर प्रतिबंध लगा दिया। एफआईआर, गिरफ्तारी मेमो और सरकारी दस्तावेजों में अब आरोपी या पीड़ित की जाति नहीं लिखी जाएगी। जाति-आधारित रैलियों, स्टिकर, साइनबोर्ड और नारेबाजी पर सख्ती बरती जाएगी, हालांकि एससी/एसटी अत्याचार निवारण एक्ट के मामलों में अपवाद रहेगा।

Advertisement

सरकार का यह कदम न केवल प्रशासनिक सुधार का हिस्सा है, बल्कि गहरी सामाजिक और राजनीतिक रणनीति का संकेतक है। क्या यह जातिवाद को जड़ से समाप्त करने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है?

उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति पर टिकी है। यहां यादव, जाटव, कुर्मी, गुर्जर, ब्राह्मण और राजपूत जैसे समूह वोट बैंक का आधार हैं। सपा और बसपा जैसी पार्टियां तो जाति पर ही निर्भर हैं। सपा का ‘पिछड़ा, दलित और मुस्लिम’ फॉर्मूला और बसपा का ‘बहुजन’ एजेंडा जाति-आधारित रैलियों-सम्मेलनों पर है। हाल में सपा का गुर्जर सम्मेलन इसी रणनीति का हिस्सा था, लेकिन अब यह संभव नहीं रहेगा।

अखिलेश यादव ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह केवल दिखावा है; असली भेदभाव मन में बसे 5000 साल पुराने जातिवाद को मिटाने के लिए क्या किया है? वहीं सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई। वहीं भाजपा का ‘हिंदुत्व’ एजेंडा जाति से ऊपर उठ हिंदू एकता पर जोर देता रहा है। ‘बंटोगे तो कटोगे’ का नारा इसी का प्रतीक है। वर्ष 2024 उपचुनावों में कुंदरकी जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर राजपूत उम्मीदवार की जीत इसका उदाहरण है। लेकिन छोटी जातिगत सभाओं (जैसे ब्राह्मण या राजपूत महासभाओं) की बढ़ती सक्रियता भाजपा को चुनौती भी है। यह फरमान इन सभाओं को कुचल सकता है, जिससे भाजपा का हिंदू वोट बैंक मजबूत होगा। राष्ट्रीय स्तर पर जहां जाति जनगणना 2025 का मुद्दा गर्म है, यह कदम भाजपा को ‘सामाजिक समरसता’ का चेहरा देगा। बिहार चुनाव में जाति जनगणना का उपयोग विपक्ष के विरुद्ध हो सकता है। हालांकि, लंबे समय में यह राजनीति को ‘विकास-केंद्रित’ बनाने का रास्ता खोलेगा। पार्टियां नीतिगत मुद्दों जैसे रोजगार, शिक्षा पर फोकस करेंगी, जो लोकतंत्र के लिए पॉजिटिव होगा। लेकिन अगर लागू न हुआ, तो विपक्ष को ‘जातिवादी साजिश’ का हथियार दे देगा।

जाति उत्तर प्रदेश के समाज का केंद्रीय तंतु है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की 20 प्रतिशत आबादी एससी/एसटी है, 40-50 प्रतिशत ओबीसी और बाकी सवर्ण। लेकिन यह विभाजन हिंसा का कारण भी बनता है। यह आदेश ऐसी हिंसा कम करने में मदद कर सकता है। एफआईआर में जाति न लिखने से ‘जातिगत अपराध’ के आंकड़े कम दिखेंगे, जो पूर्वाग्रह कम करेगा। सार्वजनिक स्थानों से जातीय संकेत हटने से सामाजिक सद्भाव बढ़ेगा। सोशल मीडिया पर निगरानी से ऑनलाइन घृणा फैलाने वाले अभियान रुक सकते हैं। यह युवाओं को जाति से ऊपर उठने को प्रेरित करेगा, खासकर शहरी क्षेत्रों में जहां विकास, शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है। लेकिन इस राह में चुनौतियां भी हैं। एफआईआर में जाति न लिखने से एससी/एसटी एक्ट के तहत न्याय मिलना मुश्किल हो सकता है। गांवों में प्रतिरोध पैदा कर सकता है। ऊपरी जातियों की सभाएं प्रभावित होंगी, जो ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सवाल उठा सकती हैं। अगर लागू न हुआ, तो यह सामाजिक तनाव बढ़ा सकता है।

यह फरमान उत्तर प्रदेश को ‘जाति-रहित’ समाज की ओर ले जाने का वादा करता है, लेकिन सफलता सख्ती और निष्पक्षता पर निर्भर करेगी। राजनीतिक रूप से, यह भाजपा को मजबूत कर विपक्ष को बैकफुट पर ला सकता है, सामाजिक रूप से हिंसा कम करने और समरसता बढ़ाने का मौका देगा। लेकिन बिना शिक्षा, आर्थिक समानता आदि के ठोस परिणाम नहीं देगा। भारतीय संविधान की भावना ‘समानता’ की है। अगर यूपी यह मॉडल अपनाता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर जाति की राजनीति कमजोर हो सकती है। इतिहास सिखाता है कि जाति आसानी से नहीं जाती। फिलहाल, यह एक साहसिक कदम है—समाज को एकजुट करने का।

लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

Advertisement
×