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नेपाली राजशाही के लिए हिंसक प्रतिरोध के निहितार्थ

नेपाल की राजनीति में राजशाही की वापसी की चर्चाएं फिर से गरमाई हैं, लेकिन इस सवाल के साथ कि क्या 80 की उम्र में ज्ञानेंद्र सत्ता का सुख भोग पाएंगे, और उनके परिवार का भविष्य क्या होगा। पुष्परंजन वो गुज़रा...
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A member of a pro-monarchist group hurls stones at police officers during a protest in Kathmandu, Nepal, on Friday, March 28, 2025. AP/PTI(AP03_28_2025_000314B)
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नेपाल की राजनीति में राजशाही की वापसी की चर्चाएं फिर से गरमाई हैं, लेकिन इस सवाल के साथ कि क्या 80 की उम्र में ज्ञानेंद्र सत्ता का सुख भोग पाएंगे, और उनके परिवार का भविष्य क्या होगा।

पुष्परंजन

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वो गुज़रा ज़माना था, जब राजा बीरेंद्र और रानी ऐश्वर्या की एक झलक पाने, और उनकी आवाज़ सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे। वर्ष 1990 में लोकतंत्र की बहाली के बाद भी बीरेंद्र की आभा फीकी नहीं पड़ी थी, जब उन्होंने अपनी पूर्ण सत्ता त्याग दी थी, और राजनीतिक दलों को राज्य के मामलों का प्रभार सौंप दिया था। यहां तक, कि माओवादियों ने भी, जिन्होंने कड़ी मेहनत से हासिल की गई राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह छेड़ा था, राजा की ज्यादा आलोचना नहीं की। न ही उन्होंने शुरू में रॉयल नेपाल आर्मी पर हमला किया, जबकि देश भर में पुलिस चौकियों पर हमले हो रहे थे।

इसके बाद नेपाली राजशाही के 240 साल के इतिहास में सबसे बड़ा रहस्यमय और दुर्भाग्यपूर्ण पल सामने आया। वर्ष 2001 में बीरेंद्र के परिवार को भारी सुरक्षा वाले शाही महल में गोली मार दी गई। इसके बाद शुरू शाही जांच में तत्कालीन युवराज दीपेंद्र को नरसंहार के लिए दोषी ठहराया गया, जबकि वे कुछ दिनों तक बेहोश रहे, उन्हें कोमा में राजा घोषित किया गया, और उनकी मृत्यु हो गई। यह जांच बीरेंद्र के दो भाइयों में से पहले, ज्ञानेंद्र की निगरानी में हुई। ज्ञानेंद्र की नीयत पर सवाल भी उठाये गए। फिर जांच की लीपापोती हो गई।

ज्ञानेंद्र और उनके पुत्र प्रिंस पारस की सार्वजनिक छवि उतनी अच्छी नहीं थी। लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि युवराज दीपेंद्र ने अकेले ही अपने पिता, माता, भाई, बहन और दादी को गोली मार दी होगी। दरबार हत्याकांड विदेशी षड‍्यंत्र भी साबित नहीं हो पाया। ज्ञानेंद्र 1950 के दशक में पहली बार चार साल की उम्र में राजगद्दी पर बैठे थे। तब ज्ञानेंद्र के दादा, राजा त्रिभुवन ने राणाओं के खिलाफ विद्रोह किया था, और दिल्ली निर्वासित हो गए थे। हालात ने उन्हीं ज्ञानेंद्र को 4 जून, 2001 को दोबारा से ताज पहनने का अवसर दिया। ज्ञानेंद्र ने पांच साल के कालखंड में लोकतांत्रिक ताकतों को अलग-थलग कर दिया। अंततः सत्ता में आये माओवादियों ने 28 मई, 2008 को नेपाल की संविधान सभा के ज़रिये राजशाही समाप्त कर दी। लेकिन, पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र और उनके परिवार को आवास, सुरक्षा सुविधाएं शासन द्वारा दिया जाना जारी रहा।

नेपाल में जब तक राजाशाही थी, नरेश भगवान विष्णु के अवतार और हिन्दू राष्ट्र के संरक्षक माने जाते थे। विगत कुछ वर्षों से राजशाही समर्थक हिंदू राष्ट्र की वापसी के एजेंडे को सुलगाने लगे थे। 11 मार्च, 2025 को खबर आई कि नेपाल में इस एजेंडे के समर्थकों ने राजा ज्ञानेंद्र के साथ उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी की तस्वीर भी लहराते हुए नारे लगाए। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र उससे पहले, 30 जनवरी, 2025 को गोरखपुर अपने इष्ट देव, गुरु गोरखनाथ को खिचड़ी चढ़ाने आये थे, तब उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मुलाकात की थी। गत 1 अप्रैल, 2014 को विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता अशोक सिंघल ने कहा था, कि अगर नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं, तो नेपाल हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। फिर चौतारा में एक मंच योगी आदित्यनाथ के साथ साझा करते हुए, अशोक सिंघल ने वही बात दोहराई कि हिन्दू राष्ट्र और राजतंत्र की वापसी होगी। 17 नवंबर, 2015 को 89 वर्ष के अशोक सिंघल, गुरुग्राम के मेदांता हॉस्पिटल में सिधार गए, नेपाल को हिन्दू राष्ट्र दोबारा से बनाने का सपना अधूरा रह गया।

इस बीच, परदे के पीछे से ज्ञानेंद्र के लोग दिल्ली दरबार से संपर्क साधते रहे. अपरोक्ष रूप से ज्ञानेंद्र ने अपने दो निकटस्थ ज्योतिरादित्य सिंधिया और डॉ. कर्ण सिंह से भी राजशाही वापसी में मदद की उम्मीद तोड़ी नहीं थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया की मां, माधवी राजे (किरण राज्य लक्ष्मी देवी), नेपाल के शाही परिवार से थीं। और डॉ. कर्ण सिंह की पत्नी महारानी यशो राज्य लक्ष्मी नेपाल के अंतिम राणा प्रधानमंत्री मोहन शमशेर जंग बहादुर परिवार से। दोनों अब दिवंगत हैं, लेकिन नेपाल के शाही परिवारों से भारतीय रजवाड़ों का भावनात्मक रिश्ता बरक़रार है। यह कहना कठिन है, कि हिन्दू राष्ट्र समर्थक दिल्ली के राजनीतिक गलियारों से कितनी मदद ज्ञानेंद्र के लोगों को मिल रही है, लेकिन नैतिक समर्थन मिलने से कोई इंकार नहीं कर सकता।

विगत शुक्रवार को जो कुछ काठमांडो में हुआ, वो वीभत्स और विनाशकारी था। उस दिन टिंकुने में राजभक्तों का प्रदर्शन हिंसा में परिवर्तित हो गया, जब दुर्गा प्रसाई जीप दौड़ाकर सुरक्षाकर्मियों और प्रत्यक्षदर्शियों को कुचलने की कोशिश करने लगे। हिंसक भीड़ ने जड़ीबूटी प्रोसेसिंग एंड प्रोडक्शन कंपनी के आठ वाहनों को जला दिया, सीपीएन (एकीकृत समाजवादी) के मुख्यालय में आग लगा दी। कोटेश्वर में उन्होंने भटभटेनी सुपरमार्केट को लूट लिया, और जमकर तोड़फोड़ की। उग्र भीड़ ने पत्रकार सुरेश रजक पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी, जिससे उनकी वहीं झुलसकर मौत हो गई। पुलिसकर्मियों और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प के दौरान सबिन महर्जन की गोली लगने से मौत हो गई।

एक बात तो है, नेपाल में लोग लगातार विफल गवर्नेंस से ऊबे हुए हैं। इसका दुष्परिणाम तो आना था। राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) के डॉ. दुर्गा प्रसाई, 87 वर्षीय नवराज सुवेदी समेत 52 नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया है। ज्ञानेंद्र की सुरक्षा कम कर दी गई, पासपोर्ट ज़ब्त है। इस तांडव के बाद भी राजा समर्थकों ने आगामी दो हफ्ते देशव्यापी प्रदर्शन, और 20 अप्रैल को राजधानी में आंदोलन की घोषणा की है। राजा समर्थकों को लगता है, लोहा गरम है, इसलिए आंदोलन की धार बनाये रखो।

मंगलवार को आरपीपी केंद्रीय कार्यकारी समिति की बैठक में पार्टी अध्यक्ष राजेंद्र लिंगडेन के नेतृत्व में राजतंत्र की बहाली के लिए अपने अभियान को आगे बढ़ाने का फैसला किया गया। राजेंद्र लिंगडेन के साथ पूर्व प्रजातंत्रवादी कमल थापा कन्धा मिलाने लगे हैं। पार्टी के उपाध्यक्ष रवींद्र मिश्रा को सदस्य-सचिव नामित किया गया है। राजा समर्थक शीर्ष समूह में आरपीपी नेता पशुपति शमशेर राणा, प्रकाश चंद्र लोहानी सदस्य हैं। लेकिन, ये दोनों ‘बूढ़े घोड़े’ अब राजशाही की मशाल को आगे बढ़ाने की ताकत नहीं रखते हैं। फिर भी, पार्टी के नेताओं में लीड लेने की रेस लग गई है। चुनांचे, आरपीपी विभाजन की ओर भी बढ़ रही है।

लेकिन, ये सारे उपक्रम करने के बाद, 80 की उम्र छूने वाले ज्ञानेंद्र सत्ता का सुख भोग भी पाएंगे? उनके बेटे, पारस की छवि एक लापरवाह, ‘ड्रग एडिक्ट’, गंभीर रूप से बीमार राजकुमार की है। ज्ञानेंद्र के पोते हृदयेंद्र ने अभी-अभी कॉलेज की पढ़ाई पूरी की है, और उन्हें शासन कला का प्रशिक्षण तक नहीं मिला है। नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की वापसी भी होती है, तो वहां का ‘मोदी’ कौन होगा? ये तमाम सवाल, विक्रम के कंधे पर वेताल जैसे हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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