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जम्मू-कश्मीर में मोदी दांव के निहितार्थ

द ग्रेट गेम

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ज्योति मल्होत्रा

श्रीनगर में आज वह शांति व्याप्त है, जो पिछले कई सालों में देखने को नहीं मिली थी। पार्क फुटबॉल खेलते बच्चों से भरे हुए हैं और अभिभावक आसपास बैठकर गपशप कर रहे हैं। लाल चौक काफी सुथरा है, एक विशाल होर्डिंग पर गर्भावस्था परीक्षण किट का विज्ञापन प्रदर्शित है। बंध रोड पर बने एक मॉल में ‘स्टारबक्स’ रेस्तरां भी खुल गया है, जिसकी निगहबानी सामने लगी चिनार के पेड़ों की ऊंची कतार करती प्रतीत होती है। ऑटो और उबर वाले (जो अभी शाम को पंथा चौक की सवारी नहीं चाहते) और दुकानदार कश्मीर घाटी में भारतीय पर्यटकों की वापसी से खुश हैं। स्कूल भरे हुए हैं और साल भर खुले रहते हैं - प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट के बाहर एक इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड पर सूक्ति लिखी है, जिसका भावार्थ हैः ‘एक अच्छा छात्र वही, जो ज्ञान के कुएं में डुबकी लगाकर घूंट भरे’। तथापि, एक गहरी सांस लें और झेलम नदी के तट पर खड़े होकर तनिक सोचें - क्या यह शांति तूफान से पहले की है? तब क्या होगा यदि लोगों को पता चले कि 1 अक्तूबर को विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद, जम्मू-कश्मीर का निज़ाम भी ‘दिल्ली के आधी-अधूरी शक्ितयों वाले मॉडल’ की तर्ज पर बना दिया गया? पिछले सप्ताह के शुरू में, एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए वादे के बावजूद, पूर्ण राज्य का दर्जा लौटना इतना आसान नहीं है, कम-से-कम फिलहाल तो नहीं। वह स्थिति, जब पीएम मोदी के चुने व्यक्ति यानि उपराज्यपाल के पास भूमि और कानून-व्यवस्था जैसे शक्तिशाली विभागों का प्रभार रहेगा,जबकि बाकी का काम एक निर्वाचित मुख्यमंत्री चलाए। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह शांति तूफान गुज़रने के बाद की हो - क्या लोगों को अहसास हो चुका है कि अब पत्थरबाजी या विरोध प्रदर्शनों या उग्रवाद में शामिल होने का कोई औचित्य नहीं है? निश्चित रूप से, देश में किसी भी अन्य कौम से ज़्यादा- मणिपुरियों के अतिरिक्त -कश्मीरी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं कि एक गलत कदम केंद्र को सख्त कार्रवाई करने के लिए उकसाएगा। साल 2019 की अगस्त की एक सुबह श्रीनगर के एक उपनगर सौरा में लोगों के विरोध प्रदर्शन को डराने के लिए की गई भारी गोलीबारी की धुंधलाती यादें इसकी याद दिलाती हैं।

शायद, यह शांति तूफान के कारण है। यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री माेदी ने फिर से पासा फेंका है और अपने ताश के सबसे महत्वपूर्ण इक्कों को चल रहे हैं। मोदी जानते हैं कि दांव -विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर- बहुत बड़ा है। वर्तमान अमेरिका यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात वैश्विक नेताओं से हो रही है, वे उनसे कश्मीर के बारे में भी बात करें, यह स्वाभाविक है। इसलिए मोदी को अन्य की अपेक्षा सबसे अधिक भान है कि मौजूदा चुनाव होने से तमाम फर्क पड़ेगा – या तो इससे उनकी विश्वसनीयता बढ़ेगी या उन पर शक और गहराएगा। वस्तु स्थिति यह है, जिस प्रकार हालिया लोकसभा चुनावों में उनका प्रभाव मद्धम पड़ा, उसके मद्देनज़र, यदि हरियाणा और महाराष्ट्र में भी धक्का लगा तो उनकी स्थिति और कमजोर पड़ेगी। लेकिन कश्मीर का मामला अलग है।

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यह चुनाव केवल इसको लेकर नहीं है कि जीत किसकी होगी - हालांकि,यदि भाजपा किन्हीं पैंतरों से किसी तरह सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है, तो यह उपलब्धि न केवल टोपी में नया फुंदना होगी बल्कि न थमने वाले उन्मादी प्रचार की वजह भी– जिसको पिछले पांच सालों की ‘कारगुजारी’ पर आया जनता का फैसला ठहराया जाएगा। इस तथ्य के अलावा कि कुछ सार्वजनिक परियोजनाओं के ठेके पूर्वी उत्तर प्रदेश के ठेकेदारों को मिले हैं -जो कि लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा का गृह क्षेत्र है - हकीकत यह है कि गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के कुछ सबसे काबिल अधिकारियों और सैनिकों ने मिलकर बढ़िया परिणाम कर दिखाया है, जो आतंकवाद में आई कमी में स्पष्ट दिखाई देता है।

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इसीलिए यह चुनाव अलग है। यह निश्चित रूप से आतंकवादियों की नई भर्ती में कमी आने के बारे में है - जिनकी संख्या अब कश्मीर घाटी में 75 तो इतनी ही जम्मू क्षेत्र में बताई जाती है – किंतु यकीकन यह गिनती केवल इतनी नहीं हो सकती। इन गर्मियों में, भारतीय सेना ने न केवल जवानों को खोया, बल्कि असामान्य संख्या में अधिकारियों को भी, जिन पर घात लगाकर हमला करने वालों में अधिकांशतः उच्च प्रशिक्षित एवं उकसाए गये आतंकवादी थे, जो अमेरिका निर्मित घातक एम-4 असॉल्ट राइफल जैसे घातक हथियारों से लैस थे - संभवतः अफगान युद्ध से चुराए गए - वे अंतर्राष्ट्रीय सीमा के नीचे से सुरंग खोदकर जम्मू में दाखिल हुए और भारतीय सैनिकों को अचानक आ घेरा। तथापि, भारतीय सेना को यह श्रेय है कि उसने नियंत्रण रेखा – जहां पर पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम समझौता कायम है - और साथ ही जम्मू क्षेत्र में फिर से खुद को संगठित किया है। लगता है कमोबेश अपनी बढ़त वापस पा ली है। यह चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में लिए गए अब तक के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों में एक रेखा खींचेगा। जब अगस्त की एक सुबह अनुच्छेद 370 को एक आदेश के ज़रिये हटा दिया गया और राज्य के चारों ओर सुरक्षा आवरण बुन दिया गया। प्रतिरोध की आवाजें, मसलन मीडिया, को अलग-थलग कर दिया और घाटी पहुंचने वाली उड़ानों में पत्रकारों-फ़ोटोग्राफ़रों और कार्यकर्ताओं के नाम ‘नो-फ़्लाई’ सूची में डाल दिए गए और स्थानीय अख़बारों की हैसियत महज़ मुखपत्रों से ज़्यादा कुछ नहीं छोड़ी। राजनेताओं को या तो घरों में नज़रबंद कर दिया या जेल में डाल दिया गया। उनमें से कुछ, जैसे कि बारामुला से वर्तमान सांसद इंजीनियर राशिद, जिन्हें यूएपीए आतंकी अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया था, इस चुनाव में फिर से प्रचार कर रहे हैं, जिससे कई लोग सवाल करने लगे हैं कि वे और प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के अन्य उम्मीदवार, जो बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, क्या वास्तव में भाजपा के छद्म उम्मीदवार हैं।

पांच साल हो गए, जो सबसे बड़ा सवाल कायम है, वह यह कि जो भी हुआ क्या इसकी जरूरत थी। क्या आप लोकतंत्र का पैमाना साफ-सुथरी सड़कें, बच्चों से भरे पार्क, स्कूल जाते छात्र और गड्ढों से मुक्त राजमार्गों को बनाएंगे, इस तथ्य के बावजूद और जितना हमने जाना है, कि इन पांच सालों में लोकतंत्र पटरी से उतरा रहा। आमतौर पर नौकरशाही, चाहे कितनी भी सक्षम क्यों न हो, उन राजनेताओं की जगह नहीं ले सकती, जिनका काम लोगों को और उनकी शिकायतों को सुनना है। सवाल यह है कि क्या यह चुनाव एक नए युग का सूत्रपात करेगा, यदि ऐसा है, तो यह पुराने युग से कितना अलग होगा? इसलिए यह मोदी के अपने हित में- साथ ही भारत के राष्ट्रीय हित में भी –होगा कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होने दिया जाए। सबसे अच्छी बात यह है कि इस पूर्व राज्य में आज हर कोई मानता है कि हालात ठीक हो सकते हैं, सुशासन संभव है, और सबसे बढ़िया यह है कि उग्रवाद पर काबू पाया जा सकता है। कल्पना कीजिए कि आगामी निर्वाचित सरकार के लिए मॉडल कैसा रहेगा। तीन चरणों में होने वाले मतदान का पहला पड़ाव हाल ही में पूरा हुआ है, दक्षिण कश्मीर, जोकि उग्रवाद के केंद्र बिंदुओं में एक रहा है– वहां 60 प्रतिशत मतदान होना एक आश्चर्यजनक संकेतक है। इसका मतलब है कि पत्थरबाजों को पत्थरों की बजाय वोटों की तरफ और वर्षों से दबे हुए आक्रोश को प्रेरित कर बृहद कल्याण की राह पर मोड़ा जा सकता है। कश्मीर में वर्षों तक व्याप्त रही अराजकता और दुख को कभी भुलाया नहीं जा सकता, लेकिन दुआ करें कि काश यह चुनाव एक नए अध्याय की शुरुआत करे। यदि ऐसा हो सका, और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना विधिवत हो जाए, तब कश्मीर सामान्य स्थिति में वापस लौटने का सपना देख सकता है। किंतु फिलहाल तो यह पिलपिली जमीन पर खड़ा है, एक कदम-आगे या पीछे की तरफ- निश्चित रूप से इसकी नियति तय करेगा।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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