साझा संस्कृति के नाम पर साम्राज्यवादी अतीत की नुमाइश
श्याम भाटिया
ऐसे में जब भारत के साथ बहुप्रतीक्षित व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने और इसके लिए वहां पहुंचने जा रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वागत के लिए ब्रिटेन लाल कालीन बिछाने की तैयारी में लगा है, ठीक इस दौरान वह औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत से ले जाई गई कलाकृतियों से भरे एक संग्रहालय को वित्तीय मदद देने के लिए चुपचाप सालाना 730 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च कर रहा है।
ब्रिटिश संग्रहालय - जहां हज़ारों मूर्तियां, पांडुलिपियां, सिक्के और यहां तक कि मानव अवशेष रखे हुए हैंै- वहां पर ‘प्राचीन भारत : जीवंत परंपराएं’ नामक नई प्रदर्शनी को साझा संस्कृति का उत्सव मनाने के नाम पर पेश किया गया है। लेकिन धूपबत्ती की खुशबू और मद्धिम रोशनी के पीछे कहीं ज्यादा परेशान करने वाली सच्चाई छिपी है : यह सांस्कृतिक कूटनीति नहीं है। यह तो सरकारी खर्च पर अपने राजपाट के पुराने वैभव की यादगार है।
ब्रिटिश सरकार ने 2023-24 में, संस्कृति, मीडिया और खेल विभाग के जरिए संग्रहालय को 70.1 मिलियन पाउंड यानि 730 करोड़ रुपये जारी किए - जोकि इसके वार्षिक परिचालन बजट का लगभग आधा है। करदाताओं की कमाई के उदारतापूर्ण लाभार्थियों में संग्रहालय की नवीनतम प्रस्तुति है: ‘प्राचीन भारत : जीवंत परंपराएं’, एक प्रदर्शनी जो आगंतुकों को ‘दर्शन’ करने के लिए आमंत्रित करती है - नारा दिया हैः ‘दिव्यता से परिपूर्ण होने के लिए दिव्य दर्शन’। लेकिन जो प्रदर्शित किया जा रहा है वह आध्यात्मिकता नहीं । यह विगत में साम्राज्य के वैभव का प्रदर्शन है, जिसका वित्तपोषण ब्रिटिश नागरिकों के करों से किया गया और इन कलाकृतियों को पाने के पीछे अपनाई गई क्रूरता अथवा लूट को छिपाने के लिए सावधानीपूर्वक बुने शब्दजाल का मुलम्मा चढ़ाकर ‘पवित्रता’ का अहसास बनाया जा रहा है।
सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम यूके (एफओआई) के तहत जारी दस्तावेजों के अनुसार संग्रहालय में 38,000 से अधिक दक्षिण एशियाई कलाकृतियां हैं, जिनमें बहुतेरी औपनिवेशिक शासन के दौरान लाई गई। अधिकांश अभी भी भंडार गृहों में बंद हैं। उपरोक्त प्रदर्शनी में 178 कलाकृतियां प्रदर्शित की हैं और इन्हें स्थापित करने में 839,000 पाउंड (8.7 करोड़ रुपये) की लागत आई है। संग्रहालय के रिकॉर्ड बताते हैं कि 2024-25 में 12.7 मिलियन पाउंड (132 करोड़ रुपये) 307 सुरक्षा एवं आगंतुक सेवा कर्मचारी नियुक्त करने में खर्च आए– जो इस प्रदर्शनी के बजट का लगभग पंद्रह गुना है। मानो पारदर्शिता या वापसी से ज़्यादा अहम है शाही लूट की सुरक्षा।
बहुत कम आगंतुक इस संस्थान की गहरी नींव की समझ रखते हैं। जब 1753 में ब्रिटिश संग्रहालय खुला, तो इसकी शुरुआत सर हैंस स्लोएन के निजी संग्रह की कलाकृतियों से हुई थी, जिनकी संपत्ति का एक हिस्सा जमैका के गन्ना खेतों में गुलाम अफ़्रीकी श्रमिकों की कड़ी मेहनत से पाया था। साल 1834 में ब्रिटेन द्वारा दास प्रथा समाप्ति के बाद, इनमें से कई गन्ना फार्मों का काम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से अनुबंधों पर लाए गए भारतीय मज़दूरों को कैरिबियन पार पहुंचाकर जारी रखा गया, जहां पर उन्हें मामूली मज़दूरी पर बरसों कठोर श्रम करना पड़ा।
संग्रहालय के कक्ष औपनिवेशिक वस्तुओं से भरे पड़े हैं। एक प्रसिद्ध मुग़ल लघुचित्र में राजकुमार खुर्रम - जो बाद में सम्राट शाहजहां बने - को सोने में तोला जा रहा है। कुषाण, गुप्त और मुग़ल काल के प्राचीन भारतीय सोने के सिक्कों पर लक्ष्मी, अश्वमेध यज्ञ और शाही अनुष्ठानों के दृश्य अंकित हैं। कभी किसी की भेंट या ख़ज़ाना रहे ये सिक्के अब ब्लूम्सबरी में शीशे के पीछे रखे हुए हैं – विजय ट्राफ़ी में बदल दिए गए हैं श्रद्धा-अवशेष।
फिर भी यह संस्थान फल-फूल रहा है - प्रवेश शुल्क की कमाई से नहीं, बल्कि सरकारी वित्तपोषण से। इसके निदेशक, डॉ. निकोलस कलिनन, जिन्हें 2024 में नियुक्त किया गया था, उन्हें 215,841 पाउंड (2.26 करोड़ रुपये) के विज्ञापित वेतन पर नियुक्त किया गया है।
एक अन्य सूचना की स्वतंत्रता विज्ञप्ति से पता चलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में 110 क्यूरेटर और प्रोजेक्ट क्यूरेटर कार्यरत हैं, जिनका औसत वार्षिक वेतन 39,508 पाउंड (41 लाख रुपये) है। इन पेशेवरों का काम दुभाषिए के रूप में इन वस्तुओं का इतिहास बताना भी है - जो बताने से ज्यादा छिपाने का है - जिसे यहां वैश्विक धरोहर का नाम दे रखा है।
प्रदर्शनी बनाने के हिस्से तौर पर, एक सामुदायिक सलाहकार पैनल का गठन किया गया था - जिसमें हिंदू, जैन और बौद्ध अनुयायी शामिल थे - और उन्हें उनके इस सांस्कृतिक योगदान के लिए अघोषित मानदेय दिया गया। लेकिन उनसे इनकी वापसी या विवादित स्वामित्व के बारे में बात करने की मनाही थी।
ज़्यादा परेशान करने वाली बात है संग्रहालय में करीब 6,000 मानव अवशेषों के संग्रह को लेकर चुप्पी, जिनमें कुछ अवशेष दक्षिण एशिया से भी हैं - खोपड़ियां, हड्डियां और अनुष्ठानिक चीज़ें। ये अवशेष संग्रहालय के नीतिगत दस्तावेज़ों में सूचीबद्ध हैं, फिर भी इन्हें ‘जीवित परंपराओं’ की खोज का दावा करने वाली इस प्रदर्शनी से बाहर रखा गया है।
इस साल की शुरुआत में, नगालैंड के आदिवासी प्रतिनिधि ब्रिटिश शासन के दौरान लाए गए अपने पूर्वजों के अवशेषों की वापसी की मांग को लेकर ब्रिटेन आए थे। उनकी यह मांग विश्व के बाकी ब्रिटिश औपनिवेशिक देशों से लगातार बढ़ रही इस किस्म की दावेदारी का हिस्सा थी, जो इनकी लूट की नैतिक स्वीकृति और भौतिक वापसी करना, दोनों, चाहते हैं। यूरोपीय देश इस दिशा में कदम उठाने लगे हैं: जर्मनी से नाइजीरिया को, फ्रांस से बेनिन एवं सेनेगल को, नीदरलैंड से श्रीलंका और इंडोनेशिया को वहां से लाई गई वस्तुएं लौटाई जा रही हैं। ब्रिटेन अभी भी पीछे है।
तमिलनाडु की मूर्ति शाखा और भारत गौरव परियोजना जैसी क्षेत्रीय भारतीय पहलकदमियों ने कुछ वस्तुएं अवश्य वापस पा ली हैं, लेकिन भारत सरकार ने अभी तक पूर्ण पैमाने पर पुनर्प्राप्ति अभियान पर जोर देना शुरू नहीं किया। कोहेनूर हीरा (जो अब ब्रिटिश शाही ताज में जड़ा है) या महाराजा रणजीत सिंह का स्वर्ण सिंहासन (वी एंड ए में) जैसी उच्च-स्तरीय कलाकृतियों पर अभी तक दावा नहीं किया गया।
इस प्रदर्शनी का समय गौरतलब है। ‘प्राचीन भारत: जीवंत परंपराएं’ नामक यह प्रस्तुति ब्रिटेन द्वारा भारत के साथ अपने मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने की तैयारी से ठीक पहले खोली गई है, और इसके लिए जुलाई अंत में पीएम मोदी के लंदन आने की उम्मीद है। तथापि, आपसी सम्मान व साझा समृद्धि की बयानबाज़ी के बीच, सांस्कृतिक विरासत की वापसी का प्रश्न अछूता ही रहता है। जहां ब्रिटेन भारतीय निवेश और सियासी सद्भावना आकर्षित करने को डोरे डाल रहा है वहीं दूसरी ओर अपने औपनिवेशिक शासन में भारत से लाई गई कलाकृतियों का प्रदर्शन कर रहा है।
‘प्राचीन भारत: जीवंत परंपराएं’ के हर तत्व की पेशकारी नृत्य प्रस्तुति शैली में बनाई गई है - धूपबत्ती का धुंआ, दीप, संस्कृत मंत्रोच्चार, वृत्तचित्र क्लिप - श्रद्धा का आभास पैदा करते हैं। लेकिन यहां प्रस्तुत ‘दर्शन’ खोखला है। ये मूर्तियां कभी भी संग्रहालय प्रदर्शन के लिए नहीं बनी थीं। अपने उद्गगम स्थल से हुए इनके निष्कासन ने इनकी पवित्रता को विजय की लूट-राशि में बदल दिया है। यह जीवंत संस्कृति का उत्सव नहीं। यह तो राज्य द्वारा वित्तपोषित स्वामित्व का तमाशा है - वेतनभोगी पेशेवरों द्वारा संभाला जाने वाला, शाही कानून द्वारा संरक्षित, और जनता के धन से चल रहा नीरवता का एक संग्रहालय। ‘धूपबत्ती का धुंआ ढांप नहीं सकेगा...संस्था व्याख्या कर नहीं सकेगी..और देव मूर्तियां, जो अभी भी घूर रही हैं...उन्हें ही सही पता होगा, उनके साथ हुआ क्या’।
लेखक द ट्रिब्यून के लंदन संवाददाता हैं।