मुकेश राठौर
समाजशास्त्री समाज में न रहने वाले आदमी को पशु सम मानते हैं। सामाजिक ठेकेदार भीड़ से अलग ऐसे आदमी को शेर तो नहीं कहते, अलबत्ता गधा, बैल, उल्लू जरूर कह डालते हैं। बस आदमी इस पशुता के ठप्पे से बचने के लिए समाज की चिंता में चिंताते रहता है। रीतियां रूढ़ियों के रथ पर आरूढ़ हो जाती हैं और लोग घोड़ों -से जुतकर दौड़ते रहते हैं।
कोरोना आया तो सारी सामाजिक परिभाषाएं बदल गईं। लोगों में बहुत हद तक वायरस के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी ‘इम्यूनिटी’ आ गई थी। इम्यूनिटी वैक्सीन से नहीं अंदर से आती है। ईश्वरीय गीत ‘आगे दुख तो पीछे सुख है, पीछे सुख तो आगे दुख है, दुख में कोई सुख है’, की तरह इस दुख में भी जैसे सुख नजर आने लगा था। जिस समाज के भय से आदमी भीड़ बढ़ाना ‘सामाजिक धर्म’ और ‘स्टेटस सिंबल’ समझता हो, अगर वही समाज ‘सामाजिक दूरी’ पर जोर दे तो क्या बुरा है?
हुआ यूं कि दो साल पहले करसन ने बेटी के ब्याह हेतु पटेल साहब के पास अपनी जमीन गिरवी रखने की पूरी तैयारी कर ली थी। कच्ची बिक्री की पक्की लिखा-पढ़ी करवाने कोर्ट जाने ही वाले थे कि कोरोना आ गया। शादी-ब्याह जैसे आयोजन सरकारी गाइड लाइन अनुसार सीमित रूप में होने लगे। ‘समाज से भय खाया आदमी कभी-कभी सामाजिक सोच से आगे जाकर सोचने लगता है।’ सो उसने आते साल ब्याह करने का मन बनाया।
दूसरे साल परिवार में गमी हो गई। बात फिर आते साल पर चली गई।
इस बरस करसन ने बीते दो सालों की तर्ज पर सीमित रूप में बेटी का ब्याह करने की तैयारी की। वह बहुत खुश था क्योंकि ऐसा करते हुए उसे अपनी जमीन भी गिरवी नहीं रखनी पड़ रही थी और न जुबान। खुश क्यों न होता? फोन पर न्योते-फोन पर पाती, न बाजे-न बाराती। न टेंट-न टैंकर। माने बिना ताम-झाम, हाथ पुराता सारा काम। वरना बेटी का बाप अधमरा तो परिणय पाती बांटने में ही हो जाता है, आधा फेरे लेते दूल्हे के अड़ने पर।
कल राह में करसन की पटेल साहब से भेंट हो गई। उनकी बेटी का भी ब्याह होना है। उन्होंने करसन को खुशखबरी दी तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। पटेल साहब ने बताया कि सरकार की नई गाइड लाइन के तहत आयोजनों से सारे प्रतिबंध हटाये जा रहे हैं। अब हम 250 मेहमानों के साथ नहीं बल्कि पूर्ण क्षमता के साथ अपनी बेटियों के ब्याह कर सकते हैं। …बेचारे करसन की पूर्ण क्षमता ही 250 की है।