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कल्पनाशील प्रबंधन व तकनीक रोकेगी हादसे

भगदड़ की त्रासदी
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भारत में एक बड़ी समस्या यह है कि भीड़ को अनुशासित करने का संस्कार और शिक्षण पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नहीं है। इसकी वजह से मौका पाते ही हर व्यक्ति रसूख के साथ भीड़ से निकलना चाहता है या फिर अपना वर्चस्ववादी स्वभाव दिखाना चाहता है।

हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में भगदड़ की सुर्खियों की स्याही अभी सूखी नहीं कि उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से भी भगदड़ की खबर आ गई है। ऐसी घटनाएं जब भी होती हैं तो एहतियाती कदम उठाए जाने की प्रशासनिक तंत्र की ओर से घोषणाएं होती हैं। कुछ दिन में देश ऐसी घटनाओं को भुला देता है। अभी भूलने और भुलाने का यह खेल जारी ही रहता है कि कोई नई घटना आ जाती है और एहतियाती कदमों का ऐलान महज हवा-हवाई बनकर रह जाता है।

वर्ष 2025 में ही सात घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें आधिकारिक तौर पर 81 लोगों की जान जा चुकी है। जबकि सैकड़ों घायल हुए हैं। दिलचस्प यह है कि ये घटनाएं कुंभ जैसे भीड़भाड़ वाले सांस्कृतिक और पारंपरिक आयोजन में तो हुई हीं, राष्ट्रीय राजधानी के रेलवे स्टेशन से लेकर गोवा जैसे कम जनसंख्या वाले राज्य में भी घटीं। आंकड़ों के अनुसार नई सदी के बाईस साल में 23 बार भगदड़ मची, जिनमें करीब डेढ़ हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी। इन घटनाओं में घायल लोगों में से कई दिव्यांग बन गए तो कई को ऐसा मानसिक आघात लगा कि उससे अभी तक उबर नहीं पाए हैं।

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दरअसल, भगदड़ की ज्यादातर घटनाएं प्रशासनिक तंत्र की खामी की वजह से होती हैं। मसलन, 15 फरवरी को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर घटी घटना की वजह रेलवे अधिकारियों की सोच रही, जिन्होंने आनन-फानन में ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदल दिया और उसमें जगह पाने के लिए लोग दौड़ पड़े। बेहतर प्रशासनिक व्यवस्थाओं में अधिकारियों का कल्पनाशील और अनुमानशील होना जरूरी माना जाता है। लेकिन भारतीय प्रशासनिक ढांचे में इस कल्पनाशीलता की अक्सर कमी नजर आती है। उसमें भावी संकटों और समस्याओं का अनुमान लगाने के लिए जरूरी सोच की कमी है। वह किसी समस्या का अंदाजा लगाकर उसे शुरू में रोकने और व्यवस्थित करने की बजाय आखिरी छोर पर निपटने की सोच से लगातार लैस रहता है।

लोगों की भीड़ को मेले में घुसने से पहले व्यवस्थित करने और उसे रोकने में भारतीय प्रशासनिक तंत्र की दिलचस्पी कम होती है। जब मेले में भीड़ बढ़ जाती है तो मेले वाली जगह के दरवाजे पर वह अचानक से रोक लगा देता है। होना यह चाहिए कि मेले की ओर जाने वाले रास्ते पर भीड़ को देखते हुए रोक लगा दी जाए। दरवाजे पर भीड़ को रोकने से मेले में भीड़ भले ही न घुसे, लेकिन पीछे से आ रहे रेले पर रोक नहीं लग पाती। इससे बैरिकेड वाली जगह पर भीड़ का दबाव बढ़ जाता है। पीछे वाली भीड़ के दबाव के चलते एक वक्त ऐसा आता है कि बैरिकेड का कोई मतलब नहीं रह जाता।

प्रयागराज की भगदड़ की भी वजह यही थी। भीड़ पीछे नहीं रोकी गई, स्नान केंद्र के पास रोकी गई। इसकी वजह से बैरिकेड पर दबाव बढ़ा और पीछे से आए रेला ने इसकी परवाह नहीं की कि कौन गिरा है और किसके पेट, पीठ या सिर पर उसका पैर पड़ रहा है।

उत्तर भारत में मंदिरों तक में वीआईपी संस्कृति का बोलबाला है। इसकी तुलना में दक्षिण भारतीय मंदिरों में वीआईपी संस्कृति कुछ कम है। इसलिए उत्तर के मंदिरों और धार्मिक मेले-ठेले में अनुशासनहीन भीड़ की बहुलता होती है। चूंकि प्रशासनिक तंत्र कल्पनाशीलता से उन्हें व्यवस्थित नहीं कर पाता, लिहाजा भगदड़ की दुर्भाग्यजनक घटनाएं हो जाती हैं।

भारत में एक बड़ी समस्या यह है कि भीड़ को अनुशासित करने का संस्कार और शिक्षण पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नहीं है। इसकी वजह से मौका पाते ही हर व्यक्ति रसूख के साथ भीड़ से निकलना चाहता है या फिर अपना वर्चस्ववादी स्वभाव दिखाना चाहता है। प्रशासनिक तंत्र इस मानस के आगे कभी रसूख देख झुक जाता है तो कभी वह सोच भी नहीं पाता कि इसके नकारात्मक असर क्या-क्या हो सकते हैं।

इस संकट का समाधान राष्ट्रीय स्तर पर एक मुकम्मल नीति बनाने और उसे कड़ाई से लागू करने की जरूरत है। आज के दौर में तकनीक ने तमाम समस्याओं के समाधान की नई राहें भी निकाली हैं। नीतिगत स्तर पर प्रशासनिक तंत्र को तकनीक के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जाना होगा। प्रशासनिक तंत्र को इसके लिए प्रशिक्षित किया जाना होगा कि तकनीक के इस्तेमाल से वे ठीक से पता लगा पाएं कि किस बिंदु पर भीड़ को रोका जाना चाहिए, कहां बैरिकेडिंग करके भीड़ को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

स्कूली स्तर से ही इस दिशा में शिक्षा और संस्कार देना होगा। वीआईपी संस्कृति पर पूरी तरह रोक लगाना भी इस दिशा में बेहद जरूरी कदम होना चाहिए। इसके साथ ही अफवाहों पर लगाम लगाने के मुकम्मल इंतजाम होने चाहिए।

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