सीताराम गुप्ता
सफलता का मूल मंत्र है हर कार्य को भली-भांति सोच-समझकर करना और हर प्रश्न का उत्तर भी अच्छी तरह से सोच-विचार करने के उपरांत ही देना। कहा गया है कि बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय। बिल्कुल ठीक कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास भी मानस के अयोध्या कांड में एक स्थान पर लिखते हैं कि कोई भी काम हो यदि उचित-अनुचित का विचार करके किया जाए तो सब कोई उसे अच्छा कहते हैं। वेदों में भी यही कहा गया है।
क्या हम सचमुच सोच-समझकर ही हर कार्य करते हैं? हमारा प्रयास तो यही रहता है कि जल्दबाजी में कोई ऐसा कार्य न हो जाए, जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो जाए। या कोई ऐसी बात मुंह से न निकल जाए, जिससे हमारी प्रतिष्ठा अथवा हमारे व्यवसाय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। लेकिन क्या हम उसके औचित्य-अनौचित्य पर भी विचार करते हैं? वास्तव में हम किसी भी चीज का व्यावहारिक पक्ष देखते हैं। व्यावहारिकता बुरी बात नहीं लेकिन जब हम जरूरत से ज्यादा व्यावहारिक हो जाते हैं तो हमारी सोच का नैतिक पक्ष उतना ही कमजोर हो जाता है। व्यावहारिक होने के साथ-साथ यह भी अनिवार्य है कि हम उदात्त व सकारात्मक जीवन मूल्यों के पक्षधर भी हों।
यदि किसी व्यक्ति से संबंध बनाए रखने से हमें किसी भी तरह का लाभ होता है तो हम प्रायः उस व्यक्ति की गलत बातों का भी विरोध नहीं करते। ये व्यावहारिक होते हुए भी उचित नहीं कहा जा सकता। गलत का विरोध न करना अथवा अपने हित के लिए गलत का समर्थन करना दोनों स्थितियां ही मनुष्यता के लिए घातक हैं। दूसरी ओर, यदि हमें कुछ अधिक आर्थिक लाभ होने की संभावना नजर आ रही होती है तो हम रिश्ते-नातों को भी भूल जाते हैं। भूल ही नहीं जाते, तोड़ भी डालते हैं। पैसों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होते हैं आपसी संबंध और एक दूसरे पर विश्वास। यदि हमें बहुत अधिक सोच-समझकर बात करने अथवा व्यवहार करने की जरूरत नजर आ रही है तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि हमारा परस्पर विश्वास और हमारे आपसी संबंध खंडित हो चुके हैं अथवा खंडित होने के कगार पर हैं।
हमारे सोच-समझकर काम करने अथवा बात करने का कोई महत्व नहीं यदि उससे झूठ-फरेब का साम्राज्य प्रतिष्ठित होता है और हमारा आपसी विश्वास खंडित होता है। ऐसी समझदारी का कोई मूल्य नहीं, जिससे घर-परिवार, समाज अथवा राष्ट्र विघटित होता है। हमारी ऐसी समझदारी, जिससे हमारे बच्चों में हमसे भी ज्यादा ऐसी समझदारी विकसित हो जाए सचमुच बहुत नुकसानदायक है। ज्यादा समझदारी वास्तव में हमारे लिए अभिशाप के समान होती है। इस संदर्भ में निदा फाजली साहब का एक शे’र याद आ रहा है— दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है, सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला। जो हमेशा दो और दो चार के फेर में रहते हैं उनके निर्णयों को सही नहीं कहा जा सकता। हमारे अति समझदारी भरे निर्णयों का अन्य लोगों अथवा समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा हम कम ही सोचते हैं क्योंकि हम आत्म-केंद्रित होते जा रहे हैं।
घोर व्यावसायिकता व स्वार्थ परायणता से तटस्थ होकर ही हम सही निर्णय ले सकते हैं। इसके लिए ज्यादा समझदारी की जरूरत नहीं। मान लीजिए कि दिन में धूप खिली हुई है और कोई पूछे कि आज कैसा मौसम है तो इसका एक ही उत्तर होगा कि आज धूप खिली हुई है। इसमें सोचने की क्या बात है? जब कोई चीज पूरी तरह से स्पष्ट हो और हम बिना बात सोचें कि क्या जवाब देना है तो हम गलत नहीं बल्कि बहुत गलत दिशा में जा रहे हैं। यह संकेत है कि हम जरूरत से ज्यादा समझदार हो रहे हैं इसलिए अब थोड़ा नादान बनने का समय आ गया है।
इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि हम सही दिशा में सोचना बंद कर दें। हम सही सोचें और गलत का स्पष्ट रूप से विरोध करें। हम अपनी अज्ञानता अथवा कमियों को छुपाने के लिए भी ज्यादा समझदारी की बातें करने लगे हैं। यह भी सच्चाई पर पर्दा डालने जैसी ही बात है। सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए ही यदि हम भली-भांति सोच-समझकर बातें करते हैं तो इसे कैसे महत्व दिया जा सकता है? यदि हम सच्चाई पर पर्दा डालने की बजाय उसे सरलता से स्वीकार कर लें तो इससे बड़ी समझदारी की बात हो ही नहीं सकती।
बच्चों को हम नादान कह देते हैं क्योंकि वे बिना सोचे-समझे कि इसका क्या परिणाम होगा सच बोल देते हैं। ये नादानी नहीं सरलता व निष्कपटता है। हमारे लिए भी यही श्रेयस्कर होगा कि हम बच्चों की तरह सरल व निष्कपट बनने का प्रयास करें। स्वाभाविकता के लिए किसी प्रकार के विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। अस्वाभाविक, गलत अथवा काल्पनिक तथ्यों को स्थापित करने के लिए ही अधिक प्रयास करने की आवश्यकता होती है। आज इस प्रकार के प्रयासों में ही हमारी अधिकांश उपयोगी ऊर्जा का दुरुपयोग हो रहा है। जो सरल व्यक्ति होता है उसकी ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं होता। हमारी सोच-समझ ऐसी होनी चाहिए, जिससे सकारात्मक जीवन मूल्य प्रतिष्ठित हो सकें। यह तभी संभव है जब हमारी सोच केवल सकारात्मक हो और हम पक्षपात रहित होकर निडरतापूर्वक अपनी बात कहने का साहस जुटा पाएं।