Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

कुछ गाद हटे तो पानीदार बन जाएगा समाज सहेजें पुरखों की जलनिधि

पंकज चतुर्वेदी इस बार गर्मी जल्दी आई और साथ में प्यास भी गहराई। केंद्र सरकार की हजार करोड़ की ‘हर घर जल योजना’ ने बढ़ते ताप के सामने लाचारगी जाहिर की। वैसे हकीकत तो यह है कि अब देश के...

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

पंकज चतुर्वेदी

इस बार गर्मी जल्दी आई और साथ में प्यास भी गहराई। केंद्र सरकार की हजार करोड़ की ‘हर घर जल योजना’ ने बढ़ते ताप के सामने लाचारगी जाहिर की। वैसे हकीकत तो यह है कि अब देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने यहां जेठ ही रहता है। समझना होगा कि एक अरब 44 करोड़ की विशाल आबादी को पानी देना महज सरकार के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। गर्मी और सूखती जल निधियों के प्रति यदि समाज आज सक्रिय हो जाए तो अगली गर्मी में उन्हें यह संकट नहीं झेलना होगा। एक बात समझ लें प्रकृति से जुड़ी जितनी भी समस्या हैं उनका निदान न वर्तमान के पास है न भविष्य के। इसके लिए हमें अतीत की ही शरण में जाना होगा। थोड़ी गाद हटानी होगी–कुछ सूख चुकीं हमारे पुरखों द्वारा बनाई जल निधियों से और कुछ अपनी समझ से– देखें थोड़ी भी बरसात हुई तो समाज पानीदार बन सकता है।

Advertisement

कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी अौर काम में लग गए। अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है।

Advertisement

भारत के हर हिस्से में वैदिक काल से लेकर ब्रितानी हुकूमत के पहले तक सभी कालखंडों में समाज द्वारा अपनी देश-काल- परिस्थिति के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के कई प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब हर एक जगह हैं। रेगिस्तान में तो उन तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई तो कन्नड में कैरे और तमिल में ऐरी। यहां तक कि ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवशेष मिले हैं।

ईसा से 321-297 साल पहले, कौटिल्य का अर्थशास्त्र बानगी है जो बताता है कि तालाबों को राज्य की जमीन पर बनाया जाता था। समाज ही तालाब गढ़ने का सामान जुटाता था। जो लोग इस काम में असहयोग करते या तालाब की पाल को नुकसान पहुंचाते, उन्हें राज्य-दंड मिलता। आधुनिक तंत्र की कोई भी जल संरचना 50 से 60 साल में दम तोड़ रही है जबकि चन्देलकाल अर्थात‍् 1200 साल से अधिक पुराने तालाब आज भी लोगों को जिंदगी का भरोसा दिए हुए हैं। उन दिनों उन्नत जल-विज्ञान और कुशल जलविज्ञानी का पूरा समाज था जो मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ रखते थे।

अंग्रेज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देख कर। उन दिनों कुओं के अलावा सिर्फ तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे। फिर आधुनिकता की आंधी में सरकार और समाज दोनों ने तालाबों को लगभग बिसरा दिया, जब आंख खुली तब बहुत देर हो चुकी थी।

अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते- एवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते की बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है।

गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है - न भरेगा पानी, न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में बिल्डर-भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं।

यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘अपनी जड़ों को लौटने’ की इच्छाशक्ति विकसित करनी होगी।

Advertisement
×