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जानवरों पर कहावतों में भी नर पर भारी नारी

तिरछी नज़र

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जब कहावत और मुहावरों में स्त्री क़ो इतना सम्मान, तब से दिया गया है जब से इनकी रचना हुई है तो अब भी किसी महिला क़ो अपशब्द कहना हमारी संस्कृति का हिस्सा हो ही नहीं सकता।

भारत में स्त्रियों क़ो भारतीय परंपरा में आदि काल से ही सम्मान की दृष्टि से अधिभार दिया जाता रहा है। हो सकता है आपको ये बात अतिशयोक्ति नजर आ रही हो। मैं अपनी बात क़ो सिद्ध करने के लिए किसी वेद-पुराण या ग्रंथों का सहारा नहीं लूंगा। आप हिन्दी के अनेक मुहावरे देख लीजिएगा, सभी में स्त्री का मान रखा गया है, पुरुषों की तुलना में!

जैसे मुहावरा है ऊंट के मुंह में जीरा... अब सोचिये, इस मुहावरे में ऊंटनी का जिक्र क्यों नहीं किया गया‍? ऐसे जैसे ‘गधे के सिर पर सींग’ कहने क़ो यहां गधी शब्द का उपयोग भी किया जा सकता था। लेकिन नहीं किया गया। कुत्ते की पूंछ टेढ़ी ही रहती है। लेकिन स्त्रीलिंग जीनों का सम्मान रखा गया है।

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धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का, इस मुहावरे में ‘स्त्रीलिंग’ का उपयोग भी किया जा सकता था। लेकिन नहीं किया गया। ऐसे ही ग़धे को बाप बनाना, भाई ‘गधी’ क़ो मां भी बनाया जा सकता था, पर नहीं बनाया गया। गिरगिट की तरह रंग बदलना! क्यों उसकी मादा गिरगिट स्त्री रंग नहीं बदलती? लेकिन उसका सम्मान किया गया है। इसी तरह अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनना, मिठ्ठू ही क्यों मिठ्ठूआइन भी तो कहा जा सकता था। ‘अंधे की लाठी’ एक कहावत है, अब अंधे की लाठी ही क्यों अंधी की लाठी भी तो हो सकती थी! लेकिन लाठी तो अंधे की कहावत में आई क्यों, स्त्री का सम्मान जो करना है।

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ऐसी ही कुछ और कहावतें हैं— घोड़े बेचकर सोना, क्या घोड़ी बेचते तो सोने क़ो नहीं मिलता? इसलिए ये कहावत नहीं बनी, केवल स्त्रीलिंग सम्मान वाली बात यहां भी है। केवल मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी, जानवर और अन्य समुदाय के साथ लोकोक्ति में भी स्त्रियों का सम्मान किया गया है। सोचिये, ये नारी-सम्मान केवल भारतीय संस्कृति में है, विदेशी या पाश्चात्य संस्कृति में नहीं।

जब कहावत और मुहावरों में स्त्री क़ो इतना सम्मान, तब से दिया गया है जब से इनकी रचना हुई है तो अब भी किसी महिला क़ो अपशब्द कहना हमारी संस्कृति का हिस्सा हो ही नहीं सकता।

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