दीपिका अरोड़ा
गत 21 दिसंबर को झारखंड विधानसभा में ‘मॉब वॉयलेंस एंड मॉब लिंचिंग बिल, 2021’ पारित किया गया, जिसका उद्देश्य व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना तथा सामूहिक हिंसा रोकना है। इसके तहत दो या दो से अधिक लोगों द्वारा हिंसा करना मॉब लिंचिंग माना जाएगा। भीड़ हिंसा के दोषी पाए जाने पर जुर्माने तथा संपत्तियों की कुर्की के अलावा तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद की सज़ा का प्रावधान है। हिंसा में पीडि़त की मृत्यु होने पर दोषी को आजीवन कारावास तथा 5 से 25 लाख तक जुर्माने की सज़ा होगी। भड़काऊ पोस्ट डालने तथा पीड़ितों व गवाहों के लिए शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने वाले लोगों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की जाएगी। किसी का सामाजिक अथवा व्यावसायिक बहिष्कार भी मॉब लिंचिंग के अंतर्गत आएगा। पीडि़तों के लिए इसमें मुफ्त इलाज की व्यवस्था है। राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात यह कानून बनकर राज्य में प्रभावी हो जाएगा।
अक्सर प्रकाश में आने वाले सामूहिक हिंसा मामलों ने, 2019 में झारखंड में व्यापक चर्चा तब पकड़ी, जब 24 वर्षीय तबरेज़ अंसारी को बकरी चोरी के संदेह में सरायकेला खरसावां जिले की भीड़ ने रस्सी से बांधकर इतना पीटा कि उसकी मृत्यु हो गई। उच्च न्यायालय की फटकार के पश्चात ऐसे मामलों के निपटारे हेतु जिला स्तरीय समितियों के गठन का फैसला किया गया।
‘अनेकता में एकता’ भारतीय संस्कृति की विशेषता है, किंतु विविधता में समाविष्ट मतभेदों का हिंसात्मक प्राकट्य राष्ट्रहित के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ‘मॉब लिंचिंग’ अर्थात् उत्तेजित भीड़ द्वारा किसी को दोषी पाए जाने पर या अपराधी होने के संदेह में स्वयं दंड देना, लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है। समस्या का राष्ट्रीय स्तर पर दृष्टिगोचर होना गहन चिंता का विषय है। वर्ष 2002 में हरियाणा के पांच दलितों को गोहत्या के आरोप में सामूहिक हिंसा का निशाना बनाया गया। 2015 में अज्ञात समूह ने मोहम्मद अखलाक को, बेटे दानिश सहित, गोहत्या तथा मांस-भंडारण के आरोप में पीटकर मार डाला। 2017 को राजस्थान में गो तस्करी के झूठे आरोप में पहलू खान की हत्या कर दी गई। महाराष्ट्र के पालघर में क्रुद्ध भीड़ द्वारा तीन साधुओं को दौड़ा-दौड़ाकर मारा गया। किसान आंदोलन के दौरान सिंघु बॉर्डर पर कथित बेअदबी आरोपी को तेजधार हथियारों से काट दिया गया। हाल ही में पंजाब की दो कथित ‘बेअदबी’ घटनाओं में आरोपितों को पीट-पीटकर मार डाला गया। अनुमानत: वर्ष 2019 में 107 व 2020 में 23 ‘मॉब लिंचिंग’ मामले प्रकाश में आए।
लिंचिंग की अधिकांश घटनाएं जातिगत भेदभाव व धार्मिक असहिष्णुता से संबद्ध हैं। विचाराधीन मामलों का समय पर निपटारा न होना भी घटनाओं की बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण है, जैसा कि पंजाब के ‘लंबित बेअदबी मामलों’ में देखने को आया। जनप्रतिनिधियों के भड़काऊ भाषण तथा स्वार्थसिद्धि हेतु राजनीतिक हथकंडों के रूप में बल प्रयोग भी सामूहिक हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं। हालिया कपूरथला मॉब लिंचिंग में सोशल मीडिया का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी प्रमुख कारण के रूप में सामने आया।
भारतीय दंड संहिता में ‘मॉब लिंचिंग’ के विरुद्ध कार्रवाई से संबंधित कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं। इनका निपटारा धारा-302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 323 (जानबूझकर घायल करना), 147-148 (दंगा-फसाद), 149 (आज्ञा के विरुद्ध एकत्रित होना) तथा धारा-34 (सामान्य आशय) के तहत होता है। भीड़ द्वारा हत्या करने पर आईपीसी की धारा 302 तथा 149 मिलाकर पढ़ी जाती हैं, हत्या- प्रयास मामले में धारा 307 और 149 संयुक्तरूपेण सम्मिलित होती हैं। सीआरपीसी में भी इस बारे स्पष्टत: कुछ नहीं कहा गया।
‘भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता’, लिंचिंग में संलिप्त लोगों की गिरफ्तारी न हो पाना सबसे बड़ी समस्या है। न केवल यह अनुच्छेद-21 में दिए ‘जीवन के अधिकार’ का हनन करता है, बल्कि दु:साहसी प्रवृत्ति का उत्साहवर्द्धन करते हुए राज्य की कानूनी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। ग्लोबल पीस इंडेक्स के 2019 के आंकड़ों के अनुसार, 163 देशों में भारत का स्थान 141वां रहा।
वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने लिंचिंग को ‘भीड़तंत्र के एक भयावह कृत्य’ के रूप में संबोधित करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों को कानून बनाने के दिशा-निर्देश दिए। मणिपुर, वर्ष 2018 मेें लिंचिंग के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करने वाला पहला राज्य बना। तार्किकता व प्रासंगिकता के मद्देनजर यह विधेयक सराहनीय आंका गया। 2019 में राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल में भी लिंचिंग के विरुद्ध विधेयक पारित किए गए।
मॉब लिंचिंग न केवल सामाजिक भ्रातृत्व, मानवीय सौहार्द के लिए घातक है बल्कि राज्य की आंतरिक अस्थिरता का कारक भी है। इससे आम जनता में असुरक्षा, भय व अशांति की भावना उपजती है तथा पुलिस प्रशासन व कानून व्यवस्था के प्रति रोष एवं संदेह उत्पन्न होता है। अंतर्राष्ट्रीय छवि धूमिल होने से विदेशी व घरेलू निवेश प्रभावित होते हैं, जिसका अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्वनिर्धारित दंड-प्रक्रिया का यह घृणित स्वरूप समूची मानवता के लिए एक विषैला दंश है। लोकतंत्र पर भीड़तंत्र का हावी होना मानवीय, सामाजिक, नैतिक, कानूनी; किसी भी आधार पर क्षम्य नहीं। अन्य राज्यों को भी इस दिशा में कड़े कदम उठाने चाहिए।