एआई से पारंपरिक शिक्षा को कितना खतरा
एआई तकनीक मौलिक चिंतन की जगह नहीं ले सकती है। वह एक कैल्कुलेटर की तरह गणनाएं कर सकती है, खुद में दर्ज डाटा की स्मृतियों के बल पर एक सवाल के कई जवाब दे सकती है, उनमें हर बार कोई नयापन ला सकती है, लेकिन जब बात किसी नई स्थिति में मौलिक उपाय सुझाने की आती है, तो मामला फंस जाता है।
करीब पौने तीन साल पहले 30 नवंबर, 2022 को जब ओपन एआई नामक कंपनी ने कृत्रिम बुद्धिमता यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, एआई संचालित पहला भाषाई चैटबॉट-चैटजीपीटी लॉन्च किया था, तो सनसनी फैलाने वाले इस आविष्कार को लेकर सबसे तीखी प्रतिक्रियाएं शिक्षा जगत से ही मिली थीं। पदार्पण के पांच दिनों के अंदर दुनिया भर में चैटजीपीटी के दस लाख लोगों के ग्राहक बनने के बावजूद शुरुआती दिनों में ही अमेरिका में कुछ विश्वविद्यालयों में चैटजीपीटी के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गयी थी। न्यूयॉर्क और सिएटल स्थित विश्वविद्यालयों-कॉलेजों के प्रशासन ने सुनिश्चित किया था कि उनके छात्र कैंपस में मौजूद रहने के दौरान अपने स्मार्टफोन और लैपटॉप तथा सर्वर से जुड़े कंप्यूटरों पर चैटजीपीटी नहीं खोल पाएं। अभी इस चर्चा का महत्व यह है कि चैटजीपीटी को वजूद में लाने वाली कंपनी- ओपनएआई के संस्थापक और सीईओ सैम ऑल्टमैन ने दावा किया है कि जिस तेजी से एआई तकनीक दुनिया में पांव पसार रही है, उन्हें नहीं लगता कि उनका बेटा आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाएगा।
वैसे तो भारत से ज्यादा ऑल्टमैन का बयान अमेरिकी-यूरोपीय विश्वविद्यालयों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि उच्च स्तरीय शिक्षा मानकों वाली पढ़ाई के बल पर वे दुनिया भर के छात्रों के आकर्षण के केंद्र में रहे हैं। दूसरी बार सत्ता में आए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रवासियों के मुद्दे और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में वैचारिक स्वतंत्रता को लेकर जिस तरह की भिड़ंत के मूड में हैं, अगर उसे दरकिनार रख दें तो इन मुल्कों के आला दर्जे के विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा अभी तक तो बची रही है। लेकिन एआई के तरह-तरह के मॉडल बनाने वाली कंपनियां जिस तेजी से शिक्षा के लिए चुनौतियां पेश कर रही हैं, उससे ऑल्टमैन द्वारा खड़ी की गई यह चेतावनीपूर्ण आशंका अपनी जगह सही लगती है कि पारंपरिक शिक्षा का भविष्य सच में खतरे में है।
अध्यापकों के लिए चुनौती यह है कि कैसे वे अपने छात्रों को एआई के इस्तेमाल से रोकें। स्कूल-कॉलेज के सामान्य पाठ्यक्रमों में ही नहीं, पीएचडी के लिए शोधकार्य कर रहे छात्र तक धड़ल्ले से एआई की मदद अपने शोधपत्र आदि में ले रहे हैं। ऐसा एक चर्चित मामला अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय का है, जहां पीएचडी के एक छात्र को परीक्षा में एआई के इस्तेमाल का दोषी पाते हुए निष्कासित कर दिया गया था। शोधकार्यों की जटिलता, पवित्रता और महत्ता के मद्देनजर इस कार्रवाई को उचित ठहराया जा सकता है, हालांकि छात्र ने एआई संबंधी जांच में अनियमितता का आरोप लगाते हुए विश्वविद्यालय पर उचित प्रक्रिया नहीं अपनाने और प्रोफेसर के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया था। इससे उलट एक मामला नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी का है, जहां एक वरिष्ठ छात्रा ने अपने प्रोफेसर के खिलाफ यह शिकायत दर्ज कराई कि पढ़ाने के लिए उन्होंने जिस सामग्री का इस्तेमाल किया, वह हूबहू एआई टूल्स से तैयार की गई थी। छात्रा ने इस आधार पर अपनी ट्यूशन फीस वापसी की मांग की। प्रोफेसर ने कई एआई के इस्तेमाल की बात स्वीकार की और पारदर्शिता की जरूरत को माना।
इन घटनाओं की रोशनी में देखें, तो ऑल्टमैन जिस चुनौती और आशंका की बात कह रहे हैं, वह अपनी जगह सही लगती है। इसका अहसास होता है कि जिस तरह से और जिस तरह की शिक्षा ऊंचे से ऊंचे विश्वविद्यालयों में दी जा रही है, अगर उसका ढर्रा नहीं बदला गया, तो छात्र अगले पांच-सात वर्षों में एआई गुरु के पांव लगते ही नजर आएंगे। इसलिए पारंपरिक शिक्षा के केंद्रों और मॉडल को बचाना है, तो जिस युद्ध स्तर पर एआई उसे खत्म करने पर तुला है, उससे कई गुना ज्यादा ताकत से उसे बचाने की जंग छेड़नी होगी।
प्रश्न है कि फिर ऐसा क्या करना होगा, जिससे उच्च शिक्षा की नैतिकता, पवित्रता और अक्षुण्णता कायम रह सके। हमें ठहरकर सोचना होगा कि आखिर उच्च शिक्षा मूल स्वरूप में अपने छात्रों को क्या देती है। आज जिस तरह का शिक्षा का मॉडल हमारे देश में अपनाया जा रहा है, उसमें उच्च शिक्षा का मतलब रैंकिंग और तरह-तरह के सितारे लगाने वाली शोध प्रणाली को अपनाने पर जोर है, वह कागजों पर आला दर्जे की लगती है। ऐसे नियमों-मानदंडों का पालन करने वाले शिक्षण संस्थान बड़े जोरशोर से अपनी रैंकिंग का ढिंढोरा पीटते हैं। इसके बल पर वे पैसा फूंकने वाले छात्रों को अपनी ओर खींचने में कामयाब भी होते हैं। लेकिन इन्हीं शिक्षण संस्थानों के छात्र न तो रोजगार बाजार में अपनी योग्यता साबित कर पाते हैं और न ही उनके शोध इंडस्ट्री में किसी काम के माने जाते हैं। अगर ये शिक्षण संस्थान इतने ही काबिल होते, तो इन्हें खुद से पूछना चाहिए कि क्यों नहीं इनके छात्र आज तक गूगल, ट्विटर, टिकटॉक, डीपसीक या चैटजीपीटी जैसा कोई म़ॉडल बना पाए। क्यों नहीं आईफोन भारत में बना, क्यों नहीं ऐसी सौर ऊर्जा तकनीक हमारे देश में विकसित हुई कि दुनिया उसकी मुरीद हो जाती। नकल करना एक बात है, मौलिक चिंतन (क्रिटिकल थिंकिंग) से कोई आविष्कार करना दूसरी बात है। समस्या यह है कि आज अगर कोई शिक्षक भी शोध का मौलिक प्रस्ताव या विचार लेकर अपने संस्थान की शोध-प्रबंधन इकाई के पास सीड-ग्रांट आदि के लिए जाता है, तो उसे यह कहकर दुत्कार दिया जाता है कि ऐसा तो अमेरिका में नहीं हुआ, आप यह प्रस्ताव नाहक ही हमारे पास लेकर आ गए। मौलिक चिंतन और मौलिक शोध को लेकर कायम इसी नकारात्मक सोच का नतीजा है कि हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालय सिर्फ डिग्री देने की जगहों में तब्दील हो गए हैं।
ध्यान रखिए कि एआई तकनीक मौलिक चिंतन की जगह नहीं ले सकती है। वह एक कैल्कुलेटर की तरह गणनाएं कर सकती है, खुद में दर्ज डाटा की स्मृतियों के बल पर एक सवाल के कई जवाब दे सकती है, उनमें हर बार कोई नयापन ला सकती है, लेकिन जब बात किसी नई स्थिति में मौलिक उपाय सुझाने की आती है, तो मामला फंस जाता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि चैटजीपीटी जैसे लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स के पास इतिहास संबंधी काफी डाटा होता है, लेकिन वे इतिहास और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सही तरीके से नहीं समझते हैं। ऐसे में या तो वे सवाल की भाषा और उपलब्ध डाटा के आधार पर ऐसा करीबी जवाब देने की कोशिश करते हैं जो आप सुनना चाहते हैं। इन मॉडल्स से किसी मौलिक उत्तर की उम्मीद बेमानी है।
समझना होगा कि एआई टूल्स अपने लिखे लेखों-निबंधों को भी नहीं समझते हैं। उन्हें उनमें पेश भाषाओं-शब्दों के वास्तविक अर्थ नहीं मालूम हैं। वे तो महज उन तथ्यों और भाषाओं को उस व्यवस्थित क्रम में ही पेश करते हैं, जिनका डाटा उन्हें उपलब्ध कराया गया है। उनसे मिली सामग्री की भाषा एक विशेषज्ञ द्वारा लिखी सामग्री जैसी हो सकती है, लेकिन वह तथ्यात्मक रूप से गलत हो सकती है। उनका संपादन अकादमिक स्तर का नहीं होगा। उनमें समीक्षा (रिव्यू) और संपादन की ऐसी त्रुटियां होंगी, जो प्रायः इंसान नहीं करते हैं। चूंकि एआई से तैयार सामग्री में तथ्यों को महज प्रोसेस करके पेश किया जाता है, इसलिए वह सामग्री न तो ज्ञान में इजाफा करेगी और न ही मौलिकता हासिल करने का अवसर देगी। इन दायरों को समझकर यदि एआई की मदद ली जाती है, वह कुछ अर्थों में सार्थक कही जा सकती है। इसलिए अगर पारंपरिक उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थानों को बचाना है तो मौलिक चिंतन (क्रिटिकल थिंकिंग) की इसी परंपरा को बचाने की जरूरत है।
लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।