दिवाली न केवल रोशनी का पर्व है, बल्कि सामाजिक समरसता, साझा श्रम और वंचितों के साथ खुशियां बांटने का वह अवसर है, जो हमारे उत्सवों को अर्थ देता है।
जन्माष्टमी के बाद देश में पर्वों की जो शृंखला शुरू होती है, वह भारतीय जनमानस में नए उत्साह व ऊर्जा का संचार करने लगती है। मानसूनी मौसम में जो उदासीनता, शिथिलता तन-मन पर हावी होती है, उससे लोग उबरने लगते हैं। वैसे अब तो मानसून डराने भी लगा है। अतिवृष्टि व बादल फटने की घटनाएं मानसूनी फुहारों के बीच अब भय की प्रतीक बनने लगी हैं। वर्षा ऋतु में वातावरण में एक उदासीनता–एकरसता पैदा होती है। पर्व शृंखला उस उदासी व एकरसता को तोड़ती है।
पितरों के स्मरण के श्राद्ध के बाद जब रामलीलाओं का आयोजन होने लगता है, तो देश का वातावरण बदलने लगता है। सुहानी ठंड की दस्तक के बीच वातावरण में नई ऊर्जा का संचार होने लगता है। साथ ही नवरात्र समाज में व्रत-संकल्प के ज़रिए जीवन में एक नई उल्लास की लहर ले आते हैं। आज़ादी के आंदोलन में भारतीय समाज को एकता के सूत्र में पिरोने वाला गणेश उत्सव आज भी समाज को जोड़ता है। फिर दशहरा उद्घोष करता है कि दिवाली में कुछ दिन बाकी हैं। पश्चिम बंगाल में विशिष्ट और शेष देश में फिर दुर्गा पूजा की धूम होती है।
नवरात्र बेटियों के सम्मान का पर्व तो करवाचौथ भारतीय पारिवारिक संस्था में त्याग, समर्पण और रिश्तों में मिठास के उत्सव में बदल जाता है। भले ही सोशल मीडिया के दौर में करवाचौथ को लेकर तरह-तरह के मीम बनते हैं, लेकिन पतियों के लंबे, सुखी जीवन के लिए रखा गया निर्जल व्रत निश्चित ही भारतीय पारिवारिक संस्था की खूबसूरती है।
फिर पांच पर्वों की शृंखला में दिवाली की दस्तक जैसे पूरे भारतीय समाज को आलोड़ित कर देती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में एक धनात्मक तूफान जैसा उठता है। इस बार धनतेरस पर एक लाख करोड़ रुपये की ख़रीदारी इसका जीवंत उदाहरण है। हर भारतीय इस पर्व के आगमन की तैयारी में जुटता है। कुम्हार से लेकर पटाखे वाले, खील-पताशे वाले तक, इस पर्व में साल भर की कमाई की उम्मीद करते हैं। दिया-बाती, मोमबत्ती, अगरबत्ती, पटाखे, खील-बतासे, मूर्तियां, मिठाई बनाने वाले महीनों की तैयारी के बाद इस त्योहार को साल भर की कमाई के स्रोत के रूप में देखते हैं।
यह तबका, जो बूंद-बूंद से घड़ा भरने के विश्वास से अपनी जीविका का उपार्जन करता है, बहुत कम लाभ के साथ हाड़तोड़ मेहनत करता है। देश का बड़ा तबका इस श्रमसाध्य कार्य में लगा होता है, वह भी श्रद्धा और विश्वास से। जिसमें हिंदू ही नहीं, बड़ी संख्या में मुस्लिम भी इस काम में लगे रहते हैं। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की एक अनूठी मिसाल जीवंत हो उठती है।
दिवाली के बाजार में अब ऐसे मुनाफाखोरों की भरमार है, जो श्रमप्रधान समाज की भावना से खिलवाड़ कर रहे हैं। वे लुभावनी स्कीमों, छूट और प्रलोभनों से उपभोक्ताओं को भ्रमित करते हैं। रातों-रात अमीर बनने की लालसा में यह वर्ग जीवन-मूल्यों की अनदेखी करता है। ऑनलाइन जुए से लेकर रियल एस्टेट तक, हर क्षेत्र में उनका वर्चस्व बढ़ा है और लालच की यह प्रवृत्ति लगातार गहराती जा रही है।
पर्व का मर्म है कि हर घर तक उजाला पहुंचे—उस गरीब की देहरी तक भी, जिसके दरवाजे पर उजाले ने अभी तक दस्तक नहीं दी। इस पर्व में हम यह नहीं देखते कि सिर्फ हमारे घर में ही उजाला हो, पड़ोसी के अंधेरे की भी हमें फिक्र होनी चाहिए। सही मायनों में हमारे पर्व समाज में एक सेफ्टी वॉल का काम करते हैं। हमारी तनावभरी व भागमभाग की जीवनशैली में इतनी स्पर्धा व तनाव है कि हम सहज जीवन जीते हुए तनावमुक्त ही नहीं हो पाते। उजाले का पर्व दिवाली हमसे कहता है कि हम वंचित समाज के जीवन में अंधेरे को दूर करें। ऐसे लोग, जो जीवन के उजाले से वंचित हैं, उनकी मदद करें। सही मायनों में देने का सुख, लेने के सुख से बड़ा होना चाहिए। हम उन लोगों की मदद करें जो उजाले के संघर्ष में पिछड़ गए हैं।
दरअसल, कोई व्यक्ति खुद गरीब नहीं होना चाहता। उसके जीवन की परिस्थितियां उसे गरीब बनाती हैं। इसमें प्राकृतिक आपदाएं बड़ी भूमिका निभाती हैं। हाल के मानसून में आई बाढ़ और भूस्खलन ने लाखों लोगों के घर-बार बहाकर उन्हें बेघर कर दिया। किसी परिवार में कमाने वाले सदस्य के चले जाने से पूरा परिवार गरीबी की दलदल में चला जाता है। पर्व-त्योहार कहते हैं कि हम ज़मीन से उखड़े लोगों के जीवन का अंधकार दूर करें। उनके साथ मिलकर त्योहार मना कर पर्व को सार्थक करें।
हम अजीब मनःस्थिति में जीते हैं। हम सब्जी वाले, रिक्शा वाले और दिवाली के छोटे-छोटे सामान, यहां तक कि दीये बेचने वाले के साथ कीमत को लेकर भाव-तौल करते रहते हैं। यह नहीं सोचते कि उसके सामान बेचने में मुनाफे का मार्जिन कितना कम है, कैसे वह अपना व परिवार का खर्चा चला रहा है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि उसे उम्मीदों से अधिक दाम देकर चीज़ खरीदें, ताकि वह अपना त्योहार खुशी-खुशी मना सके। यदि हम एक भी व्यक्ति का त्योहार खुशमय बना सकें, तो हमारा त्योहार मनाना सार्थक हो सकता है।