अशोक ‘प्रवृद्ध’
होली का पर्व वास्तव में वैदिक यज्ञ है, परन्तु आज इसका वैदिक स्वरूप खो गया है और अब यह सिर्फ हास-परिहास, ठिठोली, चुहलबाजी, छेड़छाड़, मौजमस्ती और मिलने-जुलने का प्रतीक लोकप्रिय पर्व बनकर रहा गया है। वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि इस महापर्व के मूल में वैदिक सोमयज्ञ, नवानेष्टि यज्ञ का ही स्वरूप निहित है। वैदिक यज्ञों में सोम यज्ञ सर्वोपरि है, और प्राचीन काल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़ कर उससे संपन्न किये जाने वाले यज्ञ को सोमयज्ञ कहा जाता था।
ऋतुओं के संधिकाल में होने वाले रोगों के निवारणार्थ भी यज्ञ किये जाने की परिपाटी थी। यह होली भी शिशिर और बसंत (वसंत) ऋतु का योग अर्थात् संधिकाल में मनाया जाने पर्व है। होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है। वसंत ऋतु के नवान्न को यज्ञ हवन में आहुति देने के पश्चात ग्रहण करना ही प्राकृतिक पर्व होली का वैदिक विधान है। अधजले अन्न को होलक की संज्ञा प्राप्त है, इसीलिए इस पर्व का नाम होलिकोत्सव पड़ गया। बसंत ऋतु में इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि यज्ञ है। इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। भारतीय कृषि कर्म दो वर्ग, दो भागों- वैशाखी और कार्तिकी में बंटा हुआ है। इसी को क्रमशः वासन्ती और शारदीय अर्थात् रवि (रबी) और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। इस काल तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि नवान्न पक चुके होते हैं। इसीलिए सर्वप्रथम पितरों, देवों को समर्पित किये जाने की परम्परा है : अग्निवै देवानाम मुखं।
अग्नि में भूने हुए अधपके फली युक्त फसल को होलक अर्थात् होला कहा जाता है जैसे हरे चने आदि। रवि की फसल में आने वाले सभी प्रकार के अन्न को होला कहते है। बसंत ऋतु में आई हुई रवि की नवागत फसल को होम अर्थात् हवन में डालकर ग्रहण करने का नाम होली अर्थात् प्राचीन कालीन वासन्तीय नवसस्येष्टि होलकोत्सव है। वसंत ऋतु के नये अन्न अर्थात् अनाजों की आहुति से किया गया यज्ञ ही वासन्ती नव सस्येष्टि है। भाव प्रकाश में कहा गया है : तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।
अर्थात् ―तिनके की अग्नि में भुने हुए फली वाले अन्न को होलक कहते हैं। होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है। चना, मटर, गेहूं, जौ की गिदी अर्थात् खाने योग्य गुद्दे को प्रह्लाद कहते हैं। चनादि का निर्माण करने के कारण होलिका को माता कहते हैं। यदि अनाज की यह ऊपरी परत अर्थात् पर्त पर होलिका न हो तो चना, मटर रूपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूं व जौ को अग्नि में भुनते हैं, तो वह पट पर अर्थात् गेहूं, जौ की ऊपरी खोल अर्थात् परत पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। होलिका रूपी पट पर पर्त के द्वारा स्वयं अपने को आगे प्रस्तुत कर प्रह्लाद अर्थात् चना-मटर आदि को बचा लिए जाने पर प्रसन्नतापूर्वक जय घोष करते हुए होलिका माता की जय कहकर जयकारा लगाये जाने की परिपाटी है। वर्तमान का होलिकोत्सव भी इसी परम्परा का संवाहक है।
होली में जलाई जाने वाली आग यज्ञ वेदी में निहित अग्नि का प्रतीक होने के कारण वेदी के समक्ष एक गुलर की टहनी गाड़ी जाती थी, क्योंकि गुलर का फल गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। लेकिन कालान्तर में गुलर के स्थान पर एरण्ड आदि अन्य वृक्षों की टहनियां काम में ली जाने लगीं, यज्ञ वेदी में गूलर आदि पेड़ के टहनी के नीचे बैठकर वेद पढ़ने वाले वेद के मन्त्रों का पाठ किया करते थे, जल से भरे कलश लिये हुए स्त्रियां नृत्य करती थीं, सभी कोण में दुंदुभि, नगाड़े भी बजाए जाते थे, स्त्री-पुरुष मिलकर वाद्य यंत्रों को बजाकर मनोरंजन किया करते थे। घरों में स्त्रियां मिष्टान्न व पकवान बनाती थीं। कालान्तर मुख्य रूप से एक वैदिक यज्ञ के रूप में आरंभ हुआ होली अर्थात् वासंतीय नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व शिव-कामदेव-रति, ढूंढिका, होलिका-भक्त प्रह्लाद आदि आख्यानों के साथ जुड़कर मदनोत्सव अथवा बसंतोत्सव नाम का समावेश इसी में हो गया। आज भी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन तक मनाई जाने वाली होलाष्टक में भारत के कई स्थानों में होलाष्टक शुरू होने के दिन या फिर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ही सायंकाल में पेड़ की शाखा गाड़ने की प्रथा जारी है। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं। ऐसी ही स्थिति अक्षत अर्थात् अखत तथा आहुति अर्थात् आखत के परम्परा का भी है। होली पूजन में अक्षत अर्थात् अखत डालने की परम्परा है। अक्षत सोम, अर्जुन, सूखे मेवे, नवान्न आदि के अभाव अर्थात् इनमें से कुछ न मिलने की स्थिति में चावल की आहुति देने का प्रचलन हुआ। यह आहुति और फिर परिक्रमा सब कुछ यज्ञ की प्रक्रिया है।
स्पष्ट है कि यह पर्व शुद्ध रूप से प्राकृतिक पर्व है, ऐतिहासिक नहीं है, परन्तु वैदिक सत्य ज्ञान से दूर होने के कारण कालान्तर में प्राचीनकालीन होला वर्तमान का होली बन गया है। प्रह्लाद-होलिका से सम्बन्धित पौराणिक कथा भी आलंकारिक कथा है। इस शिक्षाप्रद कथा का अभिप्राय यह है कि माया जाल में फंसे रहने वाले व्यक्ति का नाम हिरण्यकशिपु है निरूक्त में कहा गया है : हिरण्यमेव पश्यति हिरण्यकशिपु।
निरुक्त के अनुसार आदि और अंत के अक्षरों का विपर्यय होकर पश्यक का कश्यप बन जाता है। ऐसे मदांध लोगों का अंत में बुरी तरह से नाश होता है। दूसरी ओर परमात्मा की भक्ति में सदा लीन रहने के कारण जिसको आनंद लाभ होता है, उसे प्रह्लाद कहते हैं। सभी को अपने चित को निर्मल बनाकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए। वहीं होली के द्वितीय दिन की रंग-गुलाल खेलने की प्रथा भी एक प्राकृतिकोत्सव ही है।