लेकिन इधर डोनाल्ड ट्रंप तो पूरी दुनिया को अपने जूते की नोक पर रखे हुए हैं, वैसे ही जैसे कहते हैं न कि – दुनिया मेरे ठेंगे पर।
वैसे तो जी, उछलता तो दिल ही है और कई बार तो बिल्कुल बच्चे की तरह उछलता है। लेकिन वह बैठता भी है। पर बैठता है तो फिर वह डर से ही बैठता है। लेकिन उछलता वह खुशी से है और कई बार तो बल्लियों उछलता है। हालांकि उसका मूल काम धड़कना है। लेकिन धड़कने के साथ वह उछलने, खुश होने, उदास होने जैसे दूसरे काम भी कर लेता है और कई बार तो वह टूट भी जाता है। और टूटता है तो ऐसा टूटता है कि रोने लगता है और टुकड़े-टुकड़े होकर हज़ारों किरचों में बिखर जाता है।
पर जूते का काम तो उछलना नहीं है जनाब। उसके उछलने का मतलब होता है – मियां की जूती, मियां के सिर। वह उछलता है तो फिर कई बार वह गले में माला की तरह भी झूलने लगता है। आदमी जूता पहनकर तो उछल सकता है, लेकिन जूते का काम यह नहीं है कि वह स्वतंत्र रूप से उछल जाए। वो कोई हरियाणवी गाना नहीं है कि–मैं तेरी नचाई, नाचूं सूं। कुछ-कुछ उसी तरह जूता भी दूसरों के उछाले ही उछलता है।
समस्या यह है कि इधर वह फिर उछलने लगा है। वैसे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जूते के उछलने की शुरुआत तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से हुई थी, जब खाड़ी वालों ने उन पर जूता उछाला था। लेकिन इधर डोनाल्ड ट्रंप तो पूरी दुनिया को अपने जूते की नोक पर रखे हुए हैं, वैसे ही जैसे कहते हैं न कि– दुनिया मेरे ठेंगे पर।
लेकिन जूता अब अपने यहां फिर उछलने लगा। पहले उसके उछलने के दो निष्कर्ष सामने आए थे। जब वह कांग्रेसी नेताओं पर उछला तो निष्कर्ष निकला कि उनकी सत्ता जा रही है, और जब वह आप वालों पर उछला तो निष्कर्ष निकला कि उनकी सत्ता आ रही है। मतलब, जूते के उछलने के भी अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। लेकिन इधर तो बहुत दिन से जूता उछला ही नहीं था। कांग्रेसियों की वह हैसियत नहीं रह गई कि कोई उन पर जूता उछाले और भाजपाइयों पर जूता उछालने की हिम्मत कर कौन सकता है।
लेकिन इधर तो आपवालों पर भी जूता नहीं उछला। न केजरीवाल जी पर स्याही उछली, न जूता उछला। उसका परिणाम यह सामने आया कि दिल्ली से उनकी सत्ता चली गई। निष्कर्ष यह कि आपवालों पर जूता उछलना शुभ होता है और न उछलना अशुभ।
लेकिन बात सिर्फ आप या केजरीवाल जी की नहीं है। इधर तो जूता किसी पर भी नहीं उछला। वर्षों के आराम के बाद अब जाकर वह फिर उछला है और सीधा न्याय के शीर्ष पर उछला है। इसका एक अर्थ तो यही है कि मुल्क शायद संविधान पर चलने पर अड़ गया है। लेकिन इसका दूसरा अर्थ कहीं यह न निकल जाए कि – दुनिया मेरे जूते की नोक पर।