हैवी लिफ्ट अंतरिक्ष प्रक्षेपण के दरवाज़े खुले
अब इसरो के आगामी कार्यक्रमों में मार्च, 2026 तक सात अंतरिक्ष मिशनों को पूरा करने की योजना है, जिसमें गगनयान कार्यक्रम के तहत पहला मानव रहित परीक्षण शामिल है। इसके अलावा, इसरो 2040 तक चंद्रयान मिशन को पूरा करने, भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन बनाने और भविष्य के लिए डॉकिंग जैसी महत्वपूर्ण तकनीकों को विकसित करने पर काम कर ही रहा है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 2 नवंबर को, भारतीय नौसेना के लिए जीसैट-7आर का प्रक्षेपण करके अपनी दक्षता को एक बार फिर से साबित किया है। दक्षता इसलिए क्योंकि देश के सबसे शक्तिशाली रॉकेट लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (एलवीएम-3) का इसमें इस्तेमाल हुआ था, जिसकी भार वहन क्षमता मोटे तौर पर 4000 किलोग्राम की थी, पर उसने जिस उपग्रह का प्रक्षेपण किया, उसका भार 4,410 किलोग्राम था। भारतीय धरती से प्रक्षेपित यह अब तक का सबसे भारी संचार उपग्रह है।
सीएमएस-03 (जीसैट-7आर) सैन्य संचार उपग्रह है, जिसका वित्तपोषण पूरी तरह से रक्षा मंत्रालय ने किया है। इसे हिंद महासागर क्षेत्र में सुरक्षित, मल्टी-बैंड संचार लिंक प्रदान करने के लिए भारतीय नौसेना के उपयोग के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किया गया है। यह उपग्रह पोतों, पनडुब्बियों और विमानों के बीच आवाज, डेटा और वीडियो लिंक के लिए संचार नेटवर्क का काम करेगा। मुख्य मिशन के रूप में इसका काम समुद्री सुरक्षा और निगरानी है। यह पुराने जीसैट-7 (रुक्मिणी) की जगह लेगा, जो 2013 से सेवा में है। जीसैट-7 और जीसैट-7ए देश के समर्पित सैन्य संचार उपग्रह हैं। दिसंबर 2018 में प्रक्षेपित जीसैट-7ए, मुख्यतः वायुसेना के लिए डिज़ाइन किया गया है। थलसेना आंशिक रूप से इसकी लगभग 30 प्रतिशत क्षमता का उपयोग करती है।
हमारे संचार उपग्रह अपेक्षाकृत भारी होते हैं। इसरो की कोशिश होती है कि एक ही उपग्रह में व्यापक कवरेज, उच्च शक्ति और लंबी सेवा अवधि का मेल हो। पूरे देश और आसपास के समुद्रों की कवरेज के लिए, संचार पेलोड को कई आवृत्ति बैंडों में कई चैनलों की आवश्यकता होती है। इसके लिए कई बड़े एंटेना, उच्च-शक्ति एम्प्लीफायर, वेवगाइड, फ़िल्टर, स्विच कई एनालॉग ट्रांसपोंडरों या लचीले डिजिटल प्रोसेसर की आवश्यकता होती है। करीब 12 से 15 साल तक कई किलोवाट बिजली की आपूर्ति के लिए, उपग्रहों में बड़े सौर पैनल, पर्याप्त बड़ी बैटरियां और पावर कंडीशनिंग इकाइयां होती हैं। इस वजह से वजन बढ़ता है।
चार हजार किलोग्राम से अधिक वज़न वाला जीसैट-7आर इसरो का यह पहला उपग्रह है, जिसे देश की धरती से दूरस्थ भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा में स्थापित किया गया है। इस प्रक्षेपण ने उस बाधा को तोड़ा, जो अपने प्रक्षेपकों की मदद से भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण से हमें रोकती थी।
पिछले साल 19 नवंबर को एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स के फैल्कन-9 रॉकेट का उपयोग करके इसरो ने जब जीसैट-एन2 या जीसैट-20 का प्रक्षेपण किया, तब उस बाधा का उल्लेख भारतीय मीडिया में हुआ था। भारत ने हालांकि 430 से अधिक विदेशी उपग्रहों को लॉन्च किया है, लेकिन जीसैट-20 इतना भारी था कि भारतीय प्रक्षेपण यान इसे अंतरिक्ष में ले जाने में असमर्थ थे। इस कारण इसरो को स्पेसएक्स के साथ साझेदारी करनी पड़ी। हमारे पास 4700 किलोग्राम के उस उपग्रह के प्रक्षेपण लायक रॉकेट नहीं है।
स्पेसएक्स का फैल्कन-9 रॉकेट 8,300 किलोग्राम तक के पेलोड को संभाल सकता है। भारत का रॉकेट ‘द बाहुबली’ या एलएमवी-3 अधिकतम 4000 से 4100 किलोग्राम तक के वजन को जियोस्टेशनरी ट्रांसफर ऑर्बिट (जीटीओ) तक ले जा सकता है। बहरहाल यह उपलब्धि ज़रूर है कि हमने 4000 किलोग्राम वजन की क्षमता वाले रॉकेट से 4410 किलोग्राम के उपग्रह का प्रक्षेपण करने में सफलता हासिल कर ली। ऐसा करने के लिए रॉकेट के इंजन में कुछ परिवर्तन किए गए और उपग्रह को अपेक्षाकृत निचली कक्षा में स्थापित किया गया, जहां से वह अपने थ्रस्ट इंजन की सहायता से निर्धारित भूस्थिर कक्षा में चला जाएगा।
इसरो को भारी प्रक्षेपण-यान (एचएलवी) विकसित करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जो वैश्विक अंतरिक्ष बाजार में इसकी क्षमताओं को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। इसरो को संसाधनों और उन्नत इंजन प्रौद्योगिकी, दोनों की ज़रूरत है। इसरो ने सेमी-क्रायोजेनिक इंजन पर पूरी तरह से महारत हासिल नहीं की है, जो भारी-भरकम क्षमता के लिए आवश्यक है। हमारा एलएमवी-3, भारी वाहनों के अंतरराष्ट्रीय मानकों से कम है और इसकी पेलोड क्षमता चीन के लॉन्ग मार्च-5 जैसे तुलनीय रॉकेटों की एक तिहाई से भी कम है। इसरो को उच्च-थ्रस्ट वेरिएंट और उन्नत इंजन की ज़रूरत है।
इसरो का ऐतिहासिक दृष्टिकोण धीमी गति से विकास करने का रहा है, पर अब व्यावसायिक कारणों से परिस्थिति बदली है। नए रॉकेटों के लिए विकास में आमतौर पर दस साल से अधिक का समय लगता है और पर्याप्त निवेश की आवश्यकता भी होती है। इसके लिए घरेलू मांग भी अपर्याप्त है। बहरहाल, इसरो ने नेक्स्ट जनरेशन लॉन्च व्हीकल (एनजीएलवी) पर काम शुरू कर दिया है, जिसे ‘प्रोजेक्ट सूर्य’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके विकास के लिए पिछले साल कैबिनेट ने 8,239 करोड़ रुपये के बजट के साथ स्वीकृति दे दी थी। इसे 10 से 24 टन तक के पेलोड को जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट (जीटीओ) तक पहुंचाकर अपनी भारी-भरकम क्षमता को बढ़ाना है। लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) तक यह 30 टन तक का भार ले जा सकेगा।
यह कदम भारतीय स्पेस स्टेशन की स्थापना और संचालन करने और 2040 तक चालक दल के साथ चंद्र लैंडिंग को पूरा करने की भारत की महत्वाकांक्षा को भी पूरा करेगा। एनजीएलवी कार्यक्रम को कुल मिलाकर 96 महीनों (8 वर्ष) में लागू किया जाएगा। इसमें कार्यक्रम प्रशासन, सुविधा स्थापना और तीन विकासात्मक उड़ानों (डी 1, डी 2 और डी 3) के लिए वित्तपोषण शामिल है। इसकी पहली विकास उड़ान 2031 के लिए निर्धारित की गई है।
पहला व्यावहारिक प्रक्षेपण 2034-2035 के आसपास संभवतः भारतीय स्पेस स्टेशन को लॉन्च करने के लिए किया जाएगा और उसके बाद 2040 के मानवयुक्त चंद्र-अभियान के लिए भी। शुरुआत में, इसका उपयोग कक्षा में सामग्री भेजने के लिए किया जाएगा। एक बार जब इंजन मानव-रेटिंग प्रमाणन पास कर लेगा, तब भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों की चंद्रमा-यात्रा में इसका इस्तेमाल होगा। इसका मतलब है कि हमें स्वदेशी भारी और उन्नत प्रक्षेपण क्षमताओं के लिए इंतजार करना होगा।
भारत की ज़रूरत केवल भारी प्रक्षेपण वाहन की ही नहीं है, बल्कि हल्के वाहनों का बाजार भी तेजी से बढ़ रहा है। भारत ने हाल के वर्षों में हल्के उपग्रहों का प्रक्षेपण काफी संख्या में किया है। इस सिलसिले में पिछले साल 16 अगस्त को स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (एसएसएलवी-डी3) के सफल प्रक्षेपण के साथ महत्वपूर्ण छलांग लगाई थी। इस प्रकार एसएसएलवी का विकासात्मक चरण पूरा हो गया है। एसएसएलवी को 500 किलोग्राम तक के लघु, सूक्ष्म और नैनो उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए एक किफायती समाधान के रूप में डिज़ाइन किया गया है। इसके सफल विकास से वैश्विक लघु उपग्रह प्रक्षेपण बाजार में भारत की उपस्थिति बढ़ेगी।
इस साल जून में इसरो ने, तकनीकी हस्तांतरण समझौते के तहत एसएसएलवी रॉकेट के निर्माण, विपणन और लॉन्च के अधिकार एचएएल को प्रदान कर दिए। अब इसरो लॉन्च के लिए पांच एसएसएलवी रॉकेटों के प्रारंभिक बैच की आपूर्ति के लिए एलएंडटी के साथ साझेदारी में एचएएल को एक अनुबंध देने की योजना बना रहा है। इस तरह से इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश भी होगा, जिससे भारत में स्पेसएक्स जैसी कंपनी के लिए रास्ता खुलेगा।
अब इसरो के आगामी कार्यक्रमों में मार्च, 2026 तक सात अंतरिक्ष मिशनों को पूरा करने की योजना है, जिसमें गगनयान कार्यक्रम के तहत पहला मानव रहित परीक्षण शामिल है। इसके अलावा, इसरो 2040 तक चंद्रयान मिशन को पूरा करने, भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन बनाने और भविष्य के लिए डॉकिंग जैसी महत्वपूर्ण तकनीकों को विकसित करने पर काम कर ही रहा है।
लेखक वरिष्ठ संपादक रहे हैं।
