सीताराम गुप्ता
हम सब जीवन में सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं लेकिन कितने व्यक्ति हैं जो अपने जीवन में अपेक्षित सफलता प्राप्त कर पाते हैं? बहुत कम। वास्तव में अपेक्षित सफलता न मिलने का कारण होता है सफलता के प्रति विश्वास की कमी अथवा सीमित विश्वास। दरअसल, हम अपनी सोच के सकारात्मक परिणाम पर विश्वास ही नहीं कर पाते हैं कि ऐसा संभव हो सकेगा। और यदि हमें कोई सोचने पर विवश कर भी दे तो हमारे विश्वास की एक सीमा अवश्य होती है और किंतु-परंतु जैसे शब्द हमारे मन में आ धमकते हैं और इस प्रकार अविश्वास ही नहीं सीमित विश्वास तथा इनके कारण निरंतर अभ्यास की कमी हमारी सफलता में सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
घुन लगा हुआ भीतर से खोखला बीज हो अथवा आधा कटा हुआ बीज, ये अंकुरित होकर पौधे नहीं बन सकते। ऐसे बीज तो मिट्टी में पड़े-पड़े सड़कर ही समाप्त हो जाते हैं। यदि अच्छे बीज हों लेकिन उनके साथ किंतु-परंतु रूपी खर-पतवार उग आए तो भी ये पौधे को पूरी तरह से पनपने नहीं देते। कई बार पौधे तो होते हैं दो-चार लेकिन खर-पतवार इतना अधिक कि पौधों को जमीन से न तो पोषण ही मिल पाता है और न सूर्य की रोशनी ही। यही हमारे विचारों के साथ होता है। या तो हमारे विचार ही अच्छे नहीं होते और यदि विचार अच्छे हों तो किंतु-परंतु रूपी संशय उन्हें विनष्ट कर डालता है। महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन को यही समझाते हैं कि विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। संशय क्या है? संशय है अधूरा ज्ञान अथवा अज्ञान। हम जिस विषय को बिलकुल नहीं समझते उस विषय में संशय पैदा नहीं होता और जिसको भली-भांति समझते हैं उसमें भी संशय पैदा नहीं होता। संशय पैदा होता है अधूरे ज्ञान से और यही अज्ञान है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है। अधूरे ज्ञान को पूरा मान लेना ही अज्ञान है। किसी विषय की गलत जानकारी अज्ञान है। संशय का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अतः संशय उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है लेकिन संशय को बनाए रखना और उसे दूर करने की चेष्टा न करना हानिकारक है। संशयग्रस्त मनुष्य को न तो आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग में ही कोई लाभ होता है और न ही वह जीवन में भौतिक सफलता ही प्राप्त कर पाता है। ‘जाकी रही भावना जैसी’ इसी सिद्धांत के अनुरूप, अपने विश्वास के अनुरूप ही हम सफलता प्राप्त कर पाते हैं। यही बात बाइबिल में कही गयी है कि आपके विश्वास के अनुसार ही आप कार्य करते हैं।
विलियम जेम्स ने कहा है कि हमारी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां असीमित, अपूर्व तथा अकल्पनीय हैं, जिनका हम प्रयोग ही नहीं करते या सीमित प्रयोग कर सीमित फल पाते हैं। आज हम अस्वस्थ, अशांत, असमृद्ध, असंतुलित अथवा अप्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी चाहे न हों लेकिन अपने सीमित विश्वास अथवा अपने विश्वास की शक्ति का उपयोग न कर पाने के कारण कहीं न कहीं अल्पस्वस्थ, अल्पशांत, अल्पसमृद्ध, अल्पसंतुलित तथा अल्प प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी अवश्य हैं अन्यथा आज हम अपने सर्वांगीण विकास की सीढ़ी के जिस डंडे पर खड़े हैं उससे अगले डंडों पर क्यों नहीं? ये हमारा सीमित विश्वास या विश्वास की कमी ही तो है जिसके कारण हम सबसे पहले पहुंचने पर भी अगली पंक्ति में सर्वोत्तम स्थान पर बैठने की अपेक्षा पीछे की ओर किसी उपेक्षित-सी सीट पर जा बैठते हैं।
संभवतः आपको पता नहीं है कि विश्व की सारी समृद्धि, सारा ऐश्वर्य सिर्फ आपके लिए है। कहने का तात्पर्य यही है कि विश्व की सारी ताकतें आपके कदमों में सर झुकाने को बेताब हैं लेकिन आप हैं कि मन में ख्वाहिश ही पैदा नहीं करते। मन में ख्वाहिश पैदा कीजिए और अपने मन की शक्ति पर पूर्ण विश्वास कीजिए और फिर देखिए सफलता की हर सीढ़ी कैसे आपके लिए छोटी पड़ जाती है।
एक मुकम्मल प्यास एक उत्कट इच्छा तो मन में पैदा कीजिए उसकी पूर्ति का प्रबंध भी अवश्य हो जाएगा। विलियम जेम्स के अनुसार, इस शताब्दी का सबसे बड़ा आविष्कार है कि मनुष्य अपने विचारों को बदल कर जीवन सुखमय एवं सफल बना सकता है। वास्तविकता तो यही है कि मनुष्य को सफल होने के लिए अधिक शारीरिक श्रम करने की आवश्यकता ही नहीं। सकारात्मक विचार जीवन में क्रांति लाने में पूर्णतः सक्षम होते हैं। सफलता के विचार ही उसको दुनिया में सबसे ऊपर ले जा सकते हैं। आवश्यकता है तो बस कुछ करने के विषय में सोचने और उसकी सफलता की कामना करने की। जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचना उतना ही आसान है जितना किसी हिल स्टेशन पर पहुंचना।
बड़े भाग्य की बात है कि हमारी मंजिल हमें पुकार रही है, कहीं बहुत ही नजदीक है लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि हम फिर भी उसकी तलाश नहीं कर रहे हैं। पहले तो कभी मंजिल हमारे इतने पास न थी लेकिन अब तो मंज़िल सामने है उसे छू लीजिए। अपने विचारों की शक्ति को पहचान कर उस पर विश्वास करके अपने जीवन को सफल बना लीजिए।