कसौटी पर हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देश
हरियाणा सरकार द्वारा अधिसूचित हालिया सामुदायिक सेवा दिशा-निर्देश भारतीय न्याय संहिता की धारा 4 (एफ) और संविधान के अनु. 162 के तहत निर्मित बताये गये हैं। लेकिन उक्त केंद्रीय कानूनों में राज्यों को सामुदायिक सेवा दंड संबंधी नियम बनाने की शक्ति प्रदान करने वाला प्रावधान नहीं। उक्त दस्तावेज की कानूनी वैधता पर सवाल स्वाभाविक है।
दिल्ली के बाद, हरियाणा सरकार ने भी 16 अगस्त, 2025 को सामुदायिक सेवा दिशा-निर्देश (एचसीएसजी) अधिसूचित कर दिए हैं। दोनों ही दिशा-निर्देशों के आरम्भिक वाक्य में कहा गया है कि ये दिशा-निर्देश भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) की धारा 4 (एफ) और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 162 के अंतर्गत बनाए गए हैं, जबकि इनमें से कोई भी प्रावधान राज्य सरकार को ऐसे दिशा-निर्देश जारी करने का अधिकार नहीं देता है। भारतीय न्याय संहिता की धारा 4 (एफ) अपराधियों को दी जाने वाली सज़ा के प्रकार उल्लिखित करती है, तथा संविधान के अनुच्छेद 162 में राज्यों की कार्यकारी श्ाक्तियों की सीमा का प्रावधान है।
किसी भी विषय पर नियम अथवा दिशा-निर्देश जारी करने की शक्तियां सम्बन्धित कानून में स्पष्ट रूप से लिखित प्रावधान द्वारा कार्यपालिका को प्रदान की जाती हैं। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) और भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस) दोनों ही केन्द्रीय कानून हैं और राज्य सरकारें सामुदायिक सेवा दंड (सीएसएस) के निष्पादन पर प्रत्यायोजित (डेलिगेटिड) कानून का सहारा उसी परिस्थिति में ले सकती हैं जब इन कानूनों में इसका स्पष्ट प्रावधान हो।
हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देशों को जायज ठहराने के लिए राज्यों को इससे संबंधित नियम बनाने की श्ाक्ति प्रदान करने वाला कोई प्रावधान नहीं है, जिससे पूरी प्रक्रिया बिना कानूनी आधार की गतिविधि मात्र बनकर रह जाती है।
वास्तव में, बीएनएसएस का मसौदा तैयार करते समय विधान मंडल अनभिज्ञता से अध्याय 34 में सीएसएस के निष्पादन से सम्बन्धित उचित प्रावधान जोड़ना भूल गए, जैसा कि पहले से ही मृत्यु दंड, कारावास अथवा जुर्माना लगाने की सज़ा के निष्पादन के लिए किया गया है। यह त्रुटि श्ाायद लापरवाही के कारण हुई क्योंकि सामुदायिक सेवा को बीएनएस में पहली बार दंड की सूची में श्ाामिल किया गया था। परिणामस्वरूप, सीएसएस के निष्पादन पर नियम बनाने की श्ाक्ति भी गैर-निर्देशित रह गई।
आदर्श रूप से, हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देश तैयार करने से पूर्व, राज्य सरकार को केन्द्र सरकार के समक्ष बीएनएसएस में वर्णित धारा 460 के बाद एक नए उप-शीर्षक ‘सामुदायिक सेवा’ के अन्तर्गत एक नई धारा श्ाामिल करने का प्रस्ताव भेजना चाहिए था। ऐसे प्रत्यायोजित श्ाक्तियों के अभाव में, हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देश और दिल्ली के दिशा-निर्देश, राज्य-कार्यपालिका की विधायी अक्षमता का शिकार हैं और दोनों ही दस्तावेज गैर-कानूनी हैं। यह आश्चर्यजनक है कि दिशा-निर्देशों को अधिसूचित करने से पहले इतनी बड़ी गलती कैसे उजागर नहीं हो सकी।
हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देश कई अन्य प्रकार से भी संदिग्ध प्रतीत होते हैं। सबसे पहले, दिशा-निर्देश यह वर्णित करते हैं कि वे उन मामलों पर भी लागू होंगे जहां बाल-न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 (जेजे एक्ट) की धारा 18(1) (सी) के अन्तर्गत बच्चों को सामुदायिक सेवा करने के आदेश पारित किए जाते हैं। चूंकि बाल-अधिनियम महिला और बाल विकास विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए यह उचित नहीं है कि गृह विभाग इसके कार्यान्वयन पर दिशा-निर्देश जारी करे।
दूसरा, उक्त दिशा-निर्देशों के पैरा 7 में अदालतों के लिए एक सुझाव दिया गया है कि सीएसएस आमतौर पर पहली बार अपराध करने वालों को दिया जाना चाहिए, जबकि बीएनएस में, छोटी-मोटी चोरी के मामलों को छोड़कर, ऐसी कोई श्ार्त नहीं रखी गई है। इससे यह प्रासांगिक प्रश्न भी उठता है कि ‘क्या कार्यपालिका दिशा-निर्देशों में ऐसी कोई अतिरिक्त श्ार्तें निर्धारित कर सकती है जो मूल अधिनियम में नहीं हैं’? अथवा ‘क्या कार्यपालिका को यह निर्धारित करने की अनुमति दी जानी चाहिए कि अदालतों को अपनी श्ाक्तियों का प्रयोग कैसे करना चाहिए?’
तीसरा, वयस्क अपराधियों और बाल अपराधियों के लिए सीएसएस पर दिशा-निर्देशों को एक ही दस्तावेज़ में श्ाामिल करना नीति संगत प्रतीत नहीं होता है। किशोरों के लिए सामुदायिक कार्य पर दिशा-निर्देशों को बच्चों और किशोरों से सम्बन्धित श्रम कानूनों के अनुरूप होना चाहिए।
चौथा, सीएसएस एक सज़ा है जो न केवल दोषी के पिछले चारित्रिक रिकॉर्ड पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, बल्कि उसके खिलाफ भविष्य में होने वाली किसी भी आपराधिक कार्यवाही पर भी असर रखती है। इसलिए, दिशा-निर्देशों में सामुदायिक सज़ा के निष्पादन के उचित दस्तावेजीकरण की एक योजना निर्धारित की जानी चाहिए थी।
पांचवां, उपरोक्त दिशा-निर्देश आपराधिक न्याय-शास्त्र के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की अनदेखी करते हैं कि सज़ा देना अदालतों का विशेषाधिकार है, जबकि राज्य को यह निर्धारित करना होता है कि सज़ा का क्रियान्वयन कैसे किया जाएगा। हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देशों के पैरा 6 के अन्तर्गत, सीएसएस के वास्तविक निष्पादन के लिए उपयुक्त पर्यवेक्षी और निगरानी तन्त्र निर्धारित करने का कर्तव्य अदालत पर डाला गया है। कार्यपालिका को ऐसे निर्देश देने से बचना चाहिए। ऐसे निर्देश केवल ‘उच्च न्यायालय के नियम और आदेश’ के अन्तर्गत ही जारी किए जा सकते हैं।
छठा, दिशा-निर्देशों में ‘नामित अधिकारी’, ‘नोडल अधिकारी’ और ‘सक्षम प्राधिकारी’ आदि जैसी श्ाब्दावली का प्रयोग किया गया हैं, जो भारत में सुधारात्मक न्याय-शास्त्र के लिए नई है। चूंकि सामुदायिक सेवा एक मूलभूत सज़ा है, इसलिए इसके निष्पादन के सन्दर्भ में प्रयुक्त श्ाब्दावली अन्य दंडों के समान ही होनी चाहिए। आदर्श रूप से, राज्य को जेल अधीक्षक के अधीन एक सामुदायिक सेवा अधिकारी को नियुक्त करके सामुदायिक सेवा की सज़ा की निगरानी, पर्यवेक्षण और उचित दस्तावेजीकरण सुनिश्चित करना चाहिए। सातवां, हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देश सामुदायिक सेवा के प्रदर्श के प्रमाण के रूप में जियो-टैग की गई तस्वीरें व वीडियो लेने और उन्हें दिन-प्रतिदिन नोडल अधिकारी को अग्रेषित करने की अनुमति देता है। यहां पर यह जानना जरूरी हो जाता है कि दंड प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम 2022 के प्रावधानों के अनुसार ही किसी दोषी की तस्वीरें ली जा सकती हैं, और उन्हें गुप्त रखा जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी दिशा-निर्देश इस विषय पर इस विशेष अधिनियम का उल्लंघन ही है जब तक कि इस कानून में संशोधन करके इसके लिए अलग प्रावधान न कर दिया जाए।
नियमों और दिशा-निर्देशों का प्रभाव कानून के बराबर ही होता है और उन्हें हमेशा कानूनी तरीके से ही बनाया जाना चाहिए, आपराधिक मामलों में तो ऐसा और भी अधिक होना चाहिए, क्योंकि इनका व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। निश्चित रूप से, हरियाणा सामुदायिक सेवा दंड दिशा-निर्देशों को अन्य हितधारकों के साथ बैठकर पुनः कानूनी तरीके से बनाने की जरूरत है ताकि इसे कानून और न्याय के हित में एक वैध दस्तावेज बनाया जा सके।
लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।