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मां का उत्पीड़न... बालमन पर अनकही पीड़ा

घरेलू हिंसा
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मां के साथ होने वाला किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार कोमल बालमन पर जीवन भर के लिए एक अनकही पीड़ा की अमिट छाप छोड़ जाता है। कम उम्र होने पर भी बच्चे सब समझते हैं, बराबर महसूस कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि मां के साथ घरेलू हिंसा के गवाह रहे बच्चे की पढ़ाई और व्यवहार में परिवर्तन साफ देखा जा सकता है।

‘उन्होंने मेरी मां के शरीर पर कुछ डाला, थप्पड़ मारे और लाइटर से आग लगा दी’, ये शब्द हैं छह वर्षीय मासूम के, जिसके दहेज लोभी पिता ने अपनी अर्द्धांगिनी को बर्बरतापूर्वक मौत के हवाले कर डाला। दहेज प्रथा, एक ऐसा विषैला नाग जो कानूनन निषेध होने के बावजूद घरेलू हिंसा बनकर आज भी असंख्य बहन-बेटियों का दांपत्य सुख निगल रहा है। एनसीआरबी के वार्षिक आंकड़े खंगालें तो सामाजिक परंपरा के नाम पर प्रचलित इस कुप्रथा के चलते देश में प्रतिवर्ष हज़ारों बेटियां जान से हाथ धो बैठती हैं।

ऐसी घटनाओं में प्रशासनिक उदासीनता सहित सर्वाधिक दोषी है हमारे समाज का रूढ़िवादी वर्ग, जो ‘रस्मी कर्तव्य निपटान’ के उपरान्त बेटी के सुख-सुरक्षा की सुध लेना भी आवश्यक नहीं समझता। ‘बेटी की डोली पीहर से उठे, अर्थी ससुराल से निकले’, यह संकुचित धारणा बेटी के ससुराल में असुरक्षित होने पर भी बलवती रहती है। साक्षरता का व्यापक प्रसार होने के बावजूद हमारा सामाजिक ढांचा पुरातन घिसी-पिटी मान्यताओं से मुक्त नहीं हो पाया। परिस्थितिजन्य होने पर भी तलाकशुदा स्त्री को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता। इसी कारण मानसिक स्तर पर अधिकतर महिलाएं इतनी सशक्त नहीं बन पातीं कि खुलकर हिंसा का विरोध कर सकें। सामाजिक मर्यादा के नाम पर बेटी का ‘चुप्पी’ साधे रखना अधिकांश पीहर वालों को बेहतर उपाय जान पड़ता है। ऐसा ही रवैया निक्की के मामले में भी नज़र आया।

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उसी परिवार में ब्याही गई बड़ी बहन के साथ ब्यूटी-पार्लर चला रही निक्की सोशल मीडिया पर ख़ासी सक्रिय थी। नौ वर्ष के वैवाहिक जीवन में पति द्वारा प्रताड़ित होने का यह पहला मामला नहीं था। वायरल वीडियो में दस माह पूर्व भी निक्की अपने पति व सास से पिटते हुए माफी की गुहार लगाती दिखाई पड़ी। समय रहते स्वजन संज्ञान लेते तो संभवतः हालात क्रूरतम मोड़ पर न पहुंचते।

दरअसल, हमारे समाज में बहुतेरे लोग महिलाओं के प्रति हिंसा को गंभीरतापूर्वक लेते ही नहीं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में हर तीसरी महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती है। व्यापक नज़रिए से आंकें तो हिंसक व्यवहार समग्र रूप में देश का विकास बाधित कर रहा है।

किसी भी प्रकार के उत्पीड़न का सामना कर रही महिलाओं में डिप्रेशन, चिंता, आघात की समस्या पनपना स्वाभाविक है। तनाव विकार बढ़ने के साथ ही आत्मघात के विचार उत्पन्न होने की आशंका भी कई गुना बढ़ जाती है। पीड़िता यदि गर्भवती हो तो कोख़ में पनपते शिशु के सर्वांगीण विकास पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव देखने में आता है।

शोध पत्रिका प्लॉस वन में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़, हिंसा पीड़ित महिलाओं के बच्चों को कालांतर में अनेक मानसिक स्वास्थ्य समस्यायों से दो-चार होना पड़ता है। सीवीईडीए कंसोर्टियम, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान, बंगलूरू तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा किए गए शोध में भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 2,800 किशोर और उनकी माताओं को शामिल किया गया। किए गए अध्ययनों के तहत, गर्भपात, मृत बच्चे का जन्म, समय पूर्व डिलीवरी आदि के साथ घरेलू हिंसा का गहरा संबंध रहा। जन्म लेने वाले बच्चों में भी भावनात्मक, व्यावहारिक तथा शैक्षणिक दिक्कतें देखने में आईं।

असल में, मां के साथ होने वाला किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार कोमल बालमन पर जीवन भर के लिए एक अनकही पीड़ा की अमिट छाप छोड़ जाता है। कम उम्र होने पर भी बच्चे सब समझते हैं, बराबर महसूस कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि मां के साथ घरेलू हिंसा के गवाह रहे बच्चे की पढ़ाई और व्यवहार में परिवर्तन साफ देखा जा सकता है। किशोरावस्था में सोच, व्यवहार और व्यक्तित्व का विकास होता है। इस दौरान मां के साथ होती हिंसा देखना बच्चों के लिए बेहद हानिकारक हो सकता है। इससे उनके अंदर लंबी बीमारियां, मनोवैज्ञानिक अथवा मानसिक रोग विकसित हो सकते हैं। बावजूद इसके, भारत में आज भी मां के साथ हो रही हिंसा से बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित होने वाली बात को लेकर पर्याप्त जन-जागरूकता नहीं, जबकि यह अध्ययन समूचे तौर पर घरेलू हिंसा की कठोरतापूर्वक रोकथाम करने संबंधी आवश्यकता पर बल देता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार, अनेक मामलों में संयुक्त परिवार में रह रही महिला के प्रति अन्य किसी सदस्य का द्वेष भी अक्सर प्रत्यक्षतः-अप्रत्यक्षतः हिंसा को बढ़ावा देने में कारण बनता है। इसमें पति पर दवाब डालना, भड़काना आदि से लेकर महिला को चुप कराना तक सम्मिलित हो सकता है। जैसे कि ग्रेटर नोएडा के सिरसा गांव में आधी रात को अंजाम दिए गए निक्की भाटी हत्याकांड वीडियो में भी असंवेदनशील मां बहू को बचाने की अपेक्षा हिंसक बेटे का साथ देती नज़र आई। सामाजिक कुप्रथा तथा समाज के स्वार्थी व आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण ने न केवल एक और बेटी का जीवन छीना बल्कि देश का भविष्य कहलाने वाले एक मासूम की मासूमियत भी छीन ली। क्या उसका मन-मस्तिष्क उन लोमहर्षक यादों से निजात पा सकेगा? अपराधी भेड़ियों को हर हाल दंडित करना अनिवार्य है मगर उस समाज का क्या जो कुरीतियां पल्लवित करने में कम दोषी नहीं?

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