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बुद्धिहीन उपभोक्तावाद की आसक्ति से नहीं मिलेगी खुशी

अविजित पाठक हालांकि हम लोग एक भयावह रूप से हिंसाग्रस्त विश्व में जी रहे हैं, वह जिसमें लगातार होने वाले युद्ध, सैन्यीकरण, नए किस्म का अधिनायकवाद, बढ़ती आर्थिक असमानता, पर्यावरण संकट और सामाजिक कारणों से बना मानसिक संताप इसका चरित्र...
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अविजित पाठक

हालांकि हम लोग एक भयावह रूप से हिंसाग्रस्त विश्व में जी रहे हैं, वह जिसमें लगातार होने वाले युद्ध, सैन्यीकरण, नए किस्म का अधिनायकवाद, बढ़ती आर्थिक असमानता, पर्यावरण संकट और सामाजिक कारणों से बना मानसिक संताप इसका चरित्र बन गया है। और मानो इन सबके बीच ‘खुशी’ ढूंढ़ना एक अनन्त खोज बन गई है। आधुनिक काल में, हमें गुणा-भाग वाली सूक्ष्मता से प्यार हो गया कि तुर्रा यह कि खुशी जैसे उच्च गुणवत्तापूर्ण और आत्मनिष्ठ अनुभव को भी हमने नापने-तोलने की चीज़ बना डाला है। हर साल, संयुक्त राष्ट्र सतत विकास उपाय नेटवर्क एक सूची जारी कर, विभिन्न मुल्कों का पदानुक्रम तय करता है जो उसके हिसाब से मापने लायक ‘खुशी सूचकांक’ पर आधारित है– इस निर्धारण में सकल घरेलू उत्पाद, आयु दीर्घता, राजकीय कामकाज दक्षता, स्वतंत्रता, सामाजिक संबल (परोपकारी व्यवहार ) को गिना जाता है। जहां फिनलैंड पिछले सालों की भांति ‘सबसे खुश’ देश है वहीं विश्व खुशी रिपोर्ट-2024 में भारत का स्थान 143 देशों में 126वां है।

खैर, मैं इस किस्म की रिपोर्ट के गुण-दोषों को पूरी तरह खारिज भी नहीं करता। बेशक, एक उचित मात्रा में सामाजिक सुरक्षा, राज्य द्वारा चलाई जाने वाली सामाजिक भलाई नीतियां, अच्छी मेडिकल सुविधाएं, रोजगार उपलब्धता, संवाद की मौजूदगी वाला समाज और राजनीतिक स्वतंत्रता रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ हद तक संतोष पैदा करते हैं। तथापि, यहां यह अहसास भी उतना ही जरूरी है कि ‘शुद्ध खुशी’ जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती, क्योंकि उल्लास के हमारे सबसे बढ़िया लम्हे और संतोष भी कुछ हद तक आशंका से जुड़े होते हैं, मसलन, जो कुछ हमारे पास है उसे खोने का डर, चाहे यह भौतिक संपदा, शरीर की तंदुरुस्ती हो या फिर प्रियजनों का साथ छूटने का भय। ताजिंदगी हम ‘सम्पूर्ण खुशी’ के पीछे भागते रहते हैं, लेकिन फिर भी यह हाथ नहीं आती। कोई हैरानी नहीं कि हमारे इस काल में जीवन जीने का ढंग सिखाने वाले, प्रेरणास्पद भाषणकर्ता और अाध्यात्मिक बाबाओं की कोई कमी नहीं, जो बारम्बार हमें एक खास तकनीक पर चलने की सीख देते हैं, मसलन, समाधि अभ्यास, श्वास साधक व्यायाम, सचेतन होना इत्यादि –’खुश’ व ‘सफल’ होने के मकसद हेतु।

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लेकिन फिर, यह समझना चाहिए कि खुशी की प्राप्ति कैप्सूल खाने जैसा एक त्वरित उपाय नहीं है, जिसकी खुराक किसी स्व-सहायता पुस्तक या आश्रम अथवा मठ के विशेष सत्रों में भाग लेकर मिले। तथ्य तो यह है कि यदि सच में हम एक आडम्बरहीन, शांतिपूर्ण और संतोष से परिपूर्ण दुनिया की ओर बढ़ना चाहते हैं तो हमें स्व और दुनिया अथवा राजनीति और अध्यात्म के बीच पुल बनाना होगा। उदाहरणार्थ, जरा सोच कर देखिए, जो व्यक्ति भूख, कुपोषण और सिर पर छत न होने से बेहाल है उसको संचेतना सिखाने की बेवकूफी ( बुरे अनुभवों से बने संताप या अस्थिर भविष्य की आशंका को नज़रअंदाज कर वर्तमान में जीने की समर्था बनाए)। या फिर उस मानसिक हिंसा के बारे में सोचिए जो एक बेरोजगार युवा के मानस पर चोट करती है, जब नौकरी पाने में कंपनी दर कंपनी से अस्वीकृति झेलनी पड़े, तिस पर आप उसे सबसे अधिक बिकने वाली स्व-सहायता किताब ‘मैं ठीक हूं- आप ठीक हैं’ जैसी कोई पुस्तक पढ़ने को कहें ताकि ‘अच्छा’ और ‘सकारात्मक’ महसूस का भ्रम पाले। यह ठीक उतना ही बेवकूफाना है जब किसी बेघर को या जो पहले से झुग्गी में रह रहा है, उसे न्यूनतम साधनों में जीवन जीने का प्रवचन दिया जाए। राजनीतिक व आर्थिक असमानता की नींव को बदले बिना हम अ गैर-बराबर व शोषण करने वाली दुनिया को बदलकर संतोष की ओर नहीं बढ़ सकते।

इसी प्रकार जैसा कि ‘भारत रोजगार रिपोर्ट 2024’ बताती है कि भारतीय युवाओं में 83 प्रतिशत बेरोजगार हैं या जब ‘द राइज़ ऑफ बिलिनियर्स राज’ नामक शोध-पत्र कहे कि भारत के चोटी के 1 फीसदी अमीरों के हाथ में 40 प्रतिशत आम लोगों के बराबर सरमाया है, तो एक आम भारतीय को महसूस हो रहे संताप, भय और आशंका का अंदाजा लगाना कठिन नहीं। भले ही हमारे पास हज़ारों की संख्या में बाबा, गुरु और स्व-सहायता सिखाने वाले हों, जो मोक्ष प्राप्ति की जुगत के तौर हमें नाना किस्मों की घुट्टी पिलाते हैं, तथापि अलफ सच्चाई है कि हमारा देश नाखुश मुल्क है। संभवतः हमारे समाज में राजनीतिक-आर्थिक पुनर्संरचना किए बिना हम वैसा सामाजिक परिवेश नहीं बना सकते, जो यथेष्ट संतोष से परिपूर्ण लोगों की तरक्की अनुकूल हो।

ऐसा नहीं है कि मुझे अर्थपूर्ण, सतत और करुणामय जीवन के लिए आत्मविश्लेषण या अंदरूनी शांति के महत्व से इंकार है। जहां उचित मात्रा में आर्थिक सुरक्षा और राजनीतिक स्वतंत्रता हमारे रोजमर्रा के जीवन को कुछ आरामदायक बनाती है वहीं हम एक अधिक अर्थपूर्ण और शांतिपूर्ण वजूद की ओर नहीं बढ़ सकते, जिसके बिना मैं जीवन को धर्मनिष्ठ नहीं कह सकता। उदाहरणार्थ, यह धर्मनिष्ठा जीवन जीने के ढंग में, गैर-उपभोक्तावाद अवस्था की कला विकसित करने के बारे में हैं। भोजन, आवास, जीवन-पुष्ट शिक्षा, राजनीतिक स्वतंत्रता और विरक्ति न बनाने वाले काम जैसी मूलभूत जरूरतों को लालच के वायरस के मोहपाश में जा फंसने से अलहदा कर पहचानना होगा– वह लालच जिसका बाजार-चालित समाज ने सामान्यीकरण कर दिया है।

हां, उस समाज में कभी खुशी नहीं हो सकती जो नवउदारवादी बाजार द्वारा उत्पादित नित नए फैशनों या नई वस्तुओं के प्रति बुद्धिहीन उपभोक्तावाद या निरंतर बढ़ती आसक्ति के सिद्धांत को मान्यता दे। लालसा की यह प्रवृत्ति शांति और धीरज को भंग करती है । इसकी बजाय व्यक्ति में ईर्ष्या, अशांति और पीछे छूट जाने का भयंकर डर बनाती है। इसी प्रकार, दूसरों से जुड़े रहने वाले स्व को विकसित करने की कला भी उतनी ही महत्वपूर्ण है– वह स्व जिसे दिखने में साधारण से कामों में भी बहुत आनंद मिलता हो– जैसे कि दोस्तों से बिना स्वार्थ मिलना या पहाड़ी इलाके में सैर और प्रकृति की अनंतता की झलकी का अनुभव करना। यह बेशक साधारण लगे लेकिन फिर भी सर्जनात्मकता के अतिरेक से लबरेज होती है, वह जो हमें निरंतर ललचाने और बहकाने वाली बाजारीकरण संस्कृति से उपजी मिथकीय ‘सफलता’ या ‘अति उत्तम और खुशी’ वाली जिंदगी की मरीचिका से पीछे भागने की लालसा से मुक्त रहने में मददगार होती है।

जीवन की धर्मनिष्ठा को जरूरत है हमारे अस्तित्व में अंतर्निहित उदासी को अंगीकार करने के साहस की। यह ‘सब कुछ हमारे बस में नहीं’ को स्वीकार करने जैसा है। जो कुछ हम थामकर रखना चाहते हैं वह चलायमान और अस्थाई है। बिना पूर्व सूचना घटित अकल्पनीय दुर्घटनाएं और शोकाकुल प्रसंग हमारे अस्तित्व को झिंझोड़ सकते हैं, मौत की सच्चाई से कोई नहीं बच सकता– जो कि हमारे फुलाए अहम की व्यर्थता की अंतिम परिणति है। संभवतः यह अहसास, हमें कटु बनाने की बजाय, आंसुओं से भरे इस लौकिक अस्तित्व से गुजरने में समर्थ बनाता है।

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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