हेमंत कुमार पारीक
कील कहूं या खील। ‘क’ और ‘ख’ में अर्थ बदल जाते हैं। कील हमेशा साथ रहती है और खील-बतासे दीपावली पर्व की पूजा-पाठ की सामग्री होते हैं। घर में घुसते ही सबसे पहले कील पर ही नजर पड़ती है। पहली कील पर टंगा कुरता, पायजामा और पगड़ी नजर आती है। दूसरी कील पर फोटो नजर आती है। इतिहास पुरुष दद्दू की मस्त कलंदर सूरत दिखती है। कभी खूंटी का चलन था। लेकिन खूंटी दीवार की छवि बिगाड़ देती है।
खूंटी के टूटने से दीवार में बड़ा-सा छेद हो जाता है। लेकिन कील का छेद मायने नहीं रखता। इसलिए बैठक में कई कीलें हुआ करती हैं। ज्यादातर वे इतिहास हुए पुरुषों की फोटो टांगने के काम आती हैं। घर के आंगन में दो कीलों से बंधी रस्सी पर कपड़े सुखाए जाते हैं। किचन में कीलों पर चम्मच, कड़छुल, तवा लटके नजर आते हैं। बरतनों के हिसाब से कीलों का साइज तय होता है।
कभी किसी पेड़ में ठुकी कील देखकर डर लगता था। पीपल या नीम के पेड़ में ठुकी कीलें भूत-प्रेत से डराती थीं। इसलिए दोपहर या रात में उन पेड़ों के पास से नहीं गुजरते थे। उन कीलों को छूने का साहस नहीं था। सुना करते थे कि तांत्रिक ने कीलें गाड़कर भूत-प्रेतों को बंधक बनाए रखा है। अगर कील निकाली गयी तो भूत सिर पर सवार हो जाएगा।
कील की महिमा बड़ी निराली होती है। कल्लू साइकिल वाला गर्मियों में सड़क पर कीलें फेंक दिया करता था। साइकिल और मोटरगाड़ी के टायर पंक्चर होते ही दौड़ा चला आता। उसकी इस कारगुजारी के गवाह हम थे। उसे धमकाते, तेरी पोल खोल दूं!… तो वह हंसते हुए पेट पर हाथ रख कहता-भैये, पेट का सवाल है।
हर आदमी अपने पेट के लिए करता है।…पता नहीं क्यों आज के जमाने में भी लोगों को कीलें क्यों याद आ रही हैं। कल्लू साइकिल वाले को फालो कर रहे हैं। सरेआम तांत्रिक की तरह सड़क पर कीलें गाड़ रहे हैं। यहां किसके पेट का सवाल खड़ा है? सरकार के या किसान के? पहले साइकिल पंक्चर होती थी, अब ट्रैक्टर पंक्चर करने का प्लान है। साइकिल पंक्चर करने के लिए छोटी-छोटी कीलों की जरूरत पड़ती थी मगर ट्रैक्टर पंक्चर करने के लिए मोटे और बड़े साइज की कीलों की जरूरत पड़ी है।
कीलें बेचने वाले की बन आयी है। पहले तौल के भाव में कीलें बेचता था, अब नग के भाव बेचने लगा है। कहता है-पेट का सवाल है। पेट तो किसान का भी होता है, जवान का भी और भगवान का भी। तभी तांत्रिक अपने पेट की खातिर नीम, आम और इमली में कीलें गाड़ कर लोगों को डराता था।