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शिक्षकों की बाट जोहते सरकारी स्कूल

गुणवत्ता की शिक्षा का संकट
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ग्लोबल पार्टनरशिप फॉर एजुकेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्याप्त शिक्षक सहयोग के बिना छात्रों से अन्य गतिविधियों में भाग लेने की अपेक्षा घटती है, वास्तव में जो उनके सर्वांगीण विकास में काफी हद तक सहायक बन सकती थीं।

शिक्षा ग्रहण करना भारत के हर बच्चे का अधिकार है किंतु सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की अपर्याप्त संख्या देशभर के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है। इसी समाचार-पत्र में प्रकाशित रिपोर्ट के तहत, हरियाणा के सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक स्कूल शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। सर्वाधिक चिंतनीय अवस्था नूंह ज़िले की है, जहां 901 विद्यालयों में 3,425 शिक्षकों के पद रिक्त पाए गए। विधानसभा के हालिया मानसून सत्र में सरकार ने भी प्रदेश के 14,295 विद्यालयों में 12,000 से अधिक शिक्षक पद रिक्त होने की बात स्वीकारी।

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समूचे तौर पर सरकारी शैक्षणिक व्यवस्था का संज्ञान लें तो भारत के हर राज्य में कमोबेश यही स्थिति है। दिसंबर, 2023 में, केंद्र सरकार ने प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर क्रमशः 7,22,413 तथा 1,24,262 अध्यापकों की कमी बताई थी। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में लाखों शिक्षक-पद खाली हैं।

गहनतापूर्वक विचारें तो यह अभाव मात्र एक संख्या न होकर समूची शिक्षा व्यवस्था कमज़ोर करने वाला संकट है। गुणवत्तापूर्वक शिक्षा में सामाजिक, भावनात्मक तथा शारीरिक विकास के साथ-साथ शैक्षणिक उपलब्धि भी शामिल होती है। पर्याप्त शिक्षकों के अभाव में जहां व्यक्तिगत शिक्षा प्रदान करने में कठिनाई आती है, वहीं छात्र समग्र विकास के अवसरों जैसे पाठ्येतर गतिविधियों, मार्गदर्शन आदि से वंचित रह जाते हैं। स्पष्ट शब्दों में, शिक्षकों की कमी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में एक बड़ी बाधा है, जिसके सीखने के परिणामों, समानता तथा समग्र छात्र विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। ग्लोबल पार्टनरशिप फॉर एजुकेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्याप्त शिक्षक सहयोग के बिना छात्रों से अन्य गतिविधियों में भाग लेने की अपेक्षा घटती है, वास्तव में जो उनके सर्वांगीण विकास में काफी हद तक सहायक बन सकती थीं।

शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली यह कमी छात्रों की संख्या में गिरावट आने का सबब भी बनती देखी गई। अनेक बार शिक्षकों की कमी के चलते शैक्षणिक सत्र समय पर पूरे नहीं हो पाते। हाशिये पर रहने वाले समुदायों, ख़ासकर ग्रामीण तथा आर्थिक रूप से वंचित इलाकों पर इसका असमान रूप से विशेष असर देखने में आया। इन क्षेत्रों के छात्रों की योग्य शिक्षकों तक पहुंच सीमित होने के कारण शैक्षिक असमानताएं अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। यूनेस्को के अनुसार, भारत में पाठशाला न जाने वाले 1.9 करोड़ बच्चों में से बहुतेरे इन्हीं वंचित समुदायों में आते हैं। दूसरे शब्दों में, शैक्षिक असमानताएं उपजाने के साथ यह कमी शिक्षा तंत्र पर वित्तीय दवाब भी बढ़ा देती है।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की एक रिपोर्ट अनुसार, कई राज्यों में शिक्षक 50-60 या उससे ज़्यादा छात्रों की कक्षाओं का प्रबंधन करते हैं। हरियाणा के नूंह, पलवल तथा यमुनानगर जैसे ज़िलों में 80-100 छात्र पढ़ाने के लिए एक ही शिक्षक नियुक्त है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के मुताबिक़, प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर शिक्षक-छात्र अनुपात क्रमानुसार 1:30 तथा 1:35 होना चाहिए। अतिरिक्त कार्यभार जहां शिक्षकों की थकान बढ़ाता है, वहीं मनोबल गिराता है। स्थिति के परिणामस्वरूप रटंत विद्या पर निर्भरता बढ़ने के कारण छात्रों की रचनात्मकता तथा आलोचनात्मक सोच ख़ासी प्रभावित होती है। दीर्घकालिक असर के रूप में सामाजिक प्रगति बाधित होती है।

दरअसल, शिक्षकों की कमी का जीडीपी प्रतिशत के रूप में शिक्षा के निवेश से गहरा संबंध है। भारत में शिक्षा पर होने वाला सरकारी व्यय जीडीपी के 3-4 प्रतिशत के आस-पास है, जोकि एनईपी 2020 की 6 प्रतिशत आवंटन की सिफारिश तथा वैश्विक औसत से कहीं कम है। कम निवेश सरकार द्वारा योग्य शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण तथा उन्हें बनाए रखने की क्षमता सीमित करता है। इससे राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के लक्ष्य पर सवालिया निशान उठना भी स्वाभाविक है।

शिक्षकों की कमी का गंभीर मुद्दा बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाकर ही निपटाया जा सकता है। समस्या की प्रकृति समझते हुए सरकार मजबूत एवं प्रभावी भर्ती रणनीतियां लागू करे, जिसमें महत्वाकांक्षी शिक्षकों के लिए छात्रवृत्ति, प्रोत्साहन, शैक्षणिक कौशल तथा विषय ज्ञान पर बल देने वाले व्यापक कार्यक्रम भी बराबर शामिल हों। योग्य शिक्षकों की कमी दूर करने हेतु सरकारी निकायों, शैक्षणिक संस्थानों तथा स्थानीय समुदायों के समन्वित प्रयासों की भी महती आवश्यकता है। शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण तथा सहायता में अपेक्षित निवेश करके भारत एक अधिक प्रभावी तथा समावेशी शिक्षा प्रणाली बना सकता है, जो सभी छात्रों को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करे।

इसके साथ ही स्कूल के बुनियादी ढांचे में सुधार तथा आधुनिक संसाधनों की उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा। शिक्षकों व छात्रों के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने से ही एक अनुकूल शिक्षण वातावरण निर्मित होता है। जैसा कि विशेषज्ञ कह रहे हैं, समस्या केवल भर्ती से नहीं सुलझ सकती। ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में तैनाती, प्रशिक्षण तथा संशोधन ज़रूरी हैं। एनईपी के अनुसार शिक्षक केवल पढ़ाने वाले नहीं बल्कि सीखने की प्रेरणा देने वाले होने चाहिए।

बच्चों की अपार क्षमताओं को दिशाज्ञान मिलना अत्यावश्यक है, जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से ही संभव होगा। आधारभूत ढांचा सशक्त हो एवं पर्याप्त संख्या में योग्य गुरु तनावरहित होकर कार्य करें तो शिक्षा में गुणवत्ता प्रतिभासित होना सुनिश्चित है।

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