बीमार भविष्य के कारखाने न बनें सरकारी स्कूल
यहां सवाल किसी स्कूल की छत ढहने का नहीं है, शिक्षा का सारा ढांचा ही जर्जर है। इस ढांचे की मरम्मत की आवश्यकता है। सरकारी स्कूलों की जगह निजी स्कूलों को बढ़ावा देने की नीति को बदलना होगा, शिक्षा को प्राथमिकता देनी होगी।
देश में बहुत कुछ हो रहा है– कहीं पुल ढह रहे हैं, कहीं सड़कें नदियां बनी हुई हैं, कहीं विमान- दुर्घटनाएं हो रही हैं, देश का उपराष्ट्रपति इस्तीफा दे रहा है, संसद में और सड़कों पर प्रदर्शन हो रहे हैं। सरकारी एजेंसियां छापेमारी में लगी हैं। अरबों-खरबों के घोटाले की बातें हो रही हैं। मतदाता सूचियों को खंगाला जा रहा है। लाखों नाम जुड़ रहे हैं, लाखों काटे जा रहे हैं। नेतागण अपनी-अपनी पार्टी के गुणगान में लगे हैं, कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे किस नेता की बात सच मानें और किसकी झूठ। कहीं भ्रष्टाचार की बात हो रही है, कहीं चुनाव की... इस सारे शोर-शराबे में हाल ही में राजस्थान के झालावाड़ में एक स्कूल की छत ढह जाने से सात बच्चों की जान चली गय। जो छत गिरी, दो साल पहले ही लगभग तीन लाख रुपये उसकी मरम्मत पर खर्च होने का दावा किया गया था! शिक्षा मंत्री कह रहे हैं ‘मामले की उच्च स्तरीय जांच’ करायेंगे। हकीकत यह है कि देश में सरकारी स्कूल और उनमें दी जा रही शिक्षा दोनों जर्जर अवस्था में हैं। होती है कभी-कभी बात इस जर्जर अवस्था के बारे में, पर अक्सर ‘उच्च स्तरीय जांच’ की घोषणा ही सुनाई देती है, उसके परिणाम कहीं सरकारी फाइलों में दबे पड़े रहते हैं। इस झालावाड़-कांड की जांच के साथ भी ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
सात बच्चों के मरने और चौबीस बच्चों के घायल होने वाले इस हादसे ने देश में सरकारी शिक्षा की स्थिति पर कुछ सवाल जरूर उठायें हैं, पर उनके उत्तर खोजने की बात कोई नहीं कर रहा। कोई नहीं पूछ रहा कि उन मासूमों का क्या कसूर था, जो खिलने से पहले ही कुम्हला गये? उनके अभिभावकों के सपनों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है, इस बारे में कोई बात नहीं हो रही।
संसद में ‘आपरेशन सिंदूर’ के बारे में चर्चा होती रही है। महत्वपूर्ण है यह विषय इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन देश के स्कूलों और शिक्षा की स्थिति की गंभीरता और महत्व को क्यों नहीं समझा जा रहा? झालावाड़ का स्कूल अकेला नहीं है जिसकी इमारत जर्जर अवस्था में है। राजस्थान के ही नहीं देशभर के सरकारी स्कूलों की इमारतें और शिक्षा की स्थिति संसद में काम रोको प्रस्ताव की मांग कर रही है, पर कौन सुन रहा है इस मांग को?
देश में नई शिक्षा नीति को लागू किया जा रहा है उसे लेकर विवाद भी उठ रहे हैं। पर यह दुर्भाग्य ही है कि प्राथमिक शिक्षा की स्थिति हमारी वरीयता में कहीं नहीं दिखाई दे रही। शिक्षा का माध्यम क्या हो, कितनी भाषाएं देश के बच्चे सीख रहे हैं जैसे कुछ सवाल यदि कहीं उठ भी रहे हैं तो वह भी अपने-अपने राजनीतिक हितों-स्वार्थों के खातिर ही। शिक्षा को लेकर जो बुनियादी चिंता दिखनी चाहिए, उसमें जो ईमानदारी झलकनी चाहिए, वह कहीं नहीं है।
सवाल किसी झालावाड़ के सरकारी स्कूल की छत गिरने का नहीं है, देश के हर हिस्से में ऐसे स्कूल दिख जाएंगे जहां बच्चे दीवारें ढहने या छत गिरने के खतरे को झेलते हुए अपना भविष्य बनाने की शुरुआत कर रहे हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार आज देश में 74 हज़ार से अधिक स्कूल जर्जर अवस्था में हैं। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि देश में सरकारी स्कूल लगातार कम हो रहे हैं। अकेले मध्य प्रदेश में पिछले एक दशक में लगभग नब्बे हज़ार सरकारी स्कूल बंद हुए हैं। सहज ही विश्वास नहीं होता इस आंकड़े पर, पर शिक्षा को लेकर जिस तरह की अराजकता हमारे देश में पसरी है उसे देखते हुए आश्चर्य भी होना चाहिए और चिंता भी।
चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि सरकारी स्कूलों के बंद होने के साथ-साथ निजी स्कूलों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ अरसे में 25 हज़ार से अधिक सरकारी स्कूल बंद हुए हैं! इसका एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि अभिभावक अपने बच्चों को बेहतर और स्तरीय शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों से निकाल कर अच्छे निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए भेज रहे हैं। सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति आयी क्यों? इस सवाल का जवाब भी कोई मुश्किल नहीं है– ‘अच्छी शिक्षा’ के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे निजी स्कूलों को जिस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है उसने शिक्षा को एक व्यवसाय बनाकर रख दिया है। ‘इंटरनेशनल स्कूल’ कहलाते हैं ये संस्थान! अंग्रेजी माध्यम वाले यह स्कूल पैसे वालों के लिए है और उनके लिए भी जो अपनी जीवन शैली को बेहतर दिखाने की होड़ में लगे हैं।
आज एक ओर हमारे देश में झालावाड़ जैसे जर्जर सरकारी स्कूल हैं और दूसरी ओर लाखों की फीस वाले वे निजी स्कूल जहां ‘बड़े लोगों’ के बच्चे पढ़ते हैं। इन एयर कंडीशन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में भी स्वंय को ‘कुछ अलग’ समझने की भावना पनपती है। यह प्रवृत्ति समाज को बांटने वाली है। चिंता होनी चाहिए इस स्थिति और प्रवृत्ति पर। पर हो नहीं रही। शिक्षा का यह बंटवारा उनकी चिंता का विषय नहीं बन पा रहा जो स्वयं को आम आदमी का प्रतिनिधि मानते-कहते हैं।
सच बात तो यह है कि शिक्षा को, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा को, हमारी प्राथमिकता सूची में कहीं नीचे स्थान मिला हुआ है। देश में शिक्षा के स्तर को लेकर चिंता करने वालों में कुछ संस्थान हैं जो लगातार आगाह करते रहे हैं, पर उन पर इसका कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा जिन्हें स्थिति की भयावहता को समझना चाहिए। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर लगभग 74 प्रतिशत थी। पिछले दस-पंद्रह सालों में यह प्रतिशत निश्चित रूप से बढ़ा होगा। पर सवाल यह है कि यह साक्षरता है कैसी? इस संदर्भ में कार्यरत संस्था ‘असर’ की सन् 2024 की रिपोर्ट के अनुसार कक्षा तीन में पढ़ने वाले 23.4 प्रतिशत छात्र कक्षा दो का पाठ नहीं पढ़ पा रहे। इस स्थिति को क्या नाम दिया जाए?
शिक्षा का उद्देश्य हर नागरिक को इस योग्य बनाना है कि वह ढंग की जिंदगी जी सके। इस ‘ढंग’ की अलग-अलग परिभाषा हो सकती है, पर इतना तय है कि हमारे हुक्मरान कहते भले ही कुछ भी रहे हों, पर देश के नागरिक को एक सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अवसर देने के प्रति ईमानदार नहीं हैं। किसी झालावाड़ के स्कूल की छत गिरने का अर्थ एक इमारत का ढहना मात्र नहीं है, यह उस आपराधिक उपेक्षा का एक प्रमाण है जो हमारी सरकारें शिक्षा के प्रति बरत रही हैं। कहीं न कहीं यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा-पत्र में शिक्षा को उचित और पर्याप्त महत्व क्यों नहीं दिया जाता? किसी ‘असर’ जैसी संस्था की रिपोर्ट चुनावी चर्चा का विषय क्यों नहीं बनती? झालावाड़ के स्कूल जैसी स्थिति नहीं बने इसकी गारंटी देने की बात कोई नेता क्यों नहीं देता?
एक बात और। बताया जा रहा है कि देश के हजारों स्कूल आज झालावाड़ जैसे स्कूल की तरह जर्जर अवस्था में हैं। किसी भी राजनीतिक दल ने इस बात पर चिंता व्यक्त क्यों नहीं की? सुना है, सात बच्चों की मौत की घटना के लिए स्कूल के चार अध्यापकों को निलंबित कर दिया गया है? यह कहां का न्याय है? निलंबित तो किसी सरपंच या उच्च अधिकारी को होना चाहिए अथवा उसे जिसे हमने देश चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है। दो साल पहले ही उस स्कूल की छत की मरम्मत हुई थी, फिर छत ढही कैसे? यहां सवाल किसी स्कूल की छत ढहने का नहीं है, शिक्षा का सारा ढांचा ही जर्जर है। इस ढांचे की मरम्मत की आवश्यकता है। सरकारी स्कूलों की जगह निजी स्कूलों को बढ़ावा देने की नीति को बदलना होगा, शिक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। कुछ अध्यापकों का निलंबन या मिड डे मील में मात्र चावल और नमक मिलने की शिकायत करने वाले किसी पत्रकार को ‘अपराधी’ बनाने से बात बनेगी नहीं। बात बुनियादी ईमानदारी की है। कब दिखेगी यह ईमानदारी?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।