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खुशियों की सौगात लाया सरकारी भवन

तिरछी नज़र
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मुकेश राठौर

आपका भवन बनता है तो स्वाभाविक है सिर्फ आप खुश होते हैं। गर परिवार से अलग रहकर भवन बना रहे हैं तो ससुराल वाले और होम लोन लेकर बना रहे तो बैंक वाले भी खुश हो सकते हैं। लेकिन सरकारी भवन बनता है तो सब खुश होते हैं। होना भी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र की तरह यह सबका और सबके लिए होता है। जो सबका और सबके लिए हो तो उस पर सबका अधिकार होता है। खुश होने का भी। वैसे भी गांव हो या शहर सरकारी भवन कोई रोज-रोज तो बनते नहीं, मगर हां, जब भी बनते हैं, कई लोगों को बनाकर कुछ लोग जरूर बन जाते हैं। गांव में सरकारी भवन बनने से यदि कोई नाखुश दिखाई दे तो उसे विकास विरोधी ही माना जायेगा।

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एक सरकारी भवन अपने साथ ढेरों खुशियां लेकर आता है। जैसे ही भवन की स्वीकृति मिलती है सबसे पहले नेता जी खुश होते हैं। टेंडर हुए तो ठेकेदार खुश। आवंटन आया तो साहब खुश। निर्माण शुरू हुआ तो माल सप्लायर, मिस्त्री, मजदूर... खुश। काम उन्नीसा-बीसा हो तो पत्रकार खुश। काम पूर्णता की तरफ बढ़ा तो पेंटर, कारपेंटर खुश। जब लोकार्पण का समय आता है तो एक बार फिर नेता जी खुश हो जाते हैं। खुश होना ही है क्योंकि फीता तो आखिर उन्हें ही काटना है। उनका काम ही काटने का है। बावजूद उनका कोई कुछ नहीं काट सकता। जब भी कटने-काटने की नौबत आती है तो जिम्मेदार सरकारी मुलाजिम ही कटते हैं। अफसोस काटने वाले भी अपने ही होते हैं। ज्यों कुल्हाड़ी में लकड़ी का दंड।

देश को हैप्पीनेस इंडेक्स में दुनिया का सिरमौर बनाना है तो गांव-गांव सरकारी भवन, सड़क, पुल, पुलियाओं की बाढ़-सी आ जानी चाहिए। मैं जिधर-जिधर देखूं मुझे तू ही नजर आए। इंद्रदेव से अरदास बस इतनी-सी कि सचमुच की बाढ़ न आए बस, वरना फिर यही गीत दोहराना पड़ेगा। मगर कहते हैं जहां अधिक दाइयां हो जचगी बिगड़ जाती है। बेचारे सरकारी भवनों के साथ भी यही होता है। नींव खुदाई से लेकर पुताई तक न जाने कितने लोगों के हाथ लगते हैं। कुछ भी हाथ लग जाने की उम्मीद में क्षेत्र का हर पहुंचा हुआ गब्बर, ठेकेदार ठाकुर से कहता हुआ पाया जाता है कि ‘ये हाथ (काम) मुझे दे दे ठाकुर।’

इस तरह भूख-प्यास काटकर बड़ा हुआ सरकारी भवन बारिश आते फूट-फूट कर रोने लगता है। रोता तो बनते-बनते भी है लेकिन कोई सरकारी भवन कितना दुखियारा है यह बारिश में ही दिखाई पड़ता है। अपना दुखड़ा रोने के लिए बारिश से मुफीद मौसम नहीं। ये बात सरकारी भवनों से ज्यादा भला कौन समझ सकता है! खैर, ऐसे रोते-बिलखते भवनों को देख सब दूर भागते हैं लेकिन लंबे हाथ वाले गब्बर और निहत्थे ठाकुर ‘चले थे साथ मिलके, चलेंगे साथ मिलकर’ टाइप बारिशों के मौसम में रोते सिसकते सरकारी भवन को दिलासा दिलाते हुए कहते हैं, रो मत पगले, मरम्मत बजट आते ही सब ठीक हो जायेगा।

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