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तबाही का सबब बन सकती हैं ग्लेशियर झीलें

ग्लोबल वार्मिंग संकट

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जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। ये झीलें टूटने पर बाढ़ जैसी आपदाओं का कारण बन सकती हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। यह वृद्धि निचले इलाकों के लिए गंभीर खतरा बन चुकी है, क्योंकि इन झीलों के टूटने से बाढ़ जैसी आपदाएं आ सकती हैं। उच्च हिमालय में झीलों का यह विस्तार वैज्ञानिकों और प्रशासन दोनों के लिए गहरी चिंता का विषय बन गया है।

वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर झीलों का तेजी से विस्तार भविष्य में 2013 की केदारनाथ त्रासदी जैसी आपदाओं का कारण बन सकता है। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में 13 बेहद खतरनाक और 5 उच्च जोखिम वाली श्रेणी में हैं। कई झीलें मौसम व भौगोलिक कारणों से बनती-बिगड़ती रहती हैं। हाल ही में पिथौरागढ़ की दारमा घाटी में नई ग्लेशियर झील के आकार में वृद्धि दर्ज की गई है, जिसने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।

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केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक अकेले अरुणाचल में 197 से ज्यादा ग्लेशियर झीलें हैं। ये अपना खतरनाक स्तर पर विस्तार कर रही हैं। इनके बाद लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, हिमाचल और उत्तराखंड में झीलें हैं। एनडीएमए ने उत्तराखंड की इन खतरनाक 13 झीलों को तीन श्रेणियों में बांटा है। पिछले दिनों में गंगोत्री की केदारताल और चमोली में वसुतारा झील का काफी विस्तार हुआ है। इन झीलों के गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभागाध्यक्ष डॉ. एम.पी.एस‍. बिष्ट द्वारा वर्ष 2014 और 2023 के उपग्रह चित्रों के अध्ययन से यह चिंताजनक खुलासा हुआ है। उनके मुताबिक ये झीलें हिमनद के असंगठित मलबे—मोराइन डैम की रुकावट से बनी हैं। उनका मानना है कि इस खतरे को देखते हुए सरकारों और अन्य वैज्ञानिक संस्थानों को समय रहते इन झीलों का आकलन कर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। वास्तव में उत्तरकाशी की धराली की घटना ने उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर झीलों के बढ़ते खतरे को फिर से चर्चा में ला दिया है।

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वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के दौरान चौराबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से हुई तबाही ने ग्लेशियर झीलों के खतरे को गंभीर मुद्दा बना दिया। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में लगभग 968 ग्लेशियर और कई हजार ग्लेशियर झीलें मौजूद हैं। इन झीलों में अत्यधिक बर्फ पिघलने से अक्सर बाढ़ का खतरा बना रहता है। इन झीलों का आकार तेजी से बढ़ रहा है, जिससे ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड की आशंका लगातार बनी रहती है।

हकीकत यह है कि मौसम के इस बदलते पैटर्न के बारे में बहुत कुछ समझना अभी भी बाकी है। इसलिए पिछले तकरीबन तीस सालों के आंकड़ों का गहनता से आकलन बेहद जरूरी है। आपदाओं के पूर्वानुमान को भी बेहतर बनाना समय की मांग है। यही नहीं, आर्यभट्ट प्रेक्षण एवं विज्ञान शोध संस्थान नैनीताल एवं दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा हिमालय के जटिल और प्राचीन भूभाग पर कार्बन युक्त एरोसोल के अध्ययन को नजरंदाज करना बहुत बड़ी चूक होगी।

अध्ययन में खुलासा हुआ है कि हिमालय में वायु प्रदूषण में जीवाश्म ईंधन के जलने का ज्यादा असर पड़ रहा है। हिमालय अंचल में गाड़ियों की बढ़ती तादाद हवा में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी का अहम कारण है। हिमालयी बस्तियों और शहरों के बढ़ते बोझ से अब हांफने लगा है। वहीं ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से ग्लेशियर पिघलकर बनी झीलें जल प्रलय को आमंत्रण दे रही हैं। इसरो की मानें तो हिमालय क्षेत्र की 2432 ग्लेशियर झीलों में से 672 झीलों का तो आकार तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। इनमें से भारत में मौजूद 130 झीलों के टूटने का खतरा हमेशा बना हुआ है।

इसमें दो राय नहीं कि दिनोंदिन बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन की आंधी ग्लेशियरों के विनाश का सबब बन रही है। समुद्र के जलस्तर में वर्ष 1900 की तुलना में 20 सेंटीमीटर की बढ़ोतरी और उसमें हो रही दिन-ब-दिन तेजी से वृद्धि, जिसके चलते कुछ द्वीप और तटीय इलाके डूबते जा रहे हैं। कुछ महानगरों-शहरों के डूबने का खतरा मंडरा रहा है, बाढ़ की विनाशलीला बस्तियों को लील रही है, वहीं सूखा गांवों को वीरान बनाने की राह पर है। ऐसी विषम स्थिति में ग्लेशियरों को बचाना महज बर्फ को बचाना नहीं है बल्कि अपने भविष्य को बचाना है।

वैज्ञानिकों के शोध-अध्ययन इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में ग्लेशियर झीलों में बहुतेरी ऐसी हैं जिनका आकार जून, 2025 के दौरान बढ़ा है। याद रखना होगा कि ग्लेशियर मात्र बर्फीले शिखर ही नहीं हैं, वे हमारे भविष्य की जड़ें हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि बर्फ के पिघलने से पूरा का पूरा पारिस्थितिकीय तंत्र बदल जाता है, जो पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है।

इन बढ़ते खतरों से निपटने की दिशा में हमें तत्काल कार्रवाई, फंडिंग के साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोग की भी बहुत जरूरत है। इसके अलावा हिमालय क्षेत्र में मानवीय दखलंदाजी पर अंकुश, जलवायु परिवर्तन के दानव और कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगानी ही होगी। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हिमालय की जल धाराएं मौन हो जाएंगी, हम बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे, खेत सूख जाएंगे, जमीन बंजर हो जाएगी। आपदा प्राकृतिक हो या मानव निर्मित, प्राकृतिक आपदा को तो हम रोक नहीं सकते लेकिन जागरूकता, सतर्कता और सावधानी से होने वाले जान-माल के नुकसान को कम जरूर कर सकते हैं।

लेखक पर्यावरणविद हैं।

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