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कोच के रूप में कसौटी पर गंभीर के प्रयास

मौजूदा कोच गौतम गंभीर भारतीय क्रिकेट टीम में स्टार-संस्कृति को तोड़ना चाहते हैं, ठीक वैसी कोशिश जो कोच ग्रेग चैपल ने दो दशक पहले अपने कार्यकाल में की थी। इंग्लैंड में एक युवा टीम की शानदार सफलता ने उनके...
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मौजूदा कोच गौतम गंभीर भारतीय क्रिकेट टीम में स्टार-संस्कृति को तोड़ना चाहते हैं, ठीक वैसी कोशिश जो कोच ग्रेग चैपल ने दो दशक पहले अपने कार्यकाल में की थी। इंग्लैंड में एक युवा टीम की शानदार सफलता ने उनके प्रयोग को यह वैधता प्रदान कर दी। वहीं युवा टीम का होना उनके अनुकूल है।

जब मैंने रहस्यमयी भारतीय कोच गौतम गंभीर के बारे में लिखना शुरू किया तो पृष्ठभूमि में ग्रेग चैपल की छवि आन खड़ी हुई। कोई भी दो लोग शैली, व्यक्तित्व, छवि और उपलब्धियों में इतने भिन्न नहीं हो सकते जितने कि ये दोनों, फिर भी इनके व्यक्तित्व मेरे मन में गडमड हो रहे हैं। दोनों में एकमात्र स्पष्ट समानता यह है कि जिस पद पर गौतम आज हैं, उस पर ग्रेग चैपल बतौर भारतीय टीम के कोच रहे।

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2004-05 की सितारों जड़ी भारतीय टीम, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, वीरेंद्र सहवाग, वीवीएस लक्ष्मण, अनिल कुंबले और खुद एक महान बल्लेबाज रहे ग्रेग के भारतीय कोच बनने के दिनों को याद कीजिए। जिस शालीनता और शान के साथ यह ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज़ी करता था, वह उनकी वाक‍्पटुता, खेल के तकनीकी ज्ञान के अलावा बातचीत में लोगों को कायल करने के गुण से मेल खाता था।।

उनके कोचिंग कार्यकाल की वह उत्साहपूर्ण शुरुआत कोई दो साल बाद एक ऐसी विभाजित टीम के कोच में रूप में समाप्त हुई, जिसके खिलाड़ी असुरक्षित और अपनी उस परछाई तक से सशंकित हो चले थे, जिससे वे कभी प्यार करते थे। टीम को स्टार-कल्चर से मुक्ति दिलाने के इरादे से ग्रेग की आमद हुई थी; लेकिन आखिर में उनकी उपलब्धि थी वेस्ट इंडीज़ में आयोजित 2007 के विश्व कप में एक सम्मान से वंचित, भ्रमित एवं अराजकता भरी टीम, जिसने भारतीय क्रिकेट को बुरी तरह प्रभावित किया।

ग्रेग अंत तक अपने इस विश्वास पर अडिग थे कि भारत की समस्या प्रतिभा की कमी नहीं, बल्कि वह स्टार कल्चर है जो नए खिलाड़ियों के विकास में बाधक है और एक ऐसा पदानुक्रम बनाती है जो टीम भावना और सद्भाव के लिए नुकसानदायक है। ग्रेग ने भले ही समस्या की शिनाख्त कर ली हो, लेकिन समाधान के उनके तरीकों में उस संवेदनशीलता और भारतीय मानस की उचित समझ का अभाव रहा। जिन्हें बदलाव से झिझक है, खासकर जब यह अचानक और तेज़ी से हो, उनके लिए उनका यह तरीका विदेशी संस्कृति की उपज था। शायद जिस चीज़ ने उनको हराया, वह था उनका नैतिकता के उस उच्च सिंहासन पर जा विराजना, जहां से उन्हें वह दुनिया दिखनी बंद हो गई, जिसको वे शायद ही समझ पाए और समझने की कोशिश भी नहीं की। उनके अंदर अपने पूर्ववर्ती और पिछले कोच न्यूज़ीलैंड के जॉन राइट जैसी सहज वृत्ति नहीं थी, जिन्होंने यथास्थिति को हिलाए बगैर प्रगतिशील बदलाव बनाए थे।

ग्रेग के असंगत से तरीकों से पैदा हुई उथल-पुथल को उनकी जगह आए गैरी कर्स्टन की सूझबूझ ने शांत किया और भारतीय टीम ने 2011 का विश्व कप जीता। विदेशी कोच के रूप में आखिरी थे इंग्लैंड के डंकन फ्लेचर, जिन्होंने इस बात को छिपाने की ज़रा भी कोशिश नहीं की कि वे एक बाहरी व्यक्ति हैं और नया तरीका चाहे भारतीय हो या विदेशी, उसको अपनाने में जरा दिलचस्पी नहीं है।

आखिरकार अनुभवी रवि शास्त्री ने टीम में ठेठ ‘भारतीय ढंग’ फिर से लौटाया, जिसमें क्रिकेट की कुशाग्रता, देशी ज्ञान के साथ मिलाकर, निरंतरता की संस्कृति पूर्ववत‍् बनी रही, और मरम्मत केवल उतनी की गई जिससे नींव को नुकसान न पहुंचे। पिछली परिपाटी और गहरे तक जड़ जमाए पदानुक्रम संस्कृति वाली टीम, जिसमें मजबूती की परवाह किए बिना स्टारडम को प्राथमिकता हो।

कोच के रूप में गौतम गंभीर की नियुक्ति ऐसे वक्त में हुई जब इसके प्रमुख सितारे विराट कोहली और रोहित शर्मा मद्धम पड़ने लगे। उम्र 44 साल हो और जिसका इतिहास व्यवहार के सामाजिक मानदंडों पर हमेशा अपेक्षित स्तर का न रहा हो, ऐसे गौतम गंभीर का व्यक्तित्व अध्ययन करने के लिए एक दिलचस्प केस है। साल 2009 में ईएसपीएन चैनल के ‘क्रिक इन्फो’ नामक कार्यक्रम में सिद्धार्थ मोंगा को दिए एक बेबाक साक्षात्कार में, जब गौतम भारतीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे, उन्होंने अपनी असुरक्षाओं और उनसे निपटने के अधीर तरीकों पर दिल खोलकर बात की थी। उन्होंने बताया कि वे इस तरह से बने हैं, जहां उन्हें हमेशा लगता रहा कि बहुत अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद उन्हें उनका हक नहीं मिला। उन्होंने अंडर-14, अंडर-19 और यहां तक कि रणजी ट्रॉफी में भी असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था, फिर भी उन्हें भारत की ओर से विश्व कप खेलने के लिए नहीं चुना गया। साल 2007 के विश्व कप टीम का हिस्सा न होने पर उन्हें झटका लगा था, लेकिन गुस्सैल स्वभाव को अपनी ट्रेनिंग और साधना में बाधा नहीं बनने दिया और आखिरकार भारतीय टीम में वापसी की, और भारत को 2007 में टी-20 और 2011 वनडे विश्व कप जिताने में अहम भूमिका निभाई।

गंभीर में कड़ी मेहनत के मोल और अस्वीकृति पर निराशा से उपजे गुस्से को अच्छा प्रदर्शन करने के जुनून में बदल देने की समझ थी। उन्होंने ऐसा किया भी। भारत के लिए खेलते हुए सफलता मध्यम दर्जे की रही, तो तीन आईपीएल प्रतियोगिताओं में कोलकाता नाइट राइडर्स की टीम को जिताया, जिसमें दो बार कप्तान के रूप में और तीसरी मर्तबा बतौर एक सलाहकार। तथापि, खुद पूर्व सांसद होने और भारतीय क्रिकेट प्रशासन के उच्चतम स्तर पर संबंध के बिना उनके भारतीय टीम का कोच बनने की कल्पना करना मुश्किल है। यह राजनीतिक पहुंच गंभीर को एक ऐसी ताकत देती है जिससे पिछले कोचों को ईर्ष्या हुई होगी।

जाहिर है वे भी टीम में स्टार-संस्कृति को तोड़ना चाहते हैं, ठीक वैसी कोशिश जो ग्रेग चैपल ने दो दशक पहले अपने दो साल के कार्यकाल में की थी। टीम में विराट, रोहित और अश्विन को लेकर उनकी असहजता की खबरें अक्सर मीडिया में आती रहीं और इंग्लैंड में एक नई, युवा टीम की शानदार सफलता ने उनके प्रयोग को वह वैधता प्रदान कर दी, जिसकी उन्हें अब तक कमी थी।

ग्रेग के विपरीत, अब उनके पास एक नई, युवा टीम है जो अभी भी अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही है और शायद शुभमन गिल को छोड़कर, उनमें से कोई एक भी कोहली या रोहित के स्टारडम के आसपास तक नहीं है। ईएसपीएन को दिए अपने साक्षात्कार में, गंभीर की ईमानदार स्वीकारोक्ति एक ऐसे व्यक्ति को उजागर करती है जो अपनी कमज़ोरियों से बखूबी वाकिफ़ है और उनसे निपटने का तरीका भी जानता है। क्या वे बेचैन, असुरक्षित किंतु प्रतिभाशाली युवाओं के लिए एक मार्गदर्शक और संरक्षक बनेंगे, उन्हें निष्पक्ष नज़र से परखेंगे ताकि वे अपनी पूरी क्षमता हासिल कर सकें?

या फिर क्या वे भी एक और ग्रेग चैपल बनकर रह जाएंगे और किसी उभरते सितारे की आकांक्षा को कुचल देंगे जिससे टीम अस्थिर हो सकती है? इस कहानी का अगला अध्याय संभावनाओं से भरा है।

  लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं।

 

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