कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र या समुदाय को बर्बाद करने के लिए किसी बम या मिसाइल की जरूरत नहीं होती। इसके लिए केवल शिक्षा की गुणवत्ता को कम करना ही काफी है। इसका नतीजा यह होगा कि मरीज ऐसे नीम-हकीमों के हाथों खुद-ब-खुद मारे जायेंगे। ऐसे इंजीनियरों द्वारा बनाई इमारतें अपने आप ढह जाएंगी। ऐसे अर्थशास्त्रियों, लेखा-बही संभालने वालों के हाथों में धन सुरक्षित न होगा और ऐसे न्यायाधीशों के हाथों सही न्याय मिलना सपने के समान हो जायेगा। कुल मिलकर कहा जाए तो शिक्षा का पतन राष्ट्र का पतन है। इस दौर में शिक्षा ही आने वाली पीढ़ियों की उन्नति का एकमात्र साधन है।
नि:संदेह कोई भी समाज अपनी भावी पीढ़ी के लिए अच्छी शिक्षा के बिना न तो प्रगति कर सकता है और न ही समृद्ध हो सकता है। यह बात ख़ास तौर से ज्ञान और प्रतिस्पर्धा के इस युग में सच है। शिक्षा और कौशल में उत्कृष्टता के बिना कोई भी समाज निचले दर्जे की ओर उन्मुख होगा। उसे पीछे छूट जाने का ये असहनीय दर्द भोगना पड़ेगा। दुर्भाग्य से, प्रदेश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता दिनों-दिन खराब होती जा रही है और इससे युवाओं की रोजगार क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है। यही कारण है कि आज देश में अथाह बेरोजगारी है।
इस समय राज्य में लगभग 60 विश्वविद्यालय चल रहे हैं, जिनमें से लगभग दो दर्जन विश्वविद्यालय राज्य सरकार द्वारा संचालित हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) रिपोर्ट 2021 के मुताबिक़ इंजीनियरिंग श्रेणी के तहत राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी), कुरुक्षेत्र को 44वां स्थान मिला है, जो 2020 में इसकी रैंकिंग की तुलना में चार पायदान की गिरावट दर्शाता है। इसी तरह महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (एमडीयू) की रैंकिंग 76वें स्थान से फिसलकर इस साल 78वें स्थान पर आ गई है। इसी प्रकार 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की रैंकिंग 99वें से गिरकर 119वें स्थान पर पहुंच गई है। राज्य में शिक्षा की गुणवत्ता में इस गिरावट का एक प्रमुख कारण यह है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज पर्याप्त शिक्षकों, वित्त और बुनियादी ढांचे के बिना ही स्थापित किये जा रहे हैं। उनके स्वायत्त कामकाज में हस्तक्षेप ने प्रदेश में शैक्षणिक माहौल को खराब कर दिया है।
सरकार का लक्ष्य उच्च शिक्षण संस्थानों की उत्कृष्टता में सुधार सुनिश्चित करना नहीं, बल्कि राजनीतिक फायदा हासिल करना या केवल आंकड़ों की बाजीगरी करना है। राज्य में सरकारी कॉलेजों की स्थिति बेहद खराब है। यह सच्चाई हमारी युवा पीढ़ी के भविष्य के प्रति सरकार की उदासीनता को उजागर करती है। हरियाणा में 173 सरकारी कॉलेज हैं, जिनमें से लगभग 50 नाममात्र की बुनियादी सुविधाओं के साथ अस्थायी भवनों में चलते हैं। कुछ कॉलेज तो किसी स्कूल के तीन-चार कमरों में या किसी बाहरी इमारत से ही चलाए जा रहे हैं। महाविद्यालयों में लगभग 8,800 पदों के कार्यभार के सापेक्ष शिक्षकों के लगभग 8,000 स्वीकृत पद हैं। मौजूदा समय में लगभग 3,600 नियमित शिक्षक, जो स्वीकृत पदों का करीब 46 प्रतिशत बनता है, ही कार्यरत हैं।
कॉलेज शिक्षकों के करीब 54 प्रतिशत पद लंबे समय से खाली पड़े हुए हैं। 173 कॉलेजों में से केवल 40 कॉलेजों में ही स्थाई प्राचार्य हैं। कॉलेजों में जरूरत के हिसाब से शिक्षकों के बिना शैक्षणिक माहौल और शिक्षा के स्तर की कल्पना कोई भी आसानी से कर सकता है। वहीं मौजूदा रिक्तियों के सापेक्ष ‘एक्सटेंशन लेक्चरर’ की भर्ती की नीति पर 2018 से ही रोक लगा दी गई है। यानी कॉलेज शिक्षकों के पदों को जानबूझकर खाली रखा जा रहा है।
मौजूदा उपलब्ध बुनियादी ढांचे यानी प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों, खेल सुविधाओं की हालत बेहद खराब है और इससे कॉलेजों में छात्रों के सर्वांगीण विकास में काफी दिक्कत आती है। उच्च शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को लगातार बदलते और प्रतिस्पर्धी नौकरी बाजार में उनकी रोजगार योग्यता के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल से लैस करना होना चाहिए। हरियाणा में उच्च शिक्षा को लेकर एक और चौंकाने वाली सच्चाई यह है कि पिछले साल खोले गए 20 में से 15 कॉलेज मानविकी के केवल दो मुख्य विषयों यानी इतिहास और राजनीति विज्ञान के साथ भाषा विषय अंग्रेजी और हिंदी की ही शिक्षा दे रहे हैं। छात्रों को अनिवार्य रूप से इन्हीं विषयों को चुनना पड़ता है जिनमें रोजगार पाने की गुंजाइश बेहद सीमित होती है।
महामारी के संकट के चलते भी नयी शिक्षा नीति से उम्मीदें काफी कम हो गई हैं, जिससे छात्रों के लिए हालात और बिगड़ गए हैं। महामारी के दौरान छात्रों को सबसे बड़ा नुकसान सीखने का हुआ और इसके चलते शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच डिजिटल विभाजन ने हालात को और भी बदतर कर दिया है। संसाधनों की कमी के कारण, ग्रामीण इलाकों के गरीब छात्रों को आसानी से गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा नहीं मिल पाती है। नयी शिक्षा नीति में इस बात की परिकल्पना और सिफारिश की गई है कि राज्य शिक्षा के क्षेत्र में अपने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत खर्च करें। दुर्भाग्य से, हरियाणा सरकार ने शिक्षा के लिए जीएसडीपी का केवल 2 प्रतिशत ही आवंटित किया है। ब्रिटिश शिक्षाविद् एंडी मैकइंटायर ने तंज कसते हुए कहा है कि ‘यदि आपको लगता है कि शिक्षा महंगी है, तो जाहिल बनने की कोशिश करें।’
इसमें कोई शक नहीं है कि उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट का नतीजा मानव संसाधनों की बर्बादी होती है, जिससे अंततः युवाओं में निराशा फैलती है। परिणामस्वरूप, आने वाली पीढ़ियों के लिए कई गंभीर दुष्प्रभावों के साथ सामाजिक माहौल भी खराब हो जाता है।