जिम्मेदारी से ही सार्थक अभिव्यक्ति की आज़ादी
आदर्श रूप में किसी भी अभिव्यक्ति को संयम और उद्देश्य की छलनी से गुजरना ही होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) में स्पष्ट किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ कतई नहीं है कि कोई व्यक्ति बिना आधार के गैर जिम्मेदाराना आरोप लगाए अथवा टिप्पणियां करे।
एक 22 वर्षीय छात्रा और सोशल मीडिया पर सक्रिय प्रभावी शर्मिष्ठा पनौली को पश्चिम बंगाल पुलिस ने गुरुग्राम से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर एक विवादास्पद वीडियो को लेकर गिरफ्तार किया था। इस वीडियो में उसने तथाकथित अपमानजनक और साम्प्रदायिक भाषा का प्रयोग किया था। 3 जून, 2025 को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने शर्मिष्ठा को अंतरिम जमानत देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ‘इस विविधता से भरे देश में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि दूसरों को कष्ट पहुंचाएं।’ लेकिन दो दिन बाद ही कलकत्ता उच्च न्यायालय ने उसे यह कहते हुए जमानत दे दी कि उसके खिलाफ की गई शिकायत में किसी संज्ञेय अपराध का घटित होना नहीं पाया गया।
9 मई, 2025 को पुणे पुलिस ने एक 19 वर्षीय इंजीनियरिंग की छात्रा खदीजा को भी सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के समर्थन में संदेश पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। यही नहीं, मुख्य दण्डाधिकारी (सांसद-विधायक) मऊ की विशेष अदालत ने 31 मई, 2025 को यूपी के विधायक अब्बास अंसारी को 2022 के चुनाव प्रचार में घृणित भाषण देने का दोषी ठहराया था। राहुल गांधी को भी वर्ष 2019 की एक राजनीतिक रैली में ‘सभी चोरों का उपनाम मोदी क्यों होता है’ जैसी अभद्र टिप्पणी पर अदालत ने आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराया था।
हाल ही में, माननीय उच्चतम न्यायालय ने यू-ट्यूबर अजय शुक्ला के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू की है, क्योंकि उसने उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश पर अपमानजनक टिप्पणी की थी। ये वही न्यायाधीश थे जिन्होंने मध्य प्रदेश के कैबिनेट मंत्री विजय शाह के मामले की सुनवाई की थी। 22 मई, 2025 को हरियाणा पुलिस ने अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को एक तथाकथित आपत्तिजनक ट्वीट करने पर गिरफ्तार किया था। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण में गहन जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का आदेश पारित किया है। अशोका विश्वविद्यालय के संस्थापक द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि सामाजिक सक्रियता एक विकल्प हो सकता है, स्वतंत्र कला शिक्षण का अनिवार्य हिस्सा नहीं। सामाजिक सक्रियता और शैक्षणिक कार्य दो अलग-अलग बौद्धिक विचारधाराएं हैं। वहीं शिक्षाविदों का मानना है कि इस आजादी के बिना अनुसंधान और बौद्धिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
सोशल मीडिया पर सक्रिय व्यक्तियों ने पहले ही कई मासूम लोगों की मानसिक शांति और जीवनयापन के ढंग को प्रभावित किया है। इसमें दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं की जननी है, लेकिन यदि इसे बिना किसी जवाबदेही के प्रयोग में लाया जाएगा तो यह आत्मघाती भी सिद्ध हो सकती है। दैनिक इंडियन एक्सप्रेस अखबार बनाम भारत सरकार (1985) में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी के पीछे चार व्यापक सामाजिक उद्देश्य बताए थे : पहला, यह व्यक्ति को आत्म-संतुष्टि प्राप्त करने में सहायक है, दूसरा, यह सत्य की खोज में सहायक है। तीसरा, यह निर्णय लेने की प्रक्रिया में व्यक्ति की भागीदारी की क्षमता को मजबूती प्रदान करता है तथा चौथा, यह एक ऐसा तंत्र प्रदान करता है जिसमें स्थिरता और सामाजिक परिवर्तन के बीच संतुलन बनाया जा सके।
आदर्श रूप में किसी भी अभिव्यक्ति को संयम और उद्देश्य की छलनी से गुजरना ही होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) में स्पष्ट किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ कतई नहीं है कि कोई व्यक्ति बिना आधार के गैर जिम्मेदाराना आरोप लगाए अथवा टिप्पणियां करे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को परिस्थितियों में प्रतिबंधित किया जा सकता है यदि इससे भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, अदालत की अवमानना अथवा किसी की मानहानि होने का अंदेशा हो या किसी अपराध के लिए उकसाए जाने का खतरा हो।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) का तात्पर्य यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बिना जिम्मेदारी के नहीं मिलती। अभिव्यक्ति की आज़ादी, सभी प्रकार के विचार से ऊपर उठकर प्रत्येक व्यक्ति पर जिम्मेदारी और जवाबदेही निर्धारित करती है, ताकि राज्य के वैध हितों को कोई हानि न पहुंचे। भारतीय न्याय संहिता 2023 (बीएनएस) की धारा 152 के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत की एकता व अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्यों के लिए सजा का प्रावधान है। इसी संहिता की धारा 196 के अनुसार धर्म, नस्ल, जन्मस्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाने और सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुंचाना अपराध घोषित किया गया है। धारा 197 राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाले कार्यों के लिए व्यक्ति के लिए दण्ड का प्रावधान करती है। धारा 296 में अश्लीलता और अभद्रतापूर्ण व्यवहार को सजा की श्रेणी में रखा गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जीने के अधिकार जितना ही पवित्र माना गया है, लेकिन जब इसे किसी व्यक्ति द्वारा किसी की मानहानि करने अथवा व्यंग्यात्मक और अपमानजनक टिप्पणी करने तक ले जाया जाए तो उसकी जवाबदेही भी उसी व्यक्ति पर आनी चाहिए।
वर्ष 1982 में जोधपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए.एन. निगम को तत्कालीन प्रधानमंत्री के विरुद्ध की गई अपमानजनक टिप्पणी के कारण निलंबित कर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने प्रोफेसर निगम को किसी भी प्रकार की राहत देने से इनकार कर दिया था। राहुल गांधी द्वारा की गई मानहानि के प्रकरण में सजा को निलंबित करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजनेताओं को सलाह दी थी कि ‘सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति को भाषण देते समय सावधानी बरतनी चाहिए’। राधा मोहन लाल बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को न्यायपालिका के विरुद्ध बेबुनियाद और शरारती आरोप लगाने की आज़ादी न समझा जाए। ध्यान रहे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करते समय शालीनता और सामाजिकता की सीमाओं का उल्लंघन न हो।
आदर्श रूप से, संविधान में निहित विचारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की शक्ति का उपयोग समाज में नकारात्मकता फैलाने की बजाय मानवता के समग्र कल्याण और विकास के लिए किया जाना चाहिए। छात्रों और सोशल मीडिया पर सक्रिय युवाओं को मीडिया प्लेटफॉर्म पर व्यवहार के तौर-तरीकों को लेकर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। उन्हें सोशल मीडिया पर निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा प्रयोग की गई भाषा और व्यंग्य के तौर-तरीकों की आंख बंद करके नकल करने से बचना चाहिए।
कानून लागू करने वाली एजेंसियों को भी स्पष्ट कानूनी अर्थों में प्रावधान को समझने और उन्हें लागू करने की आवश्यकता है। उन्हें किसी अभिव्यक्ति के पीछे के वास्तविक इरादों को उसके अभिव्यक्ति के समय, लहजे, भाव, संदर्भ और उद्देश्य के आधार पर समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। पुलिस द्वारा कानूनों को शाब्दिक रूप में पढ़ने की प्रवृत्ति और उन्हें सत्ता के आदेशानुसार चुनींदा रूप से लागू करने की नियत के कारण पहले ही पुलिस की छवि खराब हो चुकी है। पुलिस को समझना चाहिए कि बिना दुर्भावना या अपराध को भड़काए बिना की गई अभिव्यक्ति कोई अपराध नहीं होती है। उम्मीद करें कि न्यायपालिका कानून के प्रयोग से संबंधित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सभी मामलों की कानूनी जांच के लिए उचित मानदंड और एक समान मानक निर्धारित करेगी।
लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।