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विकास की कीमत पर मुफ्त की रेवड़ियां

बिहार में वादों की बहार
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ये योजनाएं अल्पकालिक रूप से मतदाताओं को आकर्षित करने में कारगर हो सकती हैं, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा दे सकती हैं और बुनियादी ढांचे तथा विकास परियोजनाओं को पीछे धकेल सकती हैं।

भारत की राजनीति में चुनावी मौसम आते ही मुफ्त सुविधाओं और लोकलुभावन वादों की बौछार शुरू हो जाती है, जिन्हें आलोचक अक्सर ‘रेवड़ियां’ कहते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने इसी क्रम में कई योजनाओं की घोषणा की है—जिनमें महिलाओं को प्रतिमाह 1,000 रुपये की सहायता, बेरोजगार युवाओं को 10,000 रुपये की एकमुश्त राशि, मुफ्त बिजली, पेंशन में दो गुना वृद्धि और निर्माण श्रमिकों को 5,000 रुपये की सहायता राशि शामिल हैं।

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इन योजनाओं पर अगले दो वर्षों में 2,800 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने का अनुमान है, जबकि बिहार का वार्षिक राजस्व लगभग 56,000 करोड़ रुपये है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस तरह की लोकलुभावन घोषणाएं राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर बोझ बनेंगी, या यह सामाजिक कल्याण की दिशा में एक जरूरी कदम हैं?

बिहार के 2025 विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) के बीच कांटे की टक्कर है। नीतीश सरकार ने महिलाओं (51 प्रतिशत मतदाता) और युवाओं पर ध्यान केंद्रित किया है। 18 सितंबर को शुरू हुई 10,000 रुपये की सहायता योजना 12 लाख युवाओं तक पहुंचेगी। इसके अलावा, 1.67 करोड़ परिवारों को मुफ्त बिजली और महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण जैसे वादे हैं। दूसरी ओर, आरजेडी ने जातिगत सर्वे के आधार पर और अधिक कल्याणकारी योजनाओं का वादा किया है।

उधर, सामाजिक मंचों पर कुछ लोग इन घोषणाओं को ‘वोट खरीदने की रणनीति’ मानते हैं, जबकि कुछ इसे ‘सामाजिक कल्याण’ की दिशा में एक कदम मानते हैं। इन योजनाओं का फोकस विशेष रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित और अति पिछड़ा वर्ग जैसे समुदायों पर है, जिससे राज्य की जाति-आधारित राजनीति को और गति मिलने की संभावना है।

हालांकि, ये योजनाएं अल्पकालिक रूप से मतदाताओं को आकर्षित करने में कारगर हो सकती हैं, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा दे सकती हैं और बुनियादी ढांचे तथा विकास परियोजनाओं को पीछे धकेल सकती हैं। विपक्षी दल भी अब इसी राह पर चलने लगे हैं, जिससे राज्य की राजनीति में एक तरह का ‘रेवड़ी युद्ध’ शुरू हो गया है—जहां नीतियों की प्रतिस्पर्धा की जगह वादों की होड़ ने ले ली है।

बिहार की आर्थिक स्थिति पहले से ही कमजोर है। इस समय प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 40 प्रतिशत कम है और बेरोजगारी दर 7.2 प्रतिशत के आसपास है। इन योजनाओं से राज्य के खजाने पर शुरुआत में 2,800 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। यदि योजनाएं स्थायी हुईं, तो कर्ज-जीएसडीपी अनुपात (वर्तमान में 36 प्रतिशत) और बढ़ेगा। उधर, मुफ्त बिजली जैसी योजनाएं बिजली बोर्डों पर दबाव डालेंगी, जो पहले से घाटे में चल रहे हैं। मुफ्त बिजली से पानी और ऊर्जा का दुरुपयोग बढ़ेगा, और नकद सहायता से कार्यबल की भागीदारी कम हो सकती है। कृषि-आधारित बिहार में, जहां 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, संसाधनों का असंतुलित आवंटन दीर्घकालिक विकास के लिए गंभीर बाधा बन सकता है। पहले से ही सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढांचों पर खर्च सीमित है; ‘रेवड़ियों’ पर बढ़ता खर्च इन जरूरी क्षेत्रों की उपेक्षा को और बढ़ा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में रेवड़ियों को ‘लोकतंत्र के लिए खतरा’ बताया था और विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव दिया था। फिर भी, दल विकास के बजाय अल्पकालिक लाभ पर जोर दे रहे हैं। यह प्रवृत्ति जातिगत और क्षेत्रीय ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है। बिहार में ओबीसी और दलित केंद्रित योजनाएं अन्य राज्यों में भी ऐसी ही मांगें बढ़ाएंगी। इससे राष्ट्रीय राजनीति में ‘वोट के लिए मुफ्त’ की संस्कृति गहरी होगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर रेवड़ियों का बोझ बढ़ रहा है। भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार, राज्यों का सब्सिडी खर्च 2019–22 में 7.8 प्रतिशत से बढ़कर 8.2 प्रतिशत हो गया, जिसमें बिहार और पंजाब अग्रणी हैं। मुफ्त योजनाएं राज्यों के कर्ज को बढ़ा रही हैं, जिसका असर राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था पर पड़ता है। रेवड़ियां संसाधनों को बुनियादी ढांचे और उत्पादक क्षेत्रों से हटाकर कल्याण योजनाओं में डाल रही हैं। आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) ने सुझाव दिया है कि ऐसी योजनाओं को सीमित किया जाए ताकि सड़क, रेल और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़े। मुफ्त बिजली और नकद सहायता से ऊर्जा का दुरुपयोग और क्रेडिट संस्कृति को नुकसान पहुंचता है, जो भारत की 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को कठिन बना देता है। रेवड़ियों और लक्षित सब्सिडी में अंतर समझना जरूरी है। पीएम किसान और उज्ज्वला जैसी योजनाएं दीर्घकालिक लाभ देती हैं, जबकि रेवड़ियां केवल वोट लुभाती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने नीति आयोग, वित्त आयोग और आरबीआई की समिति बनाने का सुझाव दिया है। इसके अलावा, चुनाव आयोग को वादों की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सशक्त करना होगा। मतदाता जागरूकता भी जरूरी है, ताकि लोग अल्पकालिक लाभ के बजाय दीर्घकालिक विकास को प्राथमिकता दें।

लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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