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असहाय भाव से मुक्त कीजिए युवाओं को

विश्वनाथ सचदेव अपने हालिया अमेरिकी दौरे के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में बसे भारतीयों को पिछले एक दशक में हुए भारत के विकास का विवरण दे रहे थे। उन्होंने आंकड़े देकर बताया कि इस दौरान भारत में कितने आईआईटी और...
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विश्वनाथ सचदेव

अपने हालिया अमेरिकी दौरे के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में बसे भारतीयों को पिछले एक दशक में हुए भारत के विकास का विवरण दे रहे थे। उन्होंने आंकड़े देकर बताया कि इस दौरान भारत में कितने आईआईटी और कितने आईआईएम खोले गए। उनका यह भाषण देश के टीवी चैनलों पर शायद लाइव दिखाया जा रहा था। मुम्बई की लोकल गाड़ी में मेरे साथ बैठे कुछ युवा मोबाइल पर यह सब देख रहे थे। तभी उनमें से एक बोल पड़ा, ‘इनको पता ही नहीं है कि देश के कितने नौजवान बेकार बैठे हैं...’ वह आगे कुछ और भी कह रहा था, पर मेरा ध्यान इसी वाक्यांश पर अटक गया कि ‘इनको पता ही नहीं है।’ इनको यानी उन सबको जिनके कंधों पर यह जानने का बोझ है कि उनकी नीतियों से देश का नौजवान कितना लाभान्वित हो रहा है।

उस दिन एक खबर आई थी टी.वी. पर। खबर हरियाणा के बारे में थी, जहां आजकल दिन-रात हमारे नेतागण अपनी तारीफों और दूसरों की बुराइयों में लगे हुए हैं। खबर में बताया गया था कि सफाई कर्मचारी के पद पाने के लिए तीन लाख 95 हजार युवाओं ने आवेदन किया है। खबर में यह भी बताया गया था कि इनमें से चालीस हजार तो स्नातक पदवीधारी हैं और लगभग सवा लाख बारहवीं पास हैं!

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कोई भी काम छोटा नहीं होता, लेकिन इस खबर से यह तो पता चल ही रहा है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का नागरिकों के जीवन-यापन से कितना और कैसा रिश्ता है। सफाई का काम कर पाने के लिए किसी को कितनी पढ़ाई करने की आवश्यकता है? किसी का स्नातक होना तो इसकी अर्हता हो ही नहीं सकती। होनी भी नहीं चाहिए। सफाई कर्मचारी की नौकरी पाने के लिए तो यह लगभग चालीस हजार युवा नहीं पढ़ रहे थे। कुछ सपने होंगे इनके भी। निश्चित रूप से जीवन की विवशताओं के समक्ष हार मानने के बाद ही इन युवाओं ने इस नौकरी के लिए आवेदन किया होगा। क्या उन्हें यह बात पता है जिन्हें पता होनी चाहिए? मुम्बई की लोकल गाड़ी में सफर करने वाले उस युवक ने अपने प्रधानमंत्री का भाषण सुनते हुए कहा था, ‘इन्हें पता ही नहीं है...’

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी (सीएमआईई) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, अखिल भारतीय बेरोजगारी की दर 9.2 प्रतिशत है। अपने विकसित देश होने का सपना देखने वाले देश के लिए यह आंकड़े चिंता और शर्म दोनों का विषय होने चाहिए।

हमारे नेता यह बात करते नहीं थकते कि पिछले एक दशक में हमारी अर्थव्यवस्था 90 प्रतिशत बढ़ गई है और भारत के लोग नए विश्वास से भरे हुए हैं। ये दोनों बातें सही हो सकती हैं, पर इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि आज देश में रोजगार के अवसर उतने नहीं हैं जितने होने चाहिए। आईआईएम और आईआईटी संबंधी दावों के बरक्स सच्चाई यह भी है कि हमारे विश्वविद्यालयों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसकी गणना दुनिया के श्रेष्ठ समझे जाने वाले पहले सौ विश्वविद्यालयों में की जा सकती हो! अमेरिका में अपने भाषण में प्रधानमंत्रीजी ने हमारे सदियों पुराने विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को फिर से साकार करने का सपना दिखाया है। कौन नहीं चाहेगा कि उनका यह सपना साकार हो? पर इस सच्चाई को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि अमेरिका में बसे जिन भारतीयों को वे संबोधित कर रहे थे, उनमें से अधिसंख्य वहां के श्रेष्ठ समझे जाने वाले विश्वविद्यालयों में पढ़ने गए थे। यूक्रेन और बांग्लादेश जैसे छोटे देशों में भी हमारे देश के विद्यार्थी पढ़ने जा रहे हैं!

बेहतर स्वास्थ्य, बेहतर शिक्षा और बेहतर जीवन-स्तर किसी भी देश के विकसित होने को सही तरीके से परिभाषित करते हैं। किसी भी अर्थव्यवस्था की सफलता और मजबूती का बुनियादी मानदंड यही है कि हर हाथ को काम, हर सिर को छत, और हर नागरिक को आगे बढ़ने का उचित और पर्याप्त अवसर मिले। जब व्यक्ति को चाहने और प्रयास करने पर भी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं मिलता, तो अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी अपना सिर उठाने लगती है। दावे या वादे भले ही कुछ भी किए जा रहे हों, सच्चाई यह है कि आज देश का युवा अपने आप को असहाय पा रहा है। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए।

इस बात की अवहेलना नहीं होनी चाहिए कि बेरोज़गारी अंततः विकास की दर को कम करती है और अर्थव्यवस्था में विकास को धीमा बनाती है। इसका सीधा असर गरीबी के स्तर पर पड़ता है। और इसका मतलब होता है कुपोषण को बढ़ावा। यह एक ऐसा दुष्चक्र है जो सारे गणित गड़बड़ा देता है।

यह मानना गलत होगा कि हमारे नेतृत्व को यह सब पता नहीं है। बेरोज़गारी जैसी समस्या कोई छिपी हुई बात नहीं है। सब इस बात से वाकिफ हैं और सब जानते हैं कि हमारा युवा देश इस दुष्चक्र का शिकार बन रहा है। भारत में युवाओं की संख्या दुनिया के सभी देशों से अधिक है। हमारी 75 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि हमारी काम करने की क्षमता अधिक है। सवाल इस क्षमता के सही और समुचित उपयोग का है। बेरोज़गारी के आंकड़े बताते हैं कि ऐसा हो नहीं रहा।

सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या हम इस स्थिति से निपटने के लिए वह सब कर रहे हैं जो अपेक्षित है? क्या हमारी प्राथमिकताओं में देश की युवा आबादी के लिए पर्याप्त काम की व्यवस्था का उचित स्थान है? हरियाणा में सफाई कर्मचारी के पद के लिए आवेदन करने वालों की संख्या तो यही बता रही है कि इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ नहीं है।

वे कौन-से मुद्दे हैं जो हमारे नेतृत्व को आज महत्वपूर्ण लग रहे हैं? इस प्रश्न का एक उत्तर हमारे राजनेताओं के बयानों में आए दिन सामने आ रहा है। हालिया चुनावों की बात ही कर लें। स्पष्ट दिख रहा है कि हमारे नेतृत्व के लिए मंदिर-मस्जिद, जातियों का वोट बैंक, सड़कों और शहरों का नामकरण, लंबी सड़कें, तेज़ गति वाले वाहन, ऊंची मूर्तियां, गगनचुम्बी इमारतें आदि वरीयता में कहीं ऊपर आते हैं। आम चुनावों में हमने स्पष्ट देखा कि मुद्दे ऐसी ही बातों तक सीमित रहे। करता रहे विपक्ष महंगाई और बेरोज़गारी की बात, वोट मुफ्त बिजली, मुफ्त अनाज, नकद राशि आदि की दुहाई देकर मांगे गए। हरियाणा में उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोज़गारों की आपदा चुनाव का मुद्दा नहीं बनी, इसे सिर्फ त्रासदी के रूप में ही समझा जाना चाहिए। हरियाणा का सच देश के बाकी राज्यों की भी कहानी सुनाता है। हाल ही में राजस्थान में लगभग 25 हजार सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिए नौ लाख से अधिक युवाओं ने आवेदन भरे थे! ये युवा हमसे अपना अधिकार मांग रहे हैं। कब मिलेगा उन्हें अपनी योग्यता के अनुसार काम करने का अधिकार?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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