जयसिंह रावत
विश्वविख्यात चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली के निकट एवलांच और उससे ऋषिगंगा और फिर धौलीगंगा में आयी बर्फीले पानी की बाढ़ से हुई भयंकर तबाही को अगर हम अब भी हिमालय के साथ हो रही मानवीय ज्यादतियों के खिलाफ प्रकृति की चेतावनी नहीं मानेंगे तो इससे बड़ी भूल कुछ और नहीं होगी।
शीत ऋतु में जहां सभी नदियां और खासकर ग्लेशियरों पर आधारित हिमालयी नदियां ठण्ड से सिकुड़ जाती हैं, उनमें भयंकर बाढ़ का आना उतना ही विस्मयकारी है, जितना कि केदारनाथ के ऊपर स्थाई हिमरेखा का उल्लंघन कर बादल का फटना था। शीतकाल में ग्लेशियरों के पिघलने की गति बहुत कम होने के कारण हिमालयी नदियां इन दिनों निर्जीव नजर आती हैं और गर्मियां शुरू होते ही उनमें नये जीवन का संचार होने लगता है लेकिन चमोली में भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीती घाटी की धौलीगंगा और ऋषिगंगा इतनी कड़ाके की ठण्ड में ही विकराल हो उठीं। अलकनन्दा की इन सहायिकाओं का ऐसा विनाशकारी रौद्र रूप अपने आप में चेतावनी ही है। यह चेतावनी हिमालय के जिस्म पर घाव करने और वृक्षविहीन कर उसे नंगा करने के विरुद्ध मानी जानी चाहिये।
अलकनन्दा के इसी कैचमेंट क्षेत्र में तीव्र ढाल वाले नदी-नाले पूर्व में भी अनेक बार भारी विप्लव मचा चुके हैं। सन् 1868 में चमोली गढ़वाल के सीमान्त क्षेत्र में झिन्झी गांव के निकट भूस्खलन से बिरही नदी में एक गोडियार ताल नाम की झील बनी, जिसके टूटने से अलकनन्दा घाटी में भारी तबाही हुई और 73 लोगों की जानें गयीं। सन् 1893 में गौणा गांव के निकट एक बड़े शिलाखण्ड के टूट कर बिरही में गिर जाने से नदी में फिर झील बन गयी, जिसे गौणा ताल कहा गया जो कि 4 कि.मी. लम्बा और 700 मीटर चौड़ा था। यह झील 26 अगस्त, 1894 को टूटी तो अलकनन्दा में ऐसी बाढ़ आयी कि गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर का आधा हिस्सा तक बह गया। बद्रीनाथ के निकट 1930 में अलकनन्दा फिर अवरुद्ध हुई थी, इसके खुलने पर नदी का जलस्तर 9 मीटर तक ऊंचा उठ गया था। सन् 1967-68 में रेणी गांव के निकट भूस्खलन से जो झील बनी थी, उसके 20 जुलाई, 1970 में टूटने से अलकनन्दा की बाढ़ आ गयी, जिसने हरिद्वार तक भारी तबाही मचाई। इसी बाढ़ के बाद 1973 में इसी रेणी गांव गौरा देवी ने विश्व बिरादरी को जगाने वाला चिपको आन्दोलन शुरू किया था।
तीव्र ढाल के कारण हिमालयी नदियां जितनी वेगवान होती हैं, उतनी ही उत्श्रृंखल भी होती हैं। इसलिये अगर उनका मिजाज बिगड़ गया तो फिर रविवार को धौलीगंगा में आयी बाढ़ की तरह ही परिणाम सामने आते हैं। नदी का वेग उसकी ढाल पर निर्भर होता है। हरिद्वार से नीचे बहने वाली गंगा का ढाल बहुत कम होने के कारण वेगहीन हो जाती है। पहाड़ में गंगा की ही स्रोत धारा भागीरथी का औसत ढाल 42 मीटर प्रति कि. मी. है। मतलब यह कि यह हर एक कि.मी. पर 42 मीटर झुक जाती है। अलकनन्दा का ढाल इससे अधिक 48 मीटर प्रति कि.मी. है। जबकि इसी धौलीगंगा का ढाल 75 मीटर प्रति कि.मी. आंका गया है। इसी प्रकार नन्दाकिनी का 67 मीटर और मन्दाकिनी का ढाल 66 मीटर प्रति कि.मी. आंका गया है। जाहिर है कि धौली सबसे अधिक वेगवान है तो उससे खतरा भी उतना ही अधिक है।
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है मगर अब इन विप्लवों की फ्रीक्वेंसी बढ़ रही है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त, 2010 की रात्रि बादल फटने से आयी त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गये थे। वहां दो साल में ही फिर सितम्बर, 2014 में आयी बाढ़ ने धरती के इस स्वर्ग को नर्क बना दिया था। मार्च, 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आये एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गये थे। सतलुज नदी में 1 अगस्त, 2000 को आयी बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे। उस समय सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गयी। वर्ष 1995 में आयी आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गयी थीं।
भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत शृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों व धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर-पूर्व के हिमालयी राज्यों में निरन्तर वनावरण घट रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहाशा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की अनियंत्रित भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।
दरअसल, हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की लगभग 2400 कि. मी. लम्बी यह पर्वतमाला को भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने एवं हिमखण्ड स्खलन जैसी आपदाओं ने अपना स्थाई घर बना लिया है।
हिमालय क्षेत्र में ऋतुओं में आ रहे इस परिवर्तन के लिये हम केवल ग्लोबल वार्मिंग को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। इसके लिये लोकल वार्मिंग का फैक्टर ज्यादा असरकारक है। अगर आप भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1995 और 2017 की वन स्थिति सर्वे रिपोर्टों पर गौर करें तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हम हिमालयवासी अपने आश्रयदाता हिमालय के तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं।