अन्याय और शोषण की पराकाष्ठा हमेशा बदलाव को आवाज देती है। जब तंत्र बेदम हो जाये तो इसे समाप्त कर एक नये जीवन तंत्र की स्थापना के सपनों को साकार कर पाना ऐसी क्रांति कहलाता है, जिसका युगों से पददलित इंतजार करते हैं। जब वक्त आता है तो इसके लिए संघर्ष करते हैं, जूझ मरते हैं। तब फैज अहम फैज की पंक्तियां हम जुबान पर नहीं, हर क्रांति सैनिक की धमनियों में दौड़ती हैं कि ‘ऐ खाक नशीनो उठ बैठो, वह वक्त मुकाबिल आ पहुंचा। जब ताज गिराये जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे।’ तब हर क्रांति गीत जैसे बदलाव निमंत्रण हो जाता है।
ऐसा ही क्रांति आह्वान सितंबर अंत से पंजाब और हरियाणा से उभरते हुए उस किसान आंदोलन से मिला, जिसमें बड़ी संख्या में किसान पैदल या अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉलियों पर सवार होकर देश की राजधानी की सीमा की ओर कूच कर गये। इनके साथ उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों ने भी स्वर मिलाया। यह एक अजब शान्तिप्रिय अनुशासित आंदोलन है, जिसका विश्वभर में संज्ञान लिया गया। तीन सप्ताह के करीब दिल्ली सीमा का घेराव करते हुए आंदोलनकारी अपनी बेहतरी के लिए बनाये गये कानूनों को किसान विरोधी बताकर उन्हें बदलने की बात कर रहे थे।
सरकार से उनकी बात दर बात होती रही। जो कानून उनकी आय को दुगना करने के लिए बनाये गये थे या फसलों की खरीद-बेच को शोषण रहित बनाने के लिए एक नियमित मंडियों के साथ वैकल्पिक निजी मंडियों की स्थापना का उद्घाटन थे, उन्हीं को आक्रोशित धरती पुत्र कह रह हैं कि देश के अस्सी प्रतिशत अढ़ाई हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसान को कार्पोरेट घरानों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है। बदलाव का नाम लेकर उन्हें एक छद्म परिवर्तन के समक्ष बन्धक बनाया जा रहा है।
यह एक अजब स्थिति है, जिसमें दोनों पक्ष अपने आपको सही और दूसरे को गलत, अपने आपको बदलाव से प्रतिबद्ध और दूसरे पक्ष को प्रतिक्रियावादी बता रहे हैं। दोनों ओर से संवाद की स्थिति का आह्वान हो रहा है, लेकिन कोई पक्ष भी लोचशील होकर किसी सर्व स्वीकार्य निर्णय को अपनाने के लिए तैयार नहीं।
निश्चय ही किसानों के इस क्रांति मार्च और घेराव को यह कहकर नकारा नहीं जा सकता कि उन्हें कानून समझने में भूल हो गयी है। क्या कहीं न कहीं इस बदलाव के लिए चिल्लाते लोगों के मन में यह धारणा नहीं पैठ गयी कि फसल उगने और बेचने वालों के सामने खरीदने वालों की ताकत कहीं अधिक है और वे अपनी शर्तों पर उनकी फसलें खरीद लेंगे, जो उनकी मेहनत या लागत का पूरा मूल्य नहीं देगी।
वे लोग इसीलिए हर मंडी चाहे वह नियमित हो या निजी में एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं, या उसके लिए कानून बना देने का हठ कर रहे हैं। कानून बनाने वाली सरकार की बाध्यता यह है कि अगर न्यूनतम कीमत की गारंटी ही दे दी तो कौन-सा निजी कार्पोरेट घराना इन फसलों की ओर आयेगा, जो उन्हें मांग और पूर्ति के खुले खेल के बिना निश्चित कीमतों के साये तले लाभप्रद नहीं लगेंगी। इसकी जगह वे क्या देश के दूसरे राज्यों में नकद फसलों की खेती की ओर नहीं चले जायेंगे? एमएसपी की गारंटी मिल भी गयी, तो किसानों को ग्राहक न मिलने की शिकायत पैदा हो जायेगी। यह शिकायत पुरानी है। इससे पहले शांता कुमार कमेटी का सर्वेक्षण भी यही बता गया कि जब इन नये कानूनों की वैकल्पिक मंडी व्यवस्था नहीं थी, एएमपीसी की पुरानी खरीद प्रणाली थी, तब भी किसान अपनी फसलों का छह प्रतिशत ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच पाते थे।
पहले भी अपनी आर्थिक दुरावस्था के कारण इन्हें अपनी फसलों को औने-पौने दाम बेचना पड़ता था, अब भी बेचना पड़ेगा। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक किसान को उसकी फसल लागत और पचास प्रतिशत लाभ की शर्त पहले भी थी, अब भी मांगी जा रही है। लेकिन झंझट यह है कि परंपरागत धान और गेहूं के फसल चक्र का अनुसरण ही पंजाब और हरियाणा में होता रहा है, अब भी हो रहा है। इसलिए कुल उत्पादन मांग से कहीं अधिक हो जाता है। अब आपूर्ति अधिक और मांग कम, इसलिए अर्थशास्त्र के सादे संतुलन सिद्धांत के मुताबिक कीमत तो कम मिलेगी, चाहे जितनी भी एमएसपी की गारंटी दे दी जाये।
आय बढ़ाने का तो एक ही सीधा उपाय यहां है और वह है फसलों का वैविध्यकरण, और जीवन-निर्वाह फसलों के स्थान पर नकद एवं व्यावसायिक खेती को अपनाना। जिन राज्यों ने फसल विविधता के इस चक्र को अपना लिया है, वहां इसीलिए उन्हें इस आंदोलन में एक प्रतिबद्धता के साथ कूदते नहीं देखा गया, जितना कि पंजाब और हरियाणा के परम्परागत फसल चक्र वाले किसान सामने आये।
किसान की कान्ट्रैक्ट फार्मिंग में अपने शोषण का डर एवं धनाढ्य खरीदारों द्वारा जमाखोरी की बन्दिश खुल जाने के बाद उनके द्वारा अनुचित लाभ और किसान की आय का वहीं का वहीं रह जाने का संशय अनुचित नहीं और इसीलिए उनके आंदोलन को इसकी तीखी धार भी मिली है।
लेकिन समय की परख बताती है कि किसानों का आर्थिक कायाकल्प केवल किसान कानूनों में संशोधन अथवा उनके रद्द करके नये कानून बनाने से नहीं होगा।
ऐसा न हो कि किसानों का एक आंदोलन का अपना-अपना वोट बैंक भुनाने के लिए भी विपक्षी दलों द्वारा राजनीतिकरण हो जाये। यही बात हर क्रांति आंदोलन को उसकी राह से भटका कर नेताओं की सत्तालिप्सा की ओर धकेल देती है। यह भी सही है कि अभी तक किसानों का यह क्रांति आंदोलन एक साफ-सुथरे और अनुशासित ढंग से चलाया जाता रहा, लेकिन भारत बंद और टोल फ्री आवागमन और भूख हड़ताल की घोषणाओं ने जहां इसका राजनीतिकरण हो जाने की संभावना बढ़ा दी, वहां अराजक तत्वों और देश विरोधी ताकतों की घुसपैठ के लिए भी चोर दरवाजे खुलने का अंदेशा है।
जरूरी है कि हर तरह के राजनीतिक हठ को त्याग कर जल्द से जल्द एक नयी समझ और समझौता पैदा किया जाये, ताकि नवजागरण का ध्वजवाहक यह आंदोलन अपनी असफलता के बीज स्वयं ही बोने न लगे। यह भी न भूला जाये कि भारत की सरहदों पर शत्रु और आतंकी घात लगाये बैठे हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में अगर यह उद्वेलन चलता रहता है, तो इनके लिए भारत विरोधी खेल खेलने के लिए एक खुला और उपजाऊ मैदान मिल जायेगा।
देश की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा हमारे किसान, या कृषि सेवाओं से जुड़े हुए लोग हैं। किसानों का आर्थिक कायाकल्प ही उसकी सब समस्याओं का सम्पूर्ण हल है। तब तक किसान कानूनों के संशोधन का झगड़ा उनके किसी काम न आयेगा। फसलों का वैविध्यकरण, कृषि संबंधित सेवाओं का विनिर्माण और ग्रामीण युवा शक्ति को खेतीबाड़ी में अपने नये जीवन की तलाश करने का संदेश ही उनका मुक्ति प्रसंग है, न कि अराजक हो सकने वाले आंदोलनों की उथल-पुथल।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।