कृष्ण प्रताप सिंह
तीन साल पहले कर्नाटक में एक युवक ने पबजी खेलने से मना करने पर अपने पिता का सिर काट लिया था, अब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इसी ऑनलाइन गेम के लती एक किशोर ने अपनी मां को अपने घर में ही गोली मार दी। लखनऊ की इस मां का कुसूर भी वही कर्नाटक के उस बाप वाला ही था-बेटे को पबजी खेलने से रोकना।
आगे किस तरह उसने मां की खून से लथपथ लाश को घर के ही एक कमरे में बंद किये रखा, कैसे उसकी हत्या के वक्त उपस्थित छोटी बहन को भेद खोलने पर बुरे अंजाम की धमकी दी, कैसे दो दिन बाद शव से फैली बदबू नहीं दबी तो पिता से झूठ बोलकर सारी तोहमत इलेक्ट्रीशियन के मत्थे मढ़ने की कोशिश की और कैसे पुलिस को गुमराह नहीं कर पाने पर सच्चाई उगली, यह सब दोहराना महत्वपूर्ण नहीं है। इससे कहीं ज्यादा जरूरी यह समझना है कि हम अभी भी नहीं चेते और इस वारदात को दो-तीन दिन घिसी-पिटी चर्चा का विषय बनाये रखने और घिसी-पिटी पुलिसिया कार्रवाइयों के बाद अपनी राह पर बढ़ लिये, तो आगे इससे भी बड़े सामाजिक-पारिवारिक अनर्थों को अपना पीछा करते पायेंगे।
कारण यह कि न पबजी देश में ऑनलाइन खेला जाने वाला इकलौता गेम है और न ऐसे गेमों के चलते होने वाली त्रासद वारदातें यहीं ठहरकर रह जाने वाली हैं। अभी कुछ अरसा पहले तक ऑनलाइन गेमों की लत के शिकार युवा व किशोर रोके-टोके जाने पर निराशा में आत्महत्या का रास्ता चुनते थे। लेकिन अब लगता है कि बच्चों व किशोरों की ऐसी निराशाएं कहीं ज्यादा क्रूर आक्रामकताओं में बदल गईं।
ऐसे में सवाल है कि हम चेत भी जायें तो क्या करें? और जवाब यह कि कुछ नहीं तो खुद से और व्यवस्था से पूछें कि बच्चों, किशोरों व युवाओं को ऑनलाइन गेमों की इतनी खतरनाक लत किसने, क्यों व कैसे लगाई और अब इस लत के कारण वे मातृ व पितृहंता हो चले हैं तो क्या उनके अपराध महज उन्हीं के हैं? क्या उनमें सबसे बड़ा हिस्सा उन माताओं व पिताओं का नहीं है, जिन्होंने ठीक से बोलना सीखने से पहले ही उनके हाथों में मोबाइल पकड़ाया और व्यस्तताओं के चक्कर में यह देखना भी गवारा नहीं किया कि वे उसमें क्या कर रहे हैं। अध्ययन बताते हैं कि हमारे देश में अपने बच्चों से यथोचित संवाद न रखने और उन्हें पालनागृहों अथवा नौकरों के संरक्षण में किये रखने वाले ऐसे माताओं-पिताओं की संख्या नब्बे प्रतिशत तक पहंुच गई है और कौन जाने लखनऊ की उस मां ने भी यह गुनाह कर रखा हो। फिर देश की उस व्यवस्था को क्या कहें जो उनके मार्गदर्शन का अपना कर्तव्य नहीं निभाती?
कालांतर में चीन से सीमा विवाद भड़का और उसे सबक सिखाने के लिए पबजी समेत अनेक चीनी ऐप बैन कर दिये गये। लेकिन चीन का पबजी बैन के बावजूद हमारी अगली पीढ़ी पर कहर बरपा रहा है। वजह है पबजी पर लगाया गया प्रतिबंध उसके मोबाइल वर्जन पर ही है, डेस्कटॉप वर्जन पर नहीं।
तिस पर अभिनेता अक्षय कुमार अब फौजी नाम का पबजी का स्वदेशी अवतार बाजार में ला चुके हैं, जिसे चीन पर निर्भरता घटाने के नाम पर देशभक्ति व राष्ट्रवाद से भी जोड़ा जा रहा है। लेकिन क्या किसी आनलाइन गेम को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया जाये तो उसके दुष्प्रभाव दुष्प्रभाव नहीं रह जाते और तब इस तथ्य की उपेक्षा की जा सकती है कि पबजी हो या फौजी, उनमें असल खिलाड़ी ऑनलाइन गेमिंग कंपनियां होती हैं, जिन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस चक्कर में एक पूरी पीढ़ी का भविष्य दांव पर लग जाता है? जिम्मेदार मनोवैज्ञानिक ऑनलाइन गेमों के बच्चों, युवाओं व किशोरों पर पड़ने वाले घातक प्रभावों को लेकर लगातार आगाह करते आये हैं। उनके अनुसार आनलाइन गेम खेलने वाले 95.65% बच्चे व किशोर बिहैवियर कन्डक्ट डिसआर्डर से पीड़ित होकर गहरे तनाव में रहते हैं और 80.43 प्रतिशत दिन रात उन खेलों के बारे में ही सोचते हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले दिनों केंद्र सरकार से कहा था कि वह बच्चों, किशोरों व युवाओं को ऑनलाइन गेमों की लत से बचाने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाये। लेकिन सरकार द्वारा अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। क्या इस आपराधिक उदासीनता के जिक्र के बाद यह जताने के लिए किसी और तथ्य की जरूरत है कि ऑनलाइन गेमों के कारण हत्यारे बन रहे बच्चों, किशोरों व युवाओं के अपराधों में उनसे बड़ा हिस्सा हमारी पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था का है? क्या इन व्यवस्थाओं के इस अपराध पर विचार करते हुए उसे इस आधार पर कोई रियायत दी जा सकती है कि कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान पढ़ाई के लिए मोबाइल का इस्तेमाल अपरिहार्य हो गया था व उससे बच्चे ऑनलाइन गेम के आदी हो गये?
अगर हम अभी भी, जवाब में तथ्यों का कम और सुभीतों का ज्यादा ध्यान रखेंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही अपनी अनियंत्रित मोबाइल-संस्कृति का वैसा ही खामियाजा भुगतने को विवश हो जायें, जैसे इन दिनों अमेरिका स्कूलों तक में अंधाधुंध फायरिंग के तौर पर अपनी बन्दूक-संस्कृति का भुगत रहा है।