आठ नवम्बर से कुछ याद आता है क्या? पांच साल पहले इस तारीख को देश में कुछ ऐसा हुआ था, जिसे एक क्रांतिकारी कदम बताया गया था। यह कदम प्रधानमंत्री मोदी ने उठाया था। सिर्फ चार घंटों के नोटिस पर देश के पांच सौ और हज़ार के नोटों को महज़ ‘कागज़ का टुकड़ा’ बनाने के इस आदेश ने देश को चौंकाया ही नहीं, एक तरह से हिला कर रख दिया था। आठ नवम्बर 2016 के राष्ट्र के नाम अपने संदेश में प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण या नोटबंदी के आदेश की घोषणा करते हुए कहा था कि इस एक कदम से देश का काला धन खत्म होगा, भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर समाप्त हो जायेगा, आतंकवाद का खात्मा होगा और नकली नोटों से मुक्ति मिलेगी। तभी प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि मैं देश से सिर्फ पचास दिन मांग रहा हूं। अगले पचास दिन में यदि देश ईमानदारी से इस काम में मेरा सहयोग देगा तो इस कार्रवाई से ये सारी समस्याएं निपट जायेंगी।
लगता है, देश ने ईमानदारी से सहयोग नहीं दिया। शायद इसीलिए उस घोषणा के पांच साल बाद भी न काला धन खत्म हुआ, न भ्रष्टाचार। आतंकवाद से भी हम जूझ ही रहे हैं। कहा गया था कि नोटबंदी के बाद लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये के नोट बैंकों में नहीं लौटेंगे, पर पांच सौ और हज़ार के 99.3 प्रतिशत नोट वापस आ गये। यानी काले धन से मुक्ति की उम्मीद पूरी तरह से नाउम्मीदी में बदल गयी थी। उम्मीद यह भी करायी गयी थी कि काले धन से मुक्ति के परिणामस्वरूप देश में इतना पैसा आ जायेगा कि हर भारतीय के बैंक खाते में पंद्रह लाख रुपया जमा हो सकेगा। लोग बड़ी आशाओं से अपने बैंक खातों में पंद्रह लाख जमा होने का इंतज़ार करने लगे थे। यह तो बाद में गृहमंत्री ने एेलान किया था कि वह तो एक जुमला था!
सच भी है, प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा था कि हर भारतीय के बैंक खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा करा दिये जायेंगे, बात उस राशि का अनुमान लगाने मात्र की थी जो विदेशी बैंकों में हमारे कर-चोरों ने जमा कर रखे थे। पर जिस अंदाज़ में यह बात कही गयी, वह भ्रामक ज़रूर था। तब विपक्ष ने नोटबंदी के इस मसले पर सवाल भी उठाये थे। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कदम के खतरनाक दूरगामी परिणामों की चेतावनी भी दी थी। पर देश की जनता ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के आश्वासन में कुछ विश्वास करने लगी थी।
फिर धीरे-धीरे नोटबंदी की बात जैसे कहीं खोने लगी। पचास दिन में वांछित परिणाम न निकलने पर चौराहे पर खड़े होकर सज़ा भुगतने की बात करने वाले प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की बात करना ही छोड़ दिया। लेकिन, यह सवाल तो उठता है कि इस कार्रवाई के परिणामों से कुछ सीखने की आवश्यकता क्यों महसूस नहीं की जा रही? जिस तरह अपनी सफलताओं को याद करके उनसे प्रेरणा ली जाती है, उसी तरह अपनी असफलताओं से सीखने की भी आवश्यकता होती है।
सन् 2021 नोटबंदी के निर्णय के पांच साल बीतने का वर्ष है। यदि यह सचमुच क्रांतिकारी कदम था तो यह अवसर उत्सव मनाने का था। यदि यह कदम सचमुच अच्छे दिनों की ओर ले जाने वाला था तो इस आठ नवम्बर को पांच साला जश्न तो बनता था। ऐसा कुछ नहीं हुआ, इसका अर्थ यही हो सकता है कि सरकार को भी पांच साल पूर्व की गयी इस कार्रवाई की निरर्थकता का आभास होने लगा है। यदि ऐसा है तो यह अवसर उस कदम को याद करके कुछ सीखने का था। पर हम उससे भी चूक गये। आखिर क्यों?
इस सवाल का एक उत्तर हमारी मौजूदा राजनीति में तलाशा जा सकता है। लोकलुभावन नारों की मदद से सत्ता तक पहुंचा तो जा सकता है, पर ऐसे नारों का उपयोग करके उन्हें केले के छिलके की तरह फेंक देना भी तो कोई अच्छी राजनीति नहीं है। इसे सिर्फ ओछी राजनीति कहा जा सकता है।
दुर्भाग्य से हमारी राजनीति अल्प समय तक मददगार होने में सिमटती जा रही है। लोकलुभावन नारों की मदद से मिली राजनीतिक सफलता अंतत: जनतंत्र को कमज़ोर बनाती है। पर हमारे राजनीतिक दल इस बात को समझना नहीं चाहते। चुनावी सफलता से आगे नहीं देख पाती उनकी दृष्टि। चुनाव से चुनाव तक की इसी राजनीति का एक परिणाम यह है कि असफलताओं से सीखने के बजाय असफलताओं को छिपाने की कोशिश की जाती है। अन्यथा और कोई कारण नहीं था कि आठ नवम्बर की तारीख को इतनी सहजता से भुला दिया जाता। विपक्ष ने अवश्य कुछ आवाज़ उठायी है इस बारे में। पर उसमें भी वह प्रतिबद्धता नहीं दिखाई देती जो होनी चाहिए। सवाल सिर्फ नोटबंदी के परिणामों के आकलन का नहीं, देश की समूची अर्थव्यवस्था को नये सिरे से समझने-अर्थवान बनाने का है। बेहतर होता यदि सरकार इस विषय पर एक सहज चुप्पी अपनाने के बजाय उन खामियों को खोजने की कोशिश करती दिखाई देती, जिनके चलते हम उन लक्ष्यों को नहीं पा सके, जिन्हें अब तक पा लिया जाना चाहिए था।
अब सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि पांच साल पहले आर्थिक सुधार के जो वादे किये गये थे, वे पूरे क्यों नहीं हो पाये। यह सवाल जनता को ही नहीं, सरकार को भी अपने आप से पूछना चाहिए कि अयोध्या में बारह लाख दीये जलाने का कीर्तिमान ज़्यादा महत्वपूर्ण है अथवा देश के हर घर के दरवाजे पर दीया जलना। नोटबंदी समेत उन सब नीतियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, जिनके वांछित परिणाम नहीं निकले। पर कौन करना चाहता है यह काम?