बारिश और बाढ़ ने पूर्व से पश्चिम तक तबाही मचा दी है। पहाड़ों पर हो रही लगातार बारिश के चलते राज्यों में हालात गंभीर हैं। गुजरात, बिहार, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी तबाही की स्थिति है। प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं चलता और न ही उन्हें रोका जा सकता है लेकिन इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
देश में कई राज्य ऐसे हैं जहां थोड़ी बारिश में भी सब डूबने लगता है। पूर्वोत्तर राज्यों में जहां असम, बिहार पर कहर टूटता है वहीं महाराष्ट्र में मुंबई की बारिश निचले इलाकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। यहां दादर, परेल और हिंदमाता जैसे कई इलाके मानसून की बारिश के साथ जलभराव की समस्या से जूझते नजर आते हैं। हैरत की बात ये है कि दिल्ली और मुंबई में सड़कों के डूबने की मुख्य वजह है जल निकासी का स्थाई समाधान नहीं करना। मुंबई की अगर पहले बात करें तो ये समझना होगा कि मानसून भौगोलिक तौर पर महाराष्ट्र के तटवर्ती कोंकण इलाके में आता है। इस इलाके में महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों से हर साल ज्यादा बारिश होती है। मुंबई में हर साल औसत 2514 मिलीमीटर बारिश होती है। मुंबई अरब सागर के किनारे बसी है, इसलिये इसमें समंदर भी अपनी भूमिका निभाता है।
वैसे तो समंदर में रोजाना ज्वार-भाटा आता है। लेकिन जब ज्वार यानी कि हाई टाइड साढ़े 4 मीटर से ऊपर की हो तो वो मुंबई के लिए मुसीबत का संकेत है। हाई टाइड की वजह से मुंबई की सड़कों पर जमा पानी समुद्र में नहीं जा पाता और उलटा समुद्र का पानी शहर में घुसता है।
मुंबई के पवई और विहार तालाब से निकलती मीठी नदी के आसपास अतिक्रमण भी एक समस्या है। प्रदूषण और कचरे ने नदी की गहराई भी कम की है। भारी बारिश होने पर इस नदी में बाढ़ आ जाती है और पानी आसपास के एक बड़े इलाके को अपनी चपेट में ले लेता है। बावजूद इसके जल निकासी सिस्टम को दुरुस्त करने को किसी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। हर साल बीएमसी बजट का करीब 3 फीसदी हिस्सा स्ट्रोम वाटर निकासी के लिये होता है। मुंबई मे 2000 किलोमीटर के करीब खुले नाले हैं, 440 किलोमीटर के ढके हुए नाले हैं और 186 आउटफॉल हैं, जहां से बारिश के कारण जमा हुआ पानी समंदर में गिरता है। 26 जुलाई, 2005 की बारिश के बाद ड्रेनेज सिस्टम का कायाकल्प करने के लिये ब्रिमस्टॉवेड नाम के प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई लेकिन आज भी इस प्रोजेक्ट का काम पूरा नहीं हुआ है।
यही हाल राजधानी दिल्ली का है। आईटीओ के पास तेज बारिश मुसीबत बन जाती है। मिंटो ब्रिज में हमेशा कि तरह इस बरसात में भी बस फंस गई। एक टेंपो ड्राइवर की डूबने से मौत हो गई और पुल प्रह्लादपुर अंडरपास में पानी भर गया। सरकार कोई हो, समस्या खत्म करने के लिए बैठकें और योजनाएं तो बनती हैं लेकिन अमल कितना हो रहा है इस पर, किसी का ध्यान नहीं जाता।
दुनिया के तमाम देशों में समस्या को समाधान में बदला गया है। इस्राइल में रेगिस्तान में मछलियां पालते हैं और गर्मी में आलू उगा रहे हैं। सिंगापुर ने अपने ड्रेनेज सिस्टम को सुधारने के लिए करीब 30 वर्षों में करीब 9 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए। इसकी वजह से पूरे सिंगापुर में बाढ़ प्रभावित इलाके में करीब 98 फीसदी की कमी आई। नीदरलैंड ने 400 साल पहले ही ड्रेनेज सिस्टम बना लिया था। जापान ने टोक्यो के शोवा और कासूकाबे, साइतामा के बीच दुनिया की सबसे बड़ी अंडरग्राउंड फ्लड वाटर डाइवर्जन फैसिलिटी बनायी है। अमेरिका में यूएस आर्मी कोर ऑफ इंजीनियर्स बाढ़ नियंत्रण की प्रमुख एजेंसी है।
कई बार भारत में भी इस दिशा में काम करने की बात हुई, हो भी रहा है लेकिन रफ्तार बढ़ाने की जरूरत है। लंदन में टेम्स नदी पर एक विशालकाय मैकेनिकल बैरियर बना हुआ है जो बाढ़ नियंत्रण में मदद करता है। ऐसा भारत में क्यों नहीं बन सकता। हर साल बाढ़ की मार झेलने वाले सूबों में फ्रांस की तरह जलाशयों का जाल क्यों नहीं बिछाया जा सकता?
जिन-जिन देशों ने बाढ़ या बारिश को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें तबाही झेलनी पड़ी है। पाकिस्तान के कराची शहर में तो बारिश का पिछले 100 साल का रिकॉर्ड टूट गया है। भारत में जनवरी, 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अपील पर जनता के अंशदान से प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष की स्थापना की गई थी। इसका मकसद पाकिस्तान से विस्थापित लोगों की मदद था। लेकिन अब इस राहत कोष की धनराशि का ज्यादा इस्तेमाल बाढ़, चक्रवात और भूकंप आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मारे गए लोगों के परिजनों और दंगों के पीड़ितों को तत्काल राहत पहुंचाने के लिए किया जाता है। जाहिर है अगर बाढ़ या जल भराव की समस्या का स्थाई हल हो जाये तो हर साल इस मद में खर्च होने वाली रकम को बचाया जा सकता है।