तालिबानी बंदिशों के बीच सिसकती स्त्री अस्मिता
जब से तालिबान दोबारा सत्ता में आए हैं, उन्होंने पहले की तरह ही महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें लगाई हैं। वहां का महिला कल्याण मंत्रालय खत्म कर दिया गया है। कोई महिला या बच्ची अगर बिना मुंह ढके दिखे, तो...
जब से तालिबान दोबारा सत्ता में आए हैं, उन्होंने पहले की तरह ही महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें लगाई हैं। वहां का महिला कल्याण मंत्रालय खत्म कर दिया गया है। कोई महिला या बच्ची अगर बिना मुंह ढके दिखे, तो उसे कठोर दंड भी दिया जा सकता है।
पिछले दिनों अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी भारत य़ात्रा पर आए। उन्होंने प्रेस काॅन्फ्रेंस की, मगर उसमें महिला पत्रकारों को नहीं बुलाया गया। जब इस बात की आलोचना हुई तो उन्होंने एक बचकाना बहाना बनाया कि एंट्री पास की कमी के कारण ऐसा किया गया। खैर, बाद में एक दूसरी प्रेस काॅन्फ्रेंस भी आयोजित की गई, जिसमें महिला पत्रकारों को बुलाया गया। उन्होंने परेशान करने वाले सवाल भी पूछे। इसे महिला पत्रकारों की कामयाबी ही कहा जाएगा कि वे अपने इस प्रयास में सफल हुईं कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां स्त्री-पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।
जब से तालिबान दोबारा सत्ता में आए हैं, उन्होंने पहले की तरह ही महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें लगाई हैं। वहां का महिला कल्याण मंत्रालय खत्म कर दिया गया है। कोई महिला या बच्ची अगर बिना मुंह ढके दिखे, तो उसे कठोर दंड भी दिया जा सकता है। वे न पढ़ सकती हैं, न लिख सकती हैं। छठी कक्षा से आगे वे पढ़ नहीं सकतीं। पुरुष अध्यापक उन्हें पढ़ा नहीं सकते। अफगानिस्तान दुनिया का एकमात्र देश है, जहां स्त्रियों के पढ़ने पर प्रतिबंध है। वे विश्वविद्यालयों में प्रवेश नहीं ले सकतीं। एक बार मार्च, 2022 में लड़कियों के स्कूल को तालिबानों ने खोला था, लेकिन खोलने के कुछ घंटों बाद ही बंद कर दिया गया। लड़कियां किसी कैम्पस में न वीडियो बना सकती हैं, न अपने फोटो खींच सकती हैं।
तालिबानों के सत्ता में आने से पहले अफगानिस्तान में सत्ताईस प्रतिशत स्त्रियां नौकरी करती थीं। लेकिन अब उनका भविष्य अंधकारमय है। यही नहीं, कई प्रांतों में दुकानदारों को आदेश दिए गए हैं कि यदि कोई स्त्री बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ आए, तो उसे सामान न दिया जाए। वे किसी जिम में भी बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के नहीं जा सकतीं।
नौ साल की उम्र में लड़कियों की शादी जायज है। वे कृषि, सिविल इंजीनियरिंग, पत्रकारिता आदि नहीं पढ़ सकतीं क्योंकि नेताओं के अनुसार ये विषय महिलाओं के लिए बहुत कठिन हैं। महिलाएं किसी टीवी प्रोग्राम में भाग नहीं ले सकतीं। वे न किसी फिल्म में काम कर सकती हैं। बहुत से संस्थानों में उनके नौकरी करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। महिलाएं खिड़की से बाहर न झांकें, इसलिए यदि उनके घर में ऐसी खिड़कियां हैं, तो उन्हें बंद करना पड़ा है। महिलाओं को चेहरा ढकना तो अनिवार्य है ही। कारण कि महिलाओं को देखकर पुरुष लालायित न हों। कमाल है न, यदि कोई पुरुष किसी महिला को वासना भरी नजरों से देख रहा है, तो उसमें भी पुरुष का नहीं महिला का ही दोष हुआ। उनका इलाज भी सिर्फ महिला डाक्टर ही कर सकती हैं।
कोई बताए कि जब महिलाएं पढ़ेंगी-लिखेंगी ही नहीं, तो डाक्टर कैसे बनेंगी। महिला डाक्टर नहीं होंगी, तो महिलाओं को इलाज भी नहीं मिलेगा। वे मरती हैं, तो मरती रहें। वे किसी पुरुष रिश्तेदार के बिना कहीं जा-आ नहीं सकतीं। यही नहीं, यह आदेश भी है कि जब तक बहुत जरूरी न हो, वे घर से बाहर न निकलें। उन्हें जोर से बोलना नहीं है। हंसना भी नहीं है। किसी पुरुष को उनकी हंसी सुनाई नहीं देनी चाहिए। वे संगीत भी नहीं सुन सकतीं। गा भी नहीं सकतीं। पिछले दिनों अफगानिस्तान में कुछ महिलाएं मलबे के नीचे दबी हुई थीं। बचाव दल वहां पहुंचा भी। लेकिन महिलाओं को नहीं बचाया गया, क्योंकि पुरुष महिलाओं को नहीं छू सकते थे।
आखिर ये कैसी सोच है। लेकिन कोई करे भी तो क्या। विरोध के स्वर अपनों के ही बीच से निकलते हैं। बाहर का कोई किसी समाज को नहीं बदल सकता। रूस और अमेरिका ने ऐसा करके देख लिया है। उन्हें वहां से भागना ही पड़ा। एक तरफ सऊदी अरब में महिलाओं को बहुत-सी बातों से मुक्ति दी जा रही है। जबकि सऊदी अरब में भी महिलाओं के लिए बहुत से कठोर कानून रहे हैं। लेकिन अफगानिस्तान में स्त्रियों का कोई मददगार नहीं। अधिकांश अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भी चुप्पी साध रखी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जरूर एक बार बयान दिया था। जो लोग ब्यूटी पेजेंटस को ही असली स्त्री अधिकार समझते हैं, उन्हें ध्यान देना चाहिए कि धरती के इसी भाग में महिलाएं कितनी मुसीबतों का सामना कर रही हैं। उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं है। भारत में जरूर एक महिला पत्रकार ने साहस के साथ तालिबानी मंत्री से इस बारे में सवाल पूछा।
जो साधन-सम्पन्न स्त्रियां थीं, वे अफगानिस्तान से पहले ही जा चुकी हैं। हमेशा ऐसा ही तो होता है। साधन-सम्पन्न हर मुसीबत से बचने की राह खोज लेते हैं। अब वहां वे स्त्रियां रह गई हैं, जो सरकार के रहमोकरम पर ही जिंदा रह सकती हैं। रहमोकरम भी कैसा, जहां लगभग सांस लेने पर भी बंदिश है। स्त्रियां जाएं तो जाएं कहां।
दरअसल, इन दिनों देशों को अपने व्यापारिक हित पहले नजर आते हैं, स्त्रियों के मानवाधिकार बाद में। तभी तो बहुत से ऐसे देश जो साम्यवादी विचार की वकालत करते हैं, उन्होंने बिना समय गंवाए तालिबानों का समर्थन किया।
तालिबान जब पहले सत्ता में आए थे, तब भी उन्होंने स्त्रियों पर किस कदर कहर ढाया था, इस पर अफगानिस्तान की ही सारा शाह ने चुपके-चुपके एक फिल्म बनाई थी-बिहाइंड द वेल। इसमें एक दृश्य में एक बड़े स्टेडियम में बंदूक धारी खड़े हैं। बहुत से दर्शक भी मौजूद हैं। वह सफेद बुर्के में लिपटी एक स्त्री लाई जाती है। उसके पीछे दूसरी स्त्री है। पहली स्त्री को जमीन पर बिठा दिया जाता है। फिर उसे गोली मारी जाती है। वह ढेर हो जाती है। फिर दूसरी स्त्री उसके दिल पर हाथ रखकर बताती है कि हां, वह सचमुच मर चुकी है। स्त्रियों को इस तरह से मारने से शायद धर्म की रक्षा हो जाती होगी।
सच बात तो यह है कि जो सत्ताएं भी धर्म से चलती हैं, उन्हें किसी बड़े से बड़े अपराधी को सजा देने की इतनी जल्दी नहीं पड़ी रहती, जितनी कि स्त्रियों को। स्त्रियां डरें, तभी तो काबू में रहेंगी। लेकिन अगर पीछे का सच देखेंगे, तो इन सत्ताओं को स्त्रियों से बहुत डर लगता है। तभी उन पर दाब-धौंस वाले ऐसे कानून लागू किए जाते हैं, जिन्हें धर्म का मुलम्मा पहनाकर, उसकी रक्षा की बात की जाती है। अगर सचमुच स्त्रियों से इतनी नफरत है तो क्यों उनसे विवाह करते हो, क्यों उनसे संतान उत्पन्न की जाती हैं।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।